नई दिल्ली
'खुले
में रचना"
कार्यक्रम का आयोजन
साल दो हजार बारह के ग्यारह मार्च को को मित्र सईद
अयूब के
सौजन्य से
JNU के स्कूल
ऑफ़ लेंग्वेजेस
में 'खुले
में रचना"
कार्यक्रम का आयोजन किया गया! पिछले
महीने जब
सईद जी
से इस
बारे में
सुना था
तो जैसा
कि बाकी
लोगों का
ख्याल था,
जेहन में
एक तस्वीर
कौंधी.....खुले में रचना यानि
प्रकृति के
निकट खुले
परिवेश में
रचना.....शायद
तब शब्दों
की गहराई
की ओर
मेरा ध्यान
नहीं गया
था!
कल कार्यक्रम का हिस्सा बन
कर मैंने
महसूस किया
और बकौल
सईद "खुले में रचना यानि
रचनाकार (जो
कि इस
बार कवि
थे), साहित्यकारों
और श्रोताओं
के बीच
खुली चर्चा"! तो नाम की
सार्थकता पर
हम फिर
विचार करेंगे,
पहले मैं
आपको बता
दूँ कि
जिन तीन
प्रमुख कवियों
ने इस
आयोजन में
बतौर कवि
शिरकत की
वे थे........युवा समकालीन
कविता के
सशक्त हस्ताक्षर
अरुण देव,
जानी मानी
सुप्रसिद्ध संवेदनशील कवयित्री सुमन केशरी
और कार्यक्रम
के अध्यक्ष
की भूमिका
में थे
वरिष्ठ कवि
आदरणीय अशोक
वाजपेयी जी! मेरे लिए ये
कार्यक्रम इन मायनों में बड़ा
ही महत्वपूर्ण
था कि
मैं पहली
बार अपने
प्रिय कवियों
की कवितायेँ
उनके मुख
से सुन
रही थी!
कार्यक्रम से पहले
हुई बातचीत
में अरुण
देव जी
ने JNU के
अपने पुराने
दिनों की
यादें ताज़ा
की तो
उनका सहज
जुडाव बड़ी
खूबसूरती से
सामने आया! बहुत कुछ वैसे
ही लगा
ये अनुभव,
जब पिछले
दिनों मैं
अपने कॉलेज
में एक
कार्यक्रम में आमंत्रण पर गयी
थी!
कार्यक्रम की शुरुआत
में सईद
जी ने
खुले में
रचना आयोंजन
के औचित्य
पर कुछ
शब्द कहे
तो सभी
श्रोताओं (जिनमें मैं भी शामिल
थी) की
उत्सुकता चरम
पर पहुँच
गयी!
पहले आमंत्रित कवि थे अरुण
देव!
अरुण देव
अरुणजी के बारे
में कुछ
बताना शायद
मेरे लिए
संभव नहीं
होगा, क्योंकि
हर बार
कुछ 'बहुत
कुछ" में बदल जाता है! अरुण जी को
सुनना एक
ऐसा अनुभव
था जिसके
लिए घडी
पर निर्भर
करना थोडा
सा मुश्किल
था!
उन्होंने अपनी पहली कविता "लालटेन"
सुनाई!
अशोक जी के शब्दों में
"अरुण जी लालटेन, अरुणजी की
ही लालटेन
थी, विष्णु
खरे जी
या मंगलेश
डबराल जी
की लालटेन
से बिलकुल
अलग!
एक लगभग भुला दी गयी
वस्तु पर
इतना सजीव
चित्रण तो
अरुणजी ही
कर सकते
हैं!
इसके बाद उन्होंने एक कविता
"लाओ-त्से और कन्फ़ुसिअस' की
मुलाकात पर
एक कविता
पढ़ी!
फिर सुनाई मेरी प्रिय कवितायेँ
जिन्हें कई
बार पढ़ा
है "सिरहाने
मीर के",
"अयोध्या", "मेरी नाव",
"छल", "एकांत" और
अंत में
"पत्नी के लिए"! एक बार अरुण
जी ने
एक कविता
के बारे
में कहा
था "जहाँ
जितने चाहिए
उन्हें ही
शब्द, न
कम, न
ज्यादा"! अरुण जी की
कविताओं को
पढ़ते या
सुनते समय
ये "टेग
लाइन" अक्सर याद आ जाती
है!
यूँ भी उनकी कविताओं मेरे
लिए '३
डी इफेक्ट"
लिए होती
हैं जैसे
मीर को
सुनते वक़्त
दुर्रानियों के लश्कर की टापें
महसूस करना
या एकांत
कविता में
एक दृश्य
का जीवंत
हो जाना! अयोध्या
में एक
ही दिन
में उजाड़
दी गयी
तवायफों का
दुःख था
और 'पत्नी
के लिए'
कविता से
जुड़े तमाम
प्रसंग भी
जीवंत हो
गए जब
फेसबुक पर
पिछले साल
इस कविता
पर जोरदार
बहस हुई
थी, चूँकि
मैंने स्वयं
वहां आक्रोश
में ढेरों
टिप्पणियां की थी तो जब
अरुण जी
ने इसका
जिक्र किया
तो हम
सभी उस
किस्से को
यादकर हंस
पड़े!
