नयी दिल्ली।
‘‘मीराँ
अर्थात् समुद्र
जिसे सीमाओं
में नहीं
बांधा जा
सकता। मध्यकालीन
युग की
महान कवयित्री
मीराँबाई भक्ति
रस का
ऐसा ही
अथाह समुद्र
थी जिसे
किसी भी
सीमा में
बांधना नामुमकिन
था।’’ प्रसिद्ध
आलोचक नामवर
सिंह ने
बुधवार, 2 मई को मार्कण्डेय के
जन्मदिवस पर
आयोजित ‘कथा’
पत्रिका के
लोकार्पण के
अवसर पर
यह उद्गार
व्यक्त किए।
मार्कण्डेय द्वारा वर्ष 1969 में स्थापित
और मीरॉंबाई
पर विशेष
रूप से
केन्द्रित इस पत्रिका ‘कथा’ का
सम्पादन युवा
कथाकार अनुज
ने किया
है।
इस कार्यक्रम में
नामवर सिंह
ने अपने
उद्बोधन में
कहा कि
साहित्य और
संस्कृति के
क्षेत्र में
महिलाओं की
बढ़ती संख्या
अच्छे संकेत
दे रही
है। आज
पारिवारिक और सामाजिक बाधाओं के
साथ महिलाएं
बिना किसी
आरक्षण के
इस क्षेत्र
में प्रगति
कर रही
हैं। स्त्री
विमर्श पर
आज साहित्य
के क्षेत्र
में जितना
लिखा जा
रहा है
वह समाज
की कसौटी
पर स्त्री
को परखने
के लिए
अच्छा प्रयास
है। उन्होंने
कहा कि
जो स्पष्ट
और सही
है उसकी
व्याख्या या
आलोचना करना
उचित नहीं।
मीराँबाई भी
ऐसी ही
शख्सियत थीं।
उन्हें भूला
नहीं जा
सकता। वह
इतिहास का
एक बड़ा
काल खण्ड
और समाज
के लिए
एक मिथक
बन चुकी
हैं।
कार्यक्रम की शुरूआत
में ‘कथा’
की प्रबंध
सम्पादक डॉ.
स्वस्ति सिंह
ने अतिथियों
का स्वागत
किया। इस
अवसर पर
‘कथा’ के
सम्पादक अनुज
ने अपने
विचार व्यक्त
करते हुए
कहा कि
मार्कण्डेय जैसे बड़े स्टेचर के
साहित्यकार की पत्रिका का सम्पादन
और मीराँ
बाई पर
केन्द्रित विशेषांक पर काम करना
दोधारी तलवार
पर चलने
जैसा था,
लेकिन इस
चुनौती को
स्वीकार करते
हुए आठ
महीनों की
अपनी अथक
लगन और
ईमानदारी तथा
अपने सभी
सहयोगियों के सहयोग से इस
कठिन कार्य
को पूरा
किया है।
विश्वनाथ त्रिपाठी ने
अपने उद्गार
व्यक्त करते
हुए कहा
कि मध्यकालीन
और आधुनिक
काल की
बात करें
तो आज
संदर्भ बदल
गए हैं।
नारी चेतना
आज नारी
शक्ति का
रूप ले
चुकी है।
इतिहास ने
नारी और
पुरूष की
भिन्नता को
असमानता में
बदल दिया।
मीराँ ने
वर्ण की
असमानता को
दूर कर
धर्म का
वर्ण स्थापित
करने का
प्रयास किया।
उन्होंने कहा
कि मीराँबाई
नारी चेतना
की प्रेरणा
हो सकती
हैं, नेता
नहीं।
मैनेजर पाण्डेय ने
कहा कि
गुजरात और
राजस्थान के
लोगों की
मीराँ को
लेकर क्या
राय है
आज यह
जानना बेहद
जरूरी है।
उन्होंने दिवराला
सती काण्ड
का उदाहरण
देते हुए
कहा कि
इस घटना
के समर्थकों
ने जहां
रैलियां निकाली
वहीं विरोधियों
ने मीराँ
के नाम
का प्रयोग
नारे के
रूप में
किया। समाज
में खासकर
नीचे तबकों
की महिलाओं
के लिए
मीराँ सदैव
प्रेरणास्रोत रही है। मीराँ ने
पुरूष समाज
द्वारा स्थापित
परम्पराओं के खिलाफ एक प्रकार
से युद्ध
किया। उन्होंने
किसी भी
मठ या
सम्प्रदाय की दीक्षा लेने से
इंकार कर
नारी मुक्ति
की दिशा
में जो
कार्य किया
वह अविस्मरणीय
है। श्री
पाण्डेय ने
कहा कि
शास्त्र से
महत्वपूर्ण लोक होता है और
जब कभी
किसी स्त्री
ने लोक
रूपी पुरूष
समाज की
परम्पराओं को चुनौती दी या
उनको ध्वस्त
करने का
प्रयास किया
तो महिलाओं
को कुलनाशिनी,
कुलटा आदि
उपाधियां दी
गई। मीराँ
ने अपने
संघर्ष में
सत्ता के
सामने सदैव
ईश्वर को
रखा।
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने
इस अवसर
पर कहा
कि पाठ्यक्रम
से जिस
प्रकार मीराँ
धीरे-धीरे
बाहर होती
जा रही
है यह
बड़ा गंभीर
मसला है।
मध्यकालीन इतिहास पढ़ाने वालों की
कमी हो
रही है।
स्त्री विमर्श
की बात
करने वाली
पहली महिला
मीराँ ही
थी। जितने
भी मध्यकालीन
कवि हुए
सबकी कोई
न कोई
बात मीराँबाई
में नजर
आती है।
उन्होंने कहा
कि मीराँ
ने पुरूष
समाज द्वारा
स्थापित तथाकथित
परम्परा और
व्यवस्थाओं का खुलकर विरोध किया।
अनामिका ने कहा
कि मीराँ
ने सहज
और सरल
भाषा का
इस्तेमाल कर
पदानुक्रम तोड़ने की पहली शुरूआत
की थी।
मीरॉं कविता
की आंतरिक
संरचना में
सूत्र को
मंचित किया
था। उद्दण्ड
पुरूष से
प्रेम करना
महिला के
लिए कितना
कठिन होता
होगा, इस
बात को
मीराँ के
पदों से
समझा जा
सकता है।
उन्होंने कहा
कि मीराँ
ने स्त्री
परामर्श की
जो बेल
लगाई थी
अब उसमें
आनंद के
फल लगने
लगे हैं।
मीराँ ने
वर्ण, वर्ग
और नस्ल
भेद समाप्त
करने के
प्रयास के
साथ ही
यौन व
रक्त संबंधों
को भी
नकारा। अनामिका
ने कहा
कि मीराँ
ने जिन
परम्पराओं की शुरुआत की थी
वर्तमान में
उसकी बैटरी
को रिचार्ज
करने की
आवश्यकता है।संगोष्ठी के अंत
में ‘‘कथा’’
के सम्पादक
अनुज ने
सभी आगुन्तकों
का आभार
व्यक्त किया।
कार्यक्रम का संचालन देवशंकर नवीन
ने किया
Comments