''‘तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध’ पर लिखना वातानुकूलित कक्ष में बैठकर आदिवासी या किसानों की समस्याओं पर कहानी या रिपोर्ट लिखने जैसा है।''-
हिन्दी का
अलख जगाती हिन्दी की संगोष्ठी संपन्न
(तमिलनाडु
केन्द्रीय विश्वविद्यालय में त्रिदिवसीय राष्ट्रीय राजभाषा हिन्दी संगोष्ठी के
आयोजन की रिपोर्ट)
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर में
दि. 8 से10 अक्टूब, 2014 को त्रिदिवसीय राष्ट्रीय राजभाषा हिन्दी संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस
त्रिदिवसीय संगोष्ठी के विषयों में - ‘राजभाषा कार्यान्वयन
और उसका स्वरूप’, ‘सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन में हिन्दी
का महत्व’, ‘हिन्दी में वैज्ञानिक तकनीकी लेखन और राजभाषा का
स्वरूप’ सम्मिलित थे। संगोष्ठी का उद्घाटन बुधवार, दिनांक 8 अक्टूबर, 2014 को
हुआ। इस अवसर पर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र समारोह के मुख्य
अतिथि के रूप में उपस्थित थे। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि ‘‘हिन्दी भारतीयता का प्रतीक है।’’ अनुवाद को
प्राधान्य देते हुए उन्होंने अनुवाद उपक्रम को ‘भारतीय
भाषाओं को जोड़ने का सेतु’ कहा और प्रत्येक विश्वविद्यालय
में अनुवाद केन्द्र की स्थापना पर ज़ोर दिया। उन्होंने आगे यह भी कहा कि ‘‘हिन्दी सरलीकरण के नाम पर अँग्रेज़ीयत का शिकार हो रही है और उसका ‘हिंग्लिश’ रूप सामने आ रहा है। जबकि हिन्दी भारतीय
भाषाओं से शब्द ग्रहण कर अपना विकास कर सकती है।’’ उनके
अनुसार “मराठी के अनगिनत शब्द हिन्दी में शामिल किए जा सकते
हैं, जिससे हिन्दी समृद्ध हो सकती है।’’ उन्होंने इस बात का खेद भी व्यक्त किया कि ‘‘दक्षिणेतर
प्रांतों में दक्षिण की भाषाओं का यथोचित सम्मान नहीं हो पाया है। एकाधिक भाषाएँ
जानने से साहित्यगत प्रवृत्तियों में मौजूद समानताएँ एवं विषमताओं से रू-ब-रू हुआ
जा सकता है। जब तक हम दक्षिण की भाषाएँ नहीं जानेंगे, तब तक
हम इन प्रांतों में मौजूद समाजगत एवं साहित्यगत प्रवृत्तियों से अनजान ही रहेंगे।
साहित्य में अभिव्यक्त सौहार्द जनसमुदाय को एकत्रित कर सकता है।’’
विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,
सतना (मध्य प्रदेश) के भूतपूर्व कुलपति प्रो. कृष्ण बिहारी पाण्डेय
ने अपने विशेष सम्बोधन में कहा कि ‘‘हमारी हिन्दी और भक्ति
भावना ने विदेशियों को भारत की ओर आकर्षित किया है।" उन्होंने
कहा कि ‘‘हिन्दी की भक्ति ने हिन्दी भाषा को सर्वग्राह्य बना
दिया है।’’ इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने ‘रामचरितमानस’ को ‘भारतीयता का
विकल्प’ बताया। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. टी. सेंगादिर
ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि ‘‘भाषाओं के प्रति लोगों
में आकर्षण बढ़ाने के लिए हमें अपने अध्ययन के तरीकों को बदलना होगा।"
विश्वविद्यालय के सहायक निदेशक (राजभाषा) डॉ.
