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''साहित्य उस वक़्त रौशनी देता है जब राजनीति में अंधियारा छाया होता है''-डा के बी एल पाण्डेय

साहित्य और समाज का सम्बन्ध द्वंद्वात्मक है. साहित्य का अभीष्ट है मुक्ति की तलाश. और यह तलाश समाज से टकराए बिना संभव नहीं है. प्रेमचंद का पूरा साहित्य समाज के वर्चस्वशाली और शोषित तबकों के बीच के संघर्ष से उपजता है. वह भारतीय प्रगतिशील परम्परा के पितृपुरुष हैं. ये विचार दखल विचार मंच के साहित्य और समाज बरास्ता प्रेमचंद विषयक संगोष्ठी में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहीं. कार्यक्रम के मुख्य वक्ता दतिया से पधारे डा के बी एल पाण्डेय ने कहा कि 

साहित्य उस वक़्त रौशनी देता है जब राजनीति में अंधियारा छाया होता है. उन्होंने गोदान तथा अन्य उपन्यासों से विस्तार में उद्धरण देते हुए कहा कि हालांकि प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में गाँव और किसान सबसे प्रभावी भूमिका में आते हैं लेकिन उन्हें सिर्फ गाँव और किसान का लेखक कहना सही नहीं होगा. उनकी दृष्टि व्यापक थी और वह अपने समय की तमाम आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विडंबनाओं की बहुस्तरीय पड़ताल करते हैं. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय में दिया उनका भाषण और महाजनी सभ्यता जैसे लेख हिंदी साहित्य के बौद्धिक दस्तावेज़ हैं. उन्होंने कहा कि आज जब प्रेमचंद को गैर प्रगतिशील या फिर दलित विरोधी साबित करने की कोशिश की जा रही है तो इनके उद्देश्यों की व्यापक पड़ताल ज़रूरी है. असल में ऐसा वे ताकतें कर रही हैं जो देश में किसी भी बड़े परिवर्तन की विरोधी हैं

गोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए डा मधुमास खरे ने आज कृषि तथा अर्थव्यवस्था के बारे में विस्तार से बात करते हुए कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि प्रेमचंद की उस समय की गयी तमाम स्थापनाएं अज सही साबित होती हैं. कार्यक्रम का संचालन करते हुए अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा की प्रेमचंद के बारे में मैनेजर पाण्डेय ने सही ही कहा है कि वह कथा साहित्य की बुनियाद भी है और बुलंदी भी. उनका आज भी प्रासंगिक होना उनकी सफलता है लेकिन हमारे समाज की असफलता.


कार्यक्रम में पवन पवन करण, ओमप्रकाश शर्मा, प्रदीप चौबे, मदन मोहन दानिश, अतुल अजनबी, अखिलेंदु अरजरिया, बैजू कानूनगो, पारितोष मालवीय, राज नारायण बोहरे, शारदा पाण्डेय, नीला हार्डिकर, जयंत तोमर, वंदना चतुर्वेदी, सुरेश तोमर सहित अनेक विशिष्ट जन उपस्थित थे.

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