अपने बहुविध रचनाकर्म में कविता को मैं अपने चित्त के बहुत करीब पाता रहा
हूं। यद्यपि अन्य विधाओं के साथ भी मेरा वैसा ही आत्मीय रिश्ता रहा है।
कविता के साथ कहानी, उपन्यास, आलोचना, नाटक, संवाद, संस्मरण आदि में भी
मेरी दिलचस्पी रही है, लेकिन अभिव्यक्ति के इन विविध रूपों में कविता के
प्रति मेरा लगाव कभी कम नहीं हुआ। मेरा ताजा कविता संग्रह “आदिम बस्तियों
के बीच” मेरी अब तक की काव्य-यात्रा का एक प्रतिनिधि संकलन है :
उनकी एक कविता पाठकों के लिए
शीबा राकेश ने अपनी एक अंग्रेजी कविता PAIN का एक
हिन्दी रूपान्तर तैयार किया
दर्द
जैसे दीवार पर फैले बिजली के नंगे तार हों
या चपटी हरी पत्तियों में पसरी शिराओं की थिरकन
कुछ ऐसे ही तरंगायित रहता है दर्द मेरे होने के अहसास में,
जाने क्यों भीतर-ही-भीतर सालती है
अवांछित करार दिये जाने की अन्तर्वेदना
बिखरते सपनों, निराशाओं और अवसाद में डूबी
मेरी आत्मा अब एक भुतहा सूनी हवेली के
मौन में आबद्ध।
जैसे कलकल करते झरनों की गहरी गोद में
निस्पंद रखे हों सर्द पत्थर,
और ऊंचे शिखरों पर जमी हो निर्जीव बर्फ
मेरे ही रक्त की शोभा बढ़ाता
मुझ ही में विलीन होता घर्षण
ये दर्द का तीखा उन्माद
जिसके तुम्हीं हो संहारक आखिरकार
एक विकट गहन अंधकार के समरूप
जो भीतर-ही-भीतर
सोख ले तुम्हारी सारी ऊर्जा,
लेकिन हां – कहीं एक उद्विग्न चक्रवात,
उगल दे रहा है कुछ आशाओं के झिलमिलाते हीरे-जवाहरात
हां यही तो जगाते हैं मेरे भीतर रेंगते भुजंग
सजाते हैं और जगमगाते हैं
दर्द के स्नेहिल पाश
ताकि जान सकूं
कि जो मेरा है वो भी मेरा नहीं
और यही है सही ---
सदियों की निरंतरता
मातृत्व और ममता
जन्म का हास , जीवन का रास
रौद्रपूर्ण तांडव और सहज लास्य
---इन्हीं रहस्यों में छुपा है एक अनजाना अंश अंधेरे और उजास का विलक्षण कामुक भाष्य
जो करता है संघर्ष उनकी जोरावरी के साथ
लेकिन रहता है निरन्तर आशावान
और देता है दर्द के हजार पंखुड़ीदार गुलाब को जन्म
जो आशा का अनंत कोण बनकर दैदीप्यमान है
जहां पाना है और खोना भी
हंसना है और रोना भी
अहसास है, अंत है, जीवन की शान है।
सघन पत्तों पर निर्मल पानी की बूंदें
जो समेटती हैं अपने भीतर जगत का नाच,
मुझे यों ही नाचना है
यहां राग और रंग का कांच
जिसमें प्रतिबिम्बित है जगत की आंच ---
तापकर स्वर्ण सी निखरूं
यही है अभिलाषा अंतिम सांच।
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प्रकाशक -
विजया बुक्स,
1/ 10753, सुभाष पार्क,
गली नं 3, नवीन शाहदरा,
दिल्ली
110032, Email: vijyabooks@gmail.com
शीबा राकेश ने अपनी एक अंग्रेजी कविता PAIN का एक
हिन्दी रूपान्तर तैयार किया
दर्द
जैसे दीवार पर फैले बिजली के नंगे तार हों
या चपटी हरी पत्तियों में पसरी शिराओं की थिरकन
कुछ ऐसे ही तरंगायित रहता है दर्द मेरे होने के अहसास में,
जाने क्यों भीतर-ही-भीतर सालती है
अवांछित करार दिये जाने की अन्तर्वेदना
बिखरते सपनों, निराशाओं और अवसाद में डूबी
मेरी आत्मा अब एक भुतहा सूनी हवेली के
मौन में आबद्ध।
जैसे कलकल करते झरनों की गहरी गोद में
निस्पंद रखे हों सर्द पत्थर,
और ऊंचे शिखरों पर जमी हो निर्जीव बर्फ
मेरे ही रक्त की शोभा बढ़ाता
मुझ ही में विलीन होता घर्षण
ये दर्द का तीखा उन्माद
जिसके तुम्हीं हो संहारक आखिरकार
एक विकट गहन अंधकार के समरूप
जो भीतर-ही-भीतर
सोख ले तुम्हारी सारी ऊर्जा,
लेकिन हां – कहीं एक उद्विग्न चक्रवात,
उगल दे रहा है कुछ आशाओं के झिलमिलाते हीरे-जवाहरात
हां यही तो जगाते हैं मेरे भीतर रेंगते भुजंग
सजाते हैं और जगमगाते हैं
दर्द के स्नेहिल पाश
ताकि जान सकूं
कि जो मेरा है वो भी मेरा नहीं
और यही है सही ---
सदियों की निरंतरता
मातृत्व और ममता
जन्म का हास , जीवन का रास
रौद्रपूर्ण तांडव और सहज लास्य
---इन्हीं रहस्यों में छुपा है एक अनजाना अंश अंधेरे और उजास का विलक्षण कामुक भाष्य
जो करता है संघर्ष उनकी जोरावरी के साथ
लेकिन रहता है निरन्तर आशावान
और देता है दर्द के हजार पंखुड़ीदार गुलाब को जन्म
जो आशा का अनंत कोण बनकर दैदीप्यमान है
जहां पाना है और खोना भी
हंसना है और रोना भी
अहसास है, अंत है, जीवन की शान है।
सघन पत्तों पर निर्मल पानी की बूंदें
जो समेटती हैं अपने भीतर जगत का नाच,
मुझे यों ही नाचना है
यहां राग और रंग का कांच
जिसमें प्रतिबिम्बित है जगत की आंच ---
तापकर स्वर्ण सी निखरूं
यही है अभिलाषा अंतिम सांच।
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