उदयपुर 16 सितंबर, 2013
हिन्दी भाषा के कारण भारत में लोकतंत्र मजबूत हुआ है और हिन्दी जितनी
मजबूत होगी भारत का लोकतंत्र उतना ही सशक्त होगा। हिन्दी के माध्यम से यह मजबूती
हमारी लोकभाषाओं में भी आएगी। भारत में हिन्दी के लोकवृत्तके
निर्माण को अभी बहुत सफर तय करना है। गाँव और शहर के मध्य की दूरी को कम करना ही
हिन्दी भाषी समाज की बड़ी जिम्मेदारी है। हिन्दी विभाग द्वारा हिन्दी सप्ताह के
अंतर्गत आयोजित ’हिन्दी का लोकवृत्त’ विषयक अंतरअनुशासनिक परिसंवाद में ये विचार उभर
कर आये।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आई.वी. त्रिवेदी ने अपने वक्तव्य में
बताया कि वैचारिक आयोजनों का हमारे रोजमर्रा के जीवन में अनुप्रयोग होने पर ही
इनका महत्व है। हिन्दी दिवस आयोजन के माध्यम से हमें कुछ ऐसे परिवर्तनों की योजना
बनानी होगी जिनके आधार पर विद्यार्थी अपने समाज और राष्ट्र निर्माण के प्रति महती
भूमिका का निर्वाह कर सके। उन्होंने व्यापक परिपेक्ष्य में भाषा और समाज के
रिश्तों पर प्रकाश डाला।
इस अवसर पर प्रो. शरद श्रीवास्तव, अधिष्ठाता, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय ने
हिन्दी और अंग्रेजी के लोकवृत्तके साम्य और वैषम्य को बताया उन्होंने मार्केट
फोर्सेज के कारण आए बदलावों को रेखांकित करते हुए बताया कि हिन्दी आज भी फल-फूल
रही है। उन्होंने बताया कि हिन्दी भाषा की स्वीकार्यता दक्षिणी राज्यों में भी बढ़ी
है, फिल्म और मीडिया ने इसमें अपनी महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा कि तकनीकी विषयों में उपयोगी पुस्तकों के अभाव की
चुनौती को हिन्दी भाषी समाज को स्वीकार करना पड़ेगा।
विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता स्नातकोत्तर अध्ययन प्रो. संजय लोढ़ा ने
कहा कि संचार और फिल्म वह जरिया होता है जिससे भाषा का लोकवृत्त बढ़ता है। आज हमें
इस बात पर भी चिंतन करना होगा कि क्या बाजारी शक्तियों से भयभीत होना चाहिए या
उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहिए। आम आदमी जिस भाषा में अपनी बात अच्छे से कह और
समझ सकता है वही पब्लिक स्फीयर(लोकवृत) की भाषा हो सकती है और हमारे देश में यह
स्थान हिन्दी का ही है। उन्होंने लोकवृत्त के राजनीतिक परिदृश्य की बात करते हुए
बताया कि देश के कई जाने-माने राजनेता हिन्दी भाषा के सहज प्रवाह के कारण ही आगे
बढ़े हैं। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र के राजनेताओं का अधिक
प्रभाव रहा है। सिविल सोसायटी ने भी हिन्दी के माध्यम से ही अपनी पहुँच बनाई है।
इससे पूर्व हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. माधव हाड़ा विषय प्रवर्तन
करते हुए हिन्दी के लोकवृत्तके राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पक्षों के संदर्भ में
अपने विचार रखें। उन्होंने संचार क्रांति, मीडिया
विस्फोट तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विस्तार तथा हिन्दी भाषा के संबंधों की भी
चर्चा की।
समाजशास्त्री प्रो. नरेश भार्गव ने कहा कि हिन्दी समाज का विमर्श और
चिंतन कम होता जा रहा है। लोग विविध विषयों पर सोचें और सोचने के बाद उसपर फैसला
करें यही लोकवृत्त अथवा जनवृत्त है। उन्होंने हैबरमास की अवधारणा के संदर्भ में
कहा कि जनवृत्तसे तात्पर्य उस निर्भीकता से सोचे गए वृत्तसे है जो आम जन का है।
गाँव की चौपालें, पंचायतें, पनघट
लोकवृत्तके स्थल थे ये अब खत्म हो रहे हैं। हिन्दी में इस कमी को पूरी करने का कोई
विकल्प नहीं दिखाई पड़ रहा है। उन्होंने सोशल मीडिया के उपयोग और इस पर राज्य के
नियंत्रण के पक्षों की भी चर्चा की।
इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार नंद चतुर्वेदी ने कहा कि हमें बाजार के
हिन्दी-प्रेम के निहित अर्थों को समझना होगा। विदेशियों की हिन्दी भाषा की तारीफ
के पीछे उनके आर्थिक स्वार्थ महत्वपूर्ण हैं, अपना
माल बेचने के लिए वे मारवाड़ी और मेवाड़ी बोलियों की भी तारीफ करने लगेंगे। उन्होंने
ने कहा कि भाषा के माध्यम से ही प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ी जाती है। भाषा को शहर और
गाँव के बीच पुल बनाने का कार्य करना चाहिए। ज्यों-ज्यों गाँव और शहर समीप होते
जाएंगे त्यों-त्यों हमारी भाषाएँ समृद्ध होती जाएंगी। भाषा को कठिन बनाने से बचाना
चाहिए। भाषा जीवन व्यवहार को सरल बनाती है। यही लोकचित्त है। कार्यक्रम का संचालन डॉ. नवीन नंदवाना ने
किया। कार्यक्रम के अंत में डॉ. नीतू परिहार ने धन्यवाद ज्ञापित किया। इस अवसर पर
विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य, शोधार्थी और
विद्यार्थी उपस्थित थे।
प्रस्तुति:
डॉ. राजकुमार व्यास
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