‘‘लोकार्पण-परम्परा पर अनुसंधान की आवश्यकता’’-नामवर सिंह
नई दिल्ली
हिन्दी का कोई भी रचनाकार उपेक्षित न हो जाये इसके लिए आवश्यक है कि साहित्यिक संस्थाएं आगे बढ़कर अपनी सक्रिय भूमिका अदा करें। यह बात विख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने वरिष्ठ कवि एवं लेखक उद्भ्रांत की तीन नई पुस्तकों, सृजन की भूमि, (संस्मरणात्मक निबंध), आलोचना का वाचिक (वाचिक आलोचना) तथा ब्लैकहोल (काव्य नाटक) तथा कवि उद्भ्रांत के चर्चित महाकाव्य ‘त्रेता’ पर दलित दृष्टि से लिखे गये जानेमाने दलित चिंतक कंवल भारती के आलोचना ग्रंथ ‘त्रेता-विमर्श और दलित-चिंतन’ का लोकार्पण करते हुए कहीं।
इसी अवसर पर गत 22 फरवरी, 2012 को नई दिल्ली में ‘लोकार्पण की भूमिका और मिथकीय काव्य और नाटक का दलित विमर्श’ विषय पर अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए नामवर सिंह ने कहा कि लोकार्पण और उसकी परम्परा पर आज अनुसंधान आवश्यक लगता है, और इस पर विश्वविद्यालयों में शोध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि उद्भ्रांत के भीतर एक आग है जिसे वे निरंतर अपनी रचनात्मक प्रतिभा से साबित करते रहते हैं। उनका यही संघर्ष उनकी कृतियों के माध्यम से मुझे आकर्षित करता है। उन्होंने कहा कि उनका यह स्पष्ट मानना है कि कोइं भी पुस्तक/रचना अपने दम पर चलती है। जिसमें दम नहीं होगा वह इतिहास में चली जाएगी। इसलिए यह भी आवश्यक है कि इस प्रकार की गोष्ठियों को जारी रखना चाहिए ताकि कोई भी पुस्तक अनदेखी न रह जाए। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों को अपने उपेक्षित साथी साहित्यकार को मतभेदों के बावजूद आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करना चाहिए और इसके लिए उन्हें राजनीतिज्ञों से भी सबक़ लेना चाहिए।
विचारोत्तेजक गोष्ठी को आगे बढ़ाते हुई दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रो. डॉ0 बली सिंह ने कहा कि लोकार्पण में शामिल पुस्तकों की समग्रता को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उद्भ्रांत का व्यक्तित्व बहुआयामी है। इसके मूल में उनके चिंतन का फैलाव है जो ‘त्रेता’ से शुरू होकर ‘सृजन की भूमि’ तक अपना विस्तार लिए हुए है। ‘ब्लैकहोल’ के व्यापक फ़लक की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इस जटिल काव्यनाटक में यद्यपि समूची सृष्टि की कथा स्त्री-पुरुष के माध्यम से व्यक्त हो गई है तथापि इसका सामाजिक दृष्टिकोण और अंतर्निहित संदर्भ इसमें अपनी पूर्णता के साथ मौजूद हैं।
जामिया मिलिया विश्वविद्यालय की प्रो. डॉ. हेमलता महिश्वर ने कंवल भारती की पुस्तक ‘त्रेता-विमर्श और दलित चिंतन’ के शीर्षक को औचित्यहीन तथा अप्रासंगिक बताते हुए एक सिरे से खारिज कर दिया। अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए उन्होंने कहा कि यह विषय ही उन्हें समझ में नहीं आया। उनका स्पष्ट मानना था कि त्रेता के मिथकीय संदर्भों को दलित चिंतन से कैसे जोड़ा जा सकता है़?