अरुण जी का कविता पढने
का तरीका
बहुत प्रभावी
है और
देर तक
असर डाले
रखता है!
सुमन केशरी
सुमन दी को
एक कवि
के तौर
मैं एक
प्रशंसक के
नाते काफी
पहले से
जानती हूँ! फेसबुक
से थोड़ी
बहुत पहचान
भी थी! मेरे लिए वह
गर्व का
क्षण था
जब हम
दोनों की
कवितायेँ एक
साथ एक
संकलन का
हिस्सा बनी
थी लेकिन
मैं उनसे
पहली बार
मिली!
उनके अपनत्व ने और स्नेहिल
स्पर्श ने
मेरा मन
मोह लिया,
लगा ही
नहीं कि
दी से
पहली बार
मिल रही
थी! "डायलोग" के सिलसिले में
हुई संक्षिप्त
बातचीत से
मेरा रहा
सहा संकोच
भी जाता
रहा!
सुमन दी ने कई कवितायेँ
सुनाई और
जैसा कि
भूमिका में
सईद जी
कहा, बकौल
केदारनाथ जी
"सुमन दी संवाद-धर्मी गंभीर
कविताओं के
लिए जानी
जाती हैं!"
सुमन दी
ने "द्रौपदी", कृष्णा,
धुंध में
औरत, बहाने
से, मैंने
ठान लिया
है, बेटी
के लिए,
औरत, बा
और बापू,
स्त्री का
का अपराध
और लोहे
से पुतले
नामक कवितायेँ
सुनाई!
सुमन दी की खासियत है
कि वे
कविताओं में
मिथकों का
भरपूर प्रयोग
करती हैं,
और संवेदनशीलता
से अनबुझे
सवाल को
सामने लाकर
खड़ा कर
देती हैं! उनकी दृष्टि न
केवल मिथकीय
चरित्रों के
चित्रण पर
होती है
अपितु कई
कविताओं में
वे ऐसे
अनछुए पहलू
सामने लाती
है जो
लीक से
हटकर कई
समानांतर धाराओं
में पाए
जाते हैं,
द्रौपदी, सीता,
कृष्ण, जबाला
आदि कई
कई मिथकीय
पात्र सुमन
दी की
कविताओं में
साकार हो
प्रासंगिक हो उठते हैं! मैं यहाँ
कहना चाहूंगी
कि सुमन
दी बहुत
धैर्य से
कविता को
प्रस्तुत करती
है, सहज
सम्प्रेषण उनके पाठन की विशेषता
है! समय
रुक जाता
है एक
अलग परिवेश
में आप
स्वयं को
पाते हैं! इनमें
मैंने ठान
लिया है
में स्त्री
विमर्श एक
विनम्र रूप
से सामने
आया!
अशोक वाजपेयी
अशोक जी का
परिचय देना
सूरज को
दिया दिखाना
होगा, और
ऐसा दुस्साहस
कम से
कम मैं
तो नहीं
कर पाऊँगी! अपने अध्यक्षीय संभाषण
की शुरुआत
अशोक जी
ने बड़ी
विनोदपूर्ण शैली से की और
धीरे धीरे
वार्ता गंभीरता
की ओर
बढती रही! उन्होंने
दोनों कवियों
की कविताओं
को उद्धृत
किया और
उन पर
अपने विचार
सभी से
साझा किये! अशोक जी ने
कविता पाठ
की विशेषता
पर अपने
विचार प्रकट
किये, मुझे
सुखद अनुभूति
हुई क्योंकि
पिछले महीने
बिलकुल यही
सब एक
स्टेटस में
मैंने अपनी
वाल पर
लिखा था! उन्होंने
कहा कि
कविता पढना
और सुनना
अलग बातें
हैं, कविता
पाठ में
मानवीय उपस्थिति,
कवि की
आवाज़ जिसे
पढ़ते हुए
हम सुन
नहीं पाते,
वांछित जगहों
पर रुकना
आदि कुछ
बाते हैं
जो कविता
पढने में
नहीं हो
पाती! उन्होंने
जातीय स्मृति
शब्द का
उल्लेख किया
और कविता
के कई
कामों के
बारे में
बताया, जैसे
कविता का
काम है
भूलने से
रोकना, एक
अन्य काम
है ठिठकाना,
यानि भाषा
शब्द, बिम्ब
चरित्रों पर
ठिथ्काती है,
एक काम
है प्रत्याशित
को अप्रत्याशित
में बदलना!
इसके बाद उन्होंने
अपनी कई
कवितायेँ भी
सुनाई, जैसे
टोकनी, छाता,
जूते, पत्ती,
सूटकेस, ऐसा
क्यों हुआ,
मित्रहीन आकाश,
अपने शब्द
वापिस, क्या
यही बचता
है, अपने
हाथों से! अपनी इन सभी
कवियों को
उन्होंने विनोद
से अवसाद-ग्रस्त कवितायेँ
कहा!