आनंद पाटील ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि “राजभाषा से ‘राज’ उपसर्ग को हटाकर केवल ‘भाषा’ सम्बोधित
करना चाहिए। इस तरह हिन्दी लोकप्रिय बन सकती है।" सबके
प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हुए हिन्दी विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. विनायक काले
ने संगोष्ठी के वक्ताओं से निवेदन किया कि राजभाषा के उन पहलुओं पर चर्चा करें जो
प्रायः अछूते रह जाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, हैदराबाद
की डॉ. सोमा पॉल ने ‘राजभाषा कार्यान्वयन में अनुवाद उपकरण
और हिन्दी शब्दजाल का महत्व’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा
कि ‘‘‘गूगल ट्रान्सलेट’ के भारतीय
विकल्प ‘अनुसारक’ को अनेक स्रोतों
द्वारा मज़बूत किया जा सकता है। ‘अनुसारक’ एक मुक्त और मुफ्त सॉफ्टवेयर है, जो बिना इंटरनेट
(अंतरजाल) के भी चल सकता है।’’ उन्होंने सभा में उपस्थित
विद्वत जनों से निवेदन किया कि ‘‘इस योजना से जुड़कर भारत के
अनुवाद उपक्रम को सुदृढ़ करें। भारत के पास सुशिक्षित लोगों का अपार मनुष्य बल है।
यदि भाषा में काम करने वाला मनुष्य बल भारतीय अनुवाद उपकरण - ‘अनुसारक’ को विकसित करने में योगदान करें तो भारत के
पास अपना अनुवाद उपकरण हो सकता है। आवश्यकता इच्छा शक्ति की है। बिना इच्छा शक्ति
के कोई भी कार्य संभव नहीं बन सकता। अनुवाद उपकरण और हिन्दी शब्दजाल के विकसित होने
से अनुवाद कार्य में सहजता और आसानी होगी।’’
हिन्दी को सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा साबित करने वाले डॉ. जयंती प्रसाद
नौटियाल (कॉर्पोरेशन बैंक, मंगलूर) ने राजभाषा कार्यान्वयन
में सूचना प्रौद्योगिकी के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि ‘‘नई पीढ़ी में व्यावहारिकता आ गई है। हमने गति देकर सारी चीज़ों को समाप्त
कर दिया है।’’ उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि ‘‘हिन्दी के विकास के लिए रोमन लिपि की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है।’’
वहीं डॉ. घनश्याम शर्मा (उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद) ने ‘धर्म की भाषा बनाम कर्म की भाषा’
पर बोलते हुए कहा कि ‘‘भाषा को कामचलाऊ नहीं
बनाना चाहिए। हिन्दी वालों में आत्मविश्वास की कमी के कारण हिन्दी का पिछड़ापन
दिखाई देता है लेकिन हिन्दी आज जिस गति में सबसे जुड़ी हुई है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। वास्तव में हिन्दी में काम करना देशभक्ति
है।’’
डॉ. ईश्वरचन्द्र मिश्र (केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, बंगलुरु)
ने ‘भारतीय बुद्धिजीवियों की अनुवाद विषयक उदासीनता’ पर व्याख्यान देते हुए कहा कि ‘‘राजभाषा के
कार्यान्वयन में संसाधनों की कमी नहीं हैं। उदासीनता, असमर्थता,
शॉर्टकटता के कारण कार्यान्वयन में बाधा आती है।’’
डॉ. पंकज पराशर (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) ने अपने व्याख्यान में
कहा कि ‘‘राजभाषा हिन्दी को जबसे ‘सरकारी
हिन्दी’ का पर्याय बना दिया गया है, तबसे
आम जनों की ‘हिन्दी भाषा’ और सरकार