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद के पूर्व उपकुलपति प्रो. अभय मौर्य ने डॉ. हेमलता महिश्वर के दलित चिंतन विषय की स्थापना से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि किसी भी महाकाव्य के मूलस्वरूप के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ उचित नहीं है। उद्भ्रांत जी ने पुनर्सृजन करते समय विषय के मूल स्वरूप को उसके अदृश्य सामर्थ्य के साथ ‘त्रेता’ मंे प्रस्तुत करते हुए कुछ विशिष्ट चरित्रों को, जो कि मूल महाकाव्य में नेपथ्य में थे, महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर तथा प्रसिद्ध मीडिया समालोचक डॉ. हेमंत जोशी ने कहा कि ‘आलोचना का वाचिक’ विगत 15 वर्ष की अवधि में विभिन्न गोष्ठियों में हिन्दी के शीर्ष विद्वानों के मौखिक विचारों का प्रथम महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जबकि ‘सृजन की भूमि’ किसी भी रचनाकार की भूमिकाओं का पहला ऐसा संकलन है जिसमें लेखक ने साहित्य, समाज और जीवन को केन्द्र में रखकर अपनी बात रखी है। यह भी हिन्दी साहित्य में अपने आप में की गई विशिष्ट पहल है। उन्होंने कहा कि साहित्यिक विमर्श को खांचों में बांटकर देखने से बचना चाहिए।
‘युद्धरत आम आदमी’ त्रैमासिक पत्रिका की सम्पादक तथा स्त्री एवं दलित चिंतन की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सुश्री रमणिका गुप्ता ने उद्भ्रांत के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा कि आज के जनतांत्रिक मूल्यों को शम्बूक की जननी, सूर्पनखा और धोबिन जैसे दलित स्त्री-चरित्रों के माध्यम से उन्होंने ‘त्रेता’ में प्रभावी ढंग से उठाया है। उन्होंने कहा कि दलित चिंतन की दृष्टि से उद्भ्रांत ने अपनी पुस्तक में ऐसे चरित्रों को उकेरा है जो पाठकों को नई सोच के लिए पूरी पृष्ठभूमि देते हैं।
जानेमाने आलोचक डॉ. कर्ण सिंह चौहान ने कहा कि ‘आलोचना का वाचिक’ की विस्तृत भूमिका में उद्भ्रांत ने लोकार्पण समारोहों की आवश्यकता के सम्बन्ध में अपने जो तर्क रखे हैं वे अनुभव की कसौटी पर अकाट्य हैं। उन्होंने कहा कि रचनाकार अपनी तार्किक और बौद्धिक टकराव को कभी भी नहीं बचा सकते और इसी कारण सम्भवतः नई-नई साहित्यिक संस्थाएं हमें अपने इर्द-गिर्द दिखाई दे रही हैं और आगे भी दिखाई देती रहेंगी। उन्होंने इस बात की आवश्यकता पर जोर दिया कि आलोचकों को रचनाकार की पृष्ठभूमि और उसके द्वारा किये गये कार्यों का तार्किक और व्यावहारिक मूल्यांकन करना चाहिए-बावजूद इसके कि वे अपने गुट के चंद रचनाकारों के अल्प सृजन कर्म पर ही उन्हें महत्वपूर्ण अलंकारों से विभूषित करते हुए शीर्ष की ओर ढकेलने का यत्न करें।
कवि उद्भ्रांत ने काव्यनाटक ‘ब्लैकहोल’ के महत्वपूर्ण अंशों का प्रभावशाली पाठ करते हुए विमर्श के अंत में विमर्शकर्ताओं के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए तीनों कृतियों के सृजन-संदर्भों को स्पष्ट किया और इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि मौजूदा समय में हिन्दी आलोचना का बहुलांश जेनुइन रचनात्मकता पर ठीक प्रकार से ध्यान नहीं दे रहा है।
प्रारंभ में कवि उद्भ्रांत द्वारा ‘आलोचना का वाचिक’ ग्रंथ की प्रथम प्रति नामवर जी को, ‘सृजन की भूमि’ की प्रथम दो प्रतियां वरिष्ठ आलोचकों डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित व डॉ. शिवकुमार मिश्र की अनुपस्थिति में उनके प्रतिनिधि के रूप में क्रमशः दीक्षित जी के जमाता एवं पूर्व निदेशक (वित्त), बीएसएनएल श्री एस. डी. सक्सेना एवं डॉ. बली सिंह, काव्यनाटक ‘ब्लैकहोल’ की प्रथम प्रति कथाकार ज्ञानरंजन की अनुपस्थिति में उनके प्रतिनिधि के रूप में श्री हीरालाल नागर को तथा ‘त्रेता-विमर्श एवं दलित चिंतन’ की प्रथम प्रति लेखक कंवल भारती की अनुपस्थिति में स्वराज प्रकाशन के स्वत्वाधिकारी श्री अजय मिश्र द्वारा डॉ. हेमलता महिश्वर को प्रदान की गयीं।
इसके पूर्व विशिष्ट तथा आमंत्रित अतिथियों का स्वागत स्वराज प्रकाशन के स्वत्वाधिकारी श्री अजय मिश्र द्वारा किया गया। ‘आलोचना का वाचिक’ पुस्तक के ब्लर्व का प्रभावशाली पाठ दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिशासी अखिलेश मिश्र द्वारा तथा कार्यक्रम का सफल संचालन दूरदर्शन के सहायक निदेशक (कार्यक्रम) श्री पुरुषोत्तम नारायण सिंह ने किया।
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