उनकी इन कविताओं में समाज,
परिवेश, रिश्ते-नाते यहाँ
तक कि
टोकनी जैसे
शब्द के
खोने पर
उनकी अपनी
चिंताएं दिखाई
पड़ती थी!
अनुभवजनित वरिष्ठता उनकी अभिव्यकि को
नए आयाम
देती है!
परिचर्चा
इसके बाद परिचर्चा
के सत्र
का आरंभ
हुआ!
वहां कवियों और संचालक सईद
जी के
अतिरिक्त कई
मित्र भी
उपस्थित थे! श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल,
कविता कोष
फेम ललित
कुमार जी,
त्रिपुरारी कुमार शर्मा, गीता पंडित
(गीता दी),
शोभा द्विवेदी
मिश्रा, राघव
विवेक पंडित,
सीमान्त सोहल,
लीना मल्होत्रा
राव, भारत
तिवारी, विपुल
शर्मा, सुदेश
भारद्वाज, jnu से जुडी सुधा जी! गीता दी से
मिलकर भी
मुझे बेहद
ख़ुशी हुई,
लम्बा इंतज़ार
ख़त्म हुआ,
स्नेह से
भिगो देती
हैं गीता
दी!
इसके अतिरिक्त JNU से जुड़े बहुत
से छात्र,
शोधार्थी, और प्रोफ़ेसर भी वहां
उपस्थित थे! सभी ने अपनी
जिज्ञासाएं सामने रखी, आयोजन के
नाम के
अनुरूप जोरदार
बहस भी
हुई, विशेष
रूप से
कहना चाहूंगी
कि ललित
कुमार, भरत
तिवारी और
युवा जोशीले
त्रिपुरारी जो अक्सर बेहद चुप
चुप से
नज़र आया
करते हैं,
ने कविता
के स्वरुप
के पक्ष
में अपने
अपने विचार
रखे! कविता
के स्वरुप,
लोकप्रियता, गेयता आदि कई विषयों
पर अपने
विचार रखे
गए, यहाँ
एक सवाल
आया कि
कविता एक
मोड़ पर
ले जाकर
छोड़ देती
है, क्यों....दूसरा कि
कविता का
स्वरुप जटिल
क्यों है
और इसका
सम्प्रेषण सहज क्यों नहीं है,
बहुत ढेर
तक इस
बार बहस
चली, यहाँ
मैं दो
बातों का
उल्लेख करने
से स्वयं
को रोक
नहीं पा
रही हूँ,
पहला अशोक
जी ने
एक अरबी
कहावत का
जिक्र किया
"यदि किताब और खोपड़ी टकराए
और खन्न
कि आवाज़
आये तो
यह नहीं
मान लेना
चाहिए कि
आवाज़ किताब
की थी!
दूसरा
त्रिपुरारी जी ने दो बिम्ब
सामने रखे,
कि यदि
एक बंद
कमरे में
सूर्यास्त की तस्वीर दिखाई जाये
तो ये
आप पर
निर्भर करता
है कि
आप केवल
तस्वीर देखना
चाहेंगे या
खिड़की के
बाहर सूर्यास्त
भी देखेंगे,
दूसरा उदहारण
उन्होंने दिया
कि यदि
मैं आपको
ऊँगली से
चाँद दिखाता
हूँ
तो ये आप के ऊपर
है आप
चाँद देखते
हैं या
मेरी ऊँगली! ललित जी ने
भी छंदमुक्त
कविता की
घटती लोकप्रियता
पर अपनी
चिंताएं सभी
से साझा
कि!
एक वक़्त आया कि सभी
बराबर इस
पर बोल
रहे थे,
शंकाएं आ
रही थी
तो समाधान
भी उपस्थिति
दर्ज करा
रहे थे! पुरुषोत्तम
अग्रवाल जी
ने भी
अपनी विचारों
द्वारा सभी
को अवगत
कराया!
कुल मिलकर ये आयोजन अपनी
सार्थकता के
चरम पर
पहुँच गया
था!
जाहिर है कि कोई भी
नहीं चाह
रहा था
कि ये
चर्चा रुके! पर समय के
हाथों मजबूर
होकर सईद
जी को
समापन की
घोषणा करनी
पड़ी!
मैं आप सभी को बताना
चाहती हूँ
कि खुले
में रचना
के अगले
चरण में
कथाकारों की
भागेदारी इसे
रोचक बना
देने वाली
है!
अंजू शर्मा
युवा कवयित्री हैं.दिल्ली में रहते हुए साहित्य-संस्कृति के कई बड़े संगठनों से जुडी हुई है. कविता रचना के साथ ही आयोजनों की अनौपचारिक रिपोर्टिंग के अंदाज़ के साथ चर्चा में हैं.प्रिंट मैगज़ीन के साथ ही कई ई-पत्रिकाओं में छपती रही है.वर्तमान में मैं अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम 'डायलोग'
और 'लिखावट' के आयोजन 'कैम्पस में कविता' से बतौर कवि और रिपोर्टरएक और पहचान है.
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