द्वारा प्रयोग किए जाने वाली ‘हिन्दी राजभाषा’ के बीच की खाई घटने की बजाय बढ़ती ही गई है।’’ उन्होंने
कहा कि ‘‘भूमंडलीकरण ने हिन्दी को पहचाना है तथा हिन्दी का
भूमंडल पर गाना बजाना, साहित्य का रंग बिरंगा तराना आदि,
इसे विश्व भाषाओं में एक सयाना का दर्जा दिए जा रहा है। अतएव
संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचना कठिन नहीं रह गया है।’’
इस तरह से अनेकानेक विद्वानों ने अपने व्याख्यान दिए और राजभाषा के सुचारू
कार्यान्वयन के लिए उपयोगी बिंदुओं को रेखांकित किया। संगोष्ठी में भारत के विविध
प्रांतोंके कुल 80 विद्वानों/वक्ताओं
ने शिरकत की। संगोष्ठी के प्रत्येक दिन लगभग 16 वक्ताओं ने
व्याख्यान दिए और राजभाषा तथा हिन्दी के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया। प्रायः
राजभाषा संगोष्ठी कहते ही सबकी एक आम धारणा बनी हुई है कि वही धारा 3(3) का अनुपालन और राजभाषा संबंधी अनुच्छेदों पर बात होगी लेकिन शायद पहली बार
ऐसा हुआ है कि राजभाषा का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है। अनुवाद से लेकर वैज्ञानिक
तकनीकी लेखन तक इसे विस्तार दिया गया।
संगोष्ठी के पहले दिन काव्यसंध्या का आय¨जन किया
गया। काव्यसंध्या में विशेष आकर्षण ग़ज़लकार अश¨क रावत
(आगरा) रहें। इनके अतिरिक्त ईश्वर करुण (चेन्नै), ईश्वरचन्द्र
मिश्र (बंगलुरु), अजय मलिक (चेन्नै), घनश्याम
शर्मा (हैदराबाद), प्रकाश जैन (हैदराबाद), राजेश कुमार मांझी (दिल्ली), सरोज शर्मा (दिल्ली),
आनंद पाटील (तिरुवारूर) और विश्वविद्यालय के छात्र कवियों में ऋषभ
महेन्द्र, अमित कुमार ने अपनी कविताओं से इस संगोष्ठी को साहित्यिक
रूप प्रदान किया।
संगोष्ठी के दूसरे दिन नाट्यसंध्या का आयोजन किया गया। इस अवसर पर असगर
वजाहत का नाटक ‘इन्ना की आवाज़’ का मंचन
किया गया। नाटक का आलेख डॉ. आनंद पाटील ने तैयार किया था और निर्देशन विश्वविद्यालय
के शोधार्थी (अँग्रेज़ी विभाग), सायंतन चक्रवर्ती और सुवर्णा
डे ने किया था। डॉ. आनंद पाटील द्वारा आयोजित इस प्रस्तुति ने भी प्रचुर मात्रा
में लोंगों को जोड़ा। उन्होंने समारोह के आरम्भ में ही सभा को संबोधित करते हुए
कहा था कि ‘‘राजभाषा से लोगों को नहीं जोड़ा जा सकता लेकिन
भाषा से लोग जुड़ना चाहते हैं। वैसे भी भाषा जोड़ने का काम करती है और राज प्रायः
तोड़ने का। बहुत कम राजा-रजवाडे रहे हैं, जिनसे लोग जुड़े
रहे अन्यथा राज व राजाओं से लोग अमूमन बिदकते रहे हैं।’’
संगोष्ठी भले ही राजभाषा की रही हो लेकिन संगोष्ठी की रूपरेखा
कुछ ऐसी रही कि ‘काम की भाषा’ पर
भी बातचीत हुई और लोक का मानस भी कार्यक्रम से जुड़ा रहा। सरल भाषा में यदि कहा
जाए तो भाषा का काम ऐसा हो कि किसी को अखरे नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति उससे
जुड़ता चला जाए।
भारत में हिन्दी और वैश्विक स्तर पर हिन्दी पर चर्चा करने को तो हमारे पास
प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध हो जाती है। यहाँ तक कि इंटरनेट पर भी सामग्री
अटी पड़ी है लेकिन जैसे ही बात तमिलनाडु में हिन्दी की होती है, तो हम प्रायः ‘हिन्दी विरोध’ वाली
