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''वह कविता महत्वपूर्ण होती है जो एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य की यात्रा करे।''-प्रो मैनेजर पाण्डेय

मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’  पर लखनऊ में राष्ट्रीय संगोष्ठी

लखनऊ, 25 अगस्त। 
वह कविता महत्वपूर्ण होती है जो एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य की यात्रा करे। यह क्षमता मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ है। अपने रचे जाने के पचास साल बाद भी हमें प्रेरित करती है। इसमें मनु हैं। गांधी व तिलक हैं। आजादी के बाद का वह मध्यवर्ग है जिसके लिए संघर्ष के दिन गये और खाने.पाने के अवसर आ गये। कहा जाय तो इसमें मध्यवर्ग की नियति की अभिव्यक्ति है। वहीं, इस कविता में आने वाले फासीवाद की स्पष्ट आहट है। 

ये बातें प्रसिद्ध आलोचक व जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो मैनेजर पाण्डेय ने आज मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ के रचे जाने के पचास साल पूरा होने के अवसर पर जन संस्कृति मंच और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कही। प्रो0 पाण्डेय ने मुक्तिबोध की इस कविता के संबंध में डा0 रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के मूल्यांकन से अपनी असहमति जाहिर करते हुए कहा कि यह कविता न तो रहस्यवादी है और न ही इसमें अस्मिता की खोज है। बल्कि यह जनचरित्री कविता है। बड़ी कविता वह होती है जिसमें वास्तविकता और संभावना दोनो हो, ‘अंधेरे में’ ऐसी ही कविता है। यह उस दौर में लिखी गई जब राजनीति और विचारधारा को कविता से बाहर का रास्ता दिखाया गया। ऐसे दौर में मुक्तिबोध  राजनीतिक कविता लिखते हैं। 

स्ंागोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ आलोचक व रांची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष रविभूषण ने कहा कि अंधेरे में कविता मुक्तिबोध ने 1957 में शुरू की थी तथा यह 1964 में छपकर आई। इस कविता को लिखने में सात साल लगे। यह परेशान करने वाली कविता है। मुक्तिबोध आजादी के बाद नेहरू के मॉडल के अन्दर उस आतताई सत्ता को देखते हैं, तेलंगना के किसानों पर सरकार के दमन से रू ब रू होते हैं और गांधी जैसे नायकों को पार्श्व में जाते देखते हैं। मध्यवर्ग इस सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध हैं। ऐसे दौर में मुक्तिबोध अकेले कवि हैं जो क्रान्ति का स्वप्न देखते हैं। इनकी कविता से गुजरते हुए निराला की कविता ‘गहन अंधकार...’ की याद आती है। यह निराला के अंधकार को आगे बढ़ाती है। आज का समय ज्यादा ही संकटपूर्ण है। समझौते व अवसरवाद आज का चरित्र बन गया है। मध्यवर्ग के चरित्र में भारी गिरावट आई है। इस अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष में निसन्देह मुक्तिबोध की यह कविता कारगर हथियार है जिसे केन्द्र कर जगह जगह विचार विमर्श, संगोष्ठी आदि का आयोजन किया जाना चाहिए।

वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने मुक्तिबोध के साथ के अपने पल को इस मौके पर साझा किया। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध अभाव में जीते थे तथा अपने जीवन काल में उपेक्षित रहे। मुक्तिबोध कहते हैं ‘लिया बहुत बहुत....दिया बहुत कम....’ देश में आज यही हो रहा है। यह उस वक्त से ज्यादा आज का सच है। मुक्तिबोध की बेचैनी को समझना है तो उनकी ‘ब्रहमराक्षस’ पढ़ना जरूरी है। इसकी कथा जानना भी जरूरी है। उनकी कविताएं एक साथ रखकर पढ़ी जाय तभी उनके अन्दर के विचार को समझा जा सकता है।

युवा आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि ‘अंधेरे में’ का यथार्थ आज के हिन्दुस्तान के रोजमर्रा की चीज है। यह हमें रामप्रसाद बिस्मिल से लेकर आजाद भारत के शहीदों से जाड़ती है।इसलिए यह क्रान्ति के सपनों की कविता है। इसमें एक तरफ मार्शल लॉ है, सत्ता का गठबंधन है तो दूसरी तरफ क्रान्ति का सपना है। मुक्तिबोध अपनी कविता में जिस आत्मसंघर्ष को लाते हैं, वह वास्तव में वर्ग संघर्ष है। यह आज भी जारी है। आज का यथार्थ है कि अंधेरा है तो अंधेरे के विरुद्ध प्रतिरोध भी है।

कार्यक्रम का संचालन कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने किया। स्वागत लखनउ विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के प्रवक्ता रविकांत ने की। कार्यक्रम के अंत में तर्कनिष्ठा व विवेकवादी आंदोलन के कार्यकर्ता डॉ नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या पर गहरा रोष प्रकट किया गया तथा दो मिनट का मौन रखकर डॉ दाभोलकर व हिन्दी के प्राध्यापक व आलोचक प्रो0 रघुवंश को श्रद्धांजलि दी गई।

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनउ

Comments

निश्च्त रूप से मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' बहु अर्थ संभवा ऐसी कविता है जिसमें सभ्यता की काव्य चेतना के सारे संदर्भ मुखर हैं। यह रहस्य और अस्मिता की कविता न होकर सभ्यता के मुख्य अंश में सक्रिय शंकाओं और समय की छलनाओं से टकराते हुए अनावरण और संभावनाओं को भाषा में हासिल करने की बहुआयामी द्वंद्वात्मकताओँ की कविता है। यह वह कविता है जिसे बाहर से पढ़ा ही नहीं जा सकता है। एक स्थिति के संदर्भ से शायद बात साफ हो। रौशनी में खड़ा व्यक्ति अँधेरे में खड़े व्यक्ति की स्थिति को नहीं देख सकता है लेकिन अँधेरे में खड़ा व्यक्ति रौशनी में खड़े व्यक्ति की स्थिति को देख सकता है। मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का पाठ तभी संभव हो पाता है जब हमारी पाठचेतना के अंदर उस अँधेरे के वृत्त में प्रवेश करने का व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा में हों। व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा की कमतरी 'अँधेरे में' की पाठ-प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त कर देती है। मुश्किल यह कि व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता को परस्पर संवादी और सहयोजी बनाये रखने के लिए जिस सांस्कृतिक धैर्य की जरूरत होती है हम उस पर टिकने के बजाये किसी तात्कालिक निष्कर्ष की हड़बड़ी के शिकार हो जाते हैं। अभी तो इतना ही..