लोकतंत्र के ‘अंधेरे में’ आधी सदी पर विचारगोष्ठी संपन्न
नई दिल्ली: 13 मई 2013
मुक्तिबोध की मशहूर कविता के प्रकाशन के पचास वर्ष के मौके पर जन संस्कृति मंच के कविता समूह की ओर से गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोकतंत्र के ‘अंधेरे में’ आधी सदी विषयक विचार-गोष्ठी आयोजित की गई। जसम के पिछले सम्मेलन में कविता, कहानी, जनभाषा, लोककला आदि के क्षेत्र में सृजनात्मकता को आवेग देने के लिए विशेष समूूह बनाए गए थे। इस आयोजन से कविता समूह की गतिविधि का सिलसिला शुरू हुआ।आयोजन की शुरुआत रंगकर्मी राजेश चंद्र द्वारा ‘अंधेरे में’ के पाठ से हुई।
इस मौके पर चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा ‘अंधेरे में’ के अंशों पर बनाए गए पोस्टर को आलोचक अर्चना वर्मा ने तथा मंटो पर केंद्रित ‘समकालीन चुनौती’ के विशेषांक को लेखक प्रेमपाल शर्मा ने लोकार्पित किया।विचारगोष्ठी की शुरुआत करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि 57 से 63 तक मुक्तिबोध की यह कविता संभावना की कविता थी, पर 2013 में वास्तविकता की कविता है। यह एक समग्र कविता है। मुक्तिबोध की कविताओं में जिस ‘वह’ की तलाश है, दरअसल वह क्रांति चेतना है। वह जिंदगी के संघर्षों से अर्जित संभावित चेतना की कविता है। इसमें जो फैंटेसी है, उसके जरिए मुक्तिबोध पूंजीवादी सभ्यता की समीक्षा करते हैं। एक स्तर पर यह मध्यवर्ग के आत्मालोचन की भी कविता है। अंधेरा तब का हो या आज का हो, यह कविता उससे संघर्ष की प्रक्रिया की भी कविता है। अंधेरे से लड़ने के लिए अंधेरे को समझना भी जरूरी होता है, वास्तव में यह कविता अंधेरे को समझने वाली कविता है।
आलोचक अर्चना वर्मा ने कहा कि मौजूदा प्रचलित विमर्शों के आधार पर इस कविता को पढ़ा जाए, तो हादसों की बड़ी आशंकाएं हैं। जब यह कविता लिखी गई थी, उससे भी ज्यादा यह आज के समय की जटिलताओं और तकलीफों को प्रतिबिंबित करने वाली कविता है। वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि सामाजिक बेचैनी की लहरों ने हमें दिल्ली में ला पटका था, हम कैरियर बनाने नहीं आए थे। उस दौर में हमारे लिए ‘अंधेरे में’ कविता बहुत प्रासंगिक हो उठी थी। इस कविता ने हमारी पीढ़ी की संवेदना को बदला और अकविता की खोह में जाने से रोका। हमारे लोकतंत्र का अंधेरा एक जगह कहीं घनीभूत दिखाई पड़ता है तो इस कविता में दिखाई पड़ता है। पिछले पांच दशक की कविता का भी जैसे केंद्रीय रूपक है ‘अंधेरे में’। यह निजी संताप की नहीं, बल्कि सामूहिक यातना और कष्टों की कविता है।
चित्रकार अशोक भौमिक ने मुक्तिबोध की कविता के चित्रात्मक और बिंबात्मक पहलू पर बोलते हुए कहा कि जिस तरह गुएर्निका को समझने के लिए चित्रकला की परंपरागत कसौटियां अक्षम थीं, उसी तरह का मामला ‘अंधेरे में’ कविता के साथ है। उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी विद्रोह और उसके दमन तथा साम्राज्यवादी हमले के खिलाफ वियतनाम के संघर्ष ने बाद की पीढ़ियों को ‘अंधेरे में’ कविता को समझने के सूत्र दिए। ‘अंधेरे में’ ऐसी कविता है, जिसे सामने रखकर राजनीति और कला तथा विभिन्न कलाओं के बीच के अंतर्संबंध को समझा जा सकता है।
समकालीन जनमत के प्रधान संपादक और आलोचक रामजी राय ने कहा कि मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हम अंधेरे की नींव को समझ सकते हैं। ‘आशंका के द्वीप अंधेरे में’ में से आशंका के द्वीप को हटाकर मुक्तिबोध ने 1964 में ही स्पष्ट संकेत दिया था कि लोकतंत्र का अंधेरा गहरा गया है। वे भारतीय लोकतंत्र के भविष्यद्रष्टा और नए भारत की खोज के कवि हैं। मुक्तिबोध अपने समय में शीतयुद्ध के मूल्यों के खिलाफ युद्ध के कवि हैं। उनकी चिंता यह है कि जनता सुखी कैसे होगी। इस देश की पुरानी हाय में से कौन आग भड़केगी, जो शोषण और दमन के ढांचे को बदल देगी, वे इस सोच और स्वप्न के कवि हैं। वे कविता के होलटाइमर थे।
विचार गोष्ठी का संचालन जसम, कविता समूह के संयोजक आशुतोष कुमार ने किया। इस मौके पर कहानीकार अल्पना मिश्र, कवि मदन कश्यप, कथाकार महेश दर्पण, ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक दिनेश मिश्र, कवि रंजीत वर्मा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, वरिष्ठ कवयित्री प्रेमलता वर्मा, भाषा सिंह, मुकुल सरल, प्रभात रंजन, गिरिराज किराडू, विभास वर्मा, संजय कुंदन, चंद्रभूषण, इरफान, हिम्मत सिंह, प्रेमशंकर, अवधेश, संजय जोशी, रमेश प्रजापति, विनोद वर्णवाल, कपिल शर्मा, सत्यानंद निरुपम, श्याम सुशील, वंदना शर्मा, ब्रजेश, रविप्रकाश, उदयशंकर, रोहित कौशिक समेत कई जाने-माने साहित्यकार-बुद्धिजीवी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन आलोचक गोपाल प्रधान ने किया।
सुधीर सुमन द्वारा जारी
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