पृष्ठभूमि पर बात करने लग जाते हैं। ‘तमिलनाडु में हिन्दी का
विरोध’ वाले मिथ को तोड़ने का काम डॉ. आनंद पाटीलतीन साल से लगातार कर रहे हैं। तिरुवारूर डीएमके प्रमुख और
भूतपूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि का जन्मस्थान है और यहीं तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय
स्थापित है। ग़ौरतलब है कि तिरुवारूर हिन्दी विरोध का गढ़ रहा है और इसी गढ़ में
सेंध लगाते हुए डॉ. आनंद पाटील हिन्दी का सतत प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
विश्वविद्यालय की स्थापना (2009) के बाद 2012 में जब हिन्दी का तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया गया था, तब हिन्दी का विरोध हुआ था और हिन्दी को विदेशी भाषा संबोधित किया गया था।
लेकिन डॉ. आनंद पाटील ने ‘हिन्दी क्लब’ की स्थापना की और सबसे पहले यहाँ की पाठशालाओं को लक्ष्य बनाया और यहाँ के
बच्चों को अपने कार्यक्रमों में शामिल करना शुरू किया। इससे विरोधी स्वर धीरे-धीरे
कम होता गया और स्थानीय लोग पहले-पहल विश्वविद्यालय से और फिर हिन्दी से जुड़ने
लगे। अत्युक्ति नहीं कि यहाँ के स्थानीय डॉ. आनंद पाटील को उनके नाम से पहचानने
लगे हैं। बाज़ार में विश्वविद्यालय के लोग जाते हैं तो उनके नाम से गौरव पा जाते
हैं।
मेरी राय में हिन्दी का अलख जगाने के लिए हिन्दी वालों को तमिलनाडु के
दूर-दराज में पहुँचना होगा। हिन्दी क्षेत्र में बैठे ‘तमिलनाडु
में हिन्दी का विरोध’ पर लिखना वातानुकूलित कक्ष में बैठकर
आदिवासी या किसानों की समस्याओं पर कहानी या रिपोर्ट लिखने जैसा है। यदि तमिलनाडु
को हिन्दी और भारतीयता से जोड़ना हो तो निश्चय ही डॉ. आनंद पाटील की तरह हिन्दी
का अलख जगाने तमिलनाडु के जन-जन में पहुँचना होगा। स्मरण दिलाना चाहुँगा कि
तिरुवारूर ही भक्ति आंदोलन का उद्गम स्थान रहा है। भक्ति की उसी अजस्र धारा ने
दक्षिण और उत्तर को एकसूत्र में पिरोया था और भक्ति के कारण ही संपूर्ण भारत एकरूप
व एकाकार हो पाया था। मेरे विचार में हिन्दी एक ऐसा सेतु है, जो पुनः दक्षिण और उत्तर को जोड़ने की क्षमता रखता है, बशर्ते इस कार्य
में बहुतों को रामानंद-आनंद बनकर उरतना होगा।
बहरहाल, तीन दिनों का यह महायज्ञ बहुत ही
सफल रहा। संगोष्ठी की अपूर्व सफलता का श्रेय संगोष्ठी संयोजक एवं निदेशक डॉ. आनंद
पाटील भले ही विश्वविद्यालय के प्राधिकारी, सहकर्मी,
विद्यार्थी और वक्ता तथा प्रतिभागियों को दें लेकिन वास्तव में सारा
श्रेय उनकी हिम्मत, उनके जुझारू व्यक्तित्व और उनके कुशल
प्रबंधन कौशल को जाता है। वैसे भी यह अनायास ही नहीं कि सारे लोग उनके इस भव्य आयोजन
से, प्रसन्नता से जुड़े रहे। सफल आयोजन और कट्टर तमिल भाषी
समाज में, जहाँ हिन्दी के टीवी चैनल भी पूरी तरह नहीं पहुँच
पाए हैं, ऐसे माहौल में हिन्दी की अलख जगाने के लिए डॉ. आनंद
पाटील को कोटिशः बधाई...
- डॉ.
विनायक काले
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
तमिलनाडु
केन्द्रीय विश्वविद्यालय
तिरुवारूर-610 101 तमिलनाडु (भारत)
चलवार्ता - 081066 43484
ई-मेल - vinayakhcu@gmail.com
Comments