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''आज की आलोचना ने हिन्दी की अन्य उपभाषाओं को दरकिनार कर दिया है और जनभाषा के बारे में आलोचक की कोई राय नहीं है।''-बजरंग बिहारी तिवारी


17वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान प्रियम अंकित को।

प्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय देवीशंकर अवस्थी के 84वें जन्मदिन 5 अप्रेल 2013 पर रवीन्द्र भवन, साहित्य अकादमी सभागार, नयी दिल्ली में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने युवा आलोचक प्रियम अंकित को उनकी आलोचना पुस्तक आलोचना के पूर्वाग्रह (2011) के लिए 17वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान-2012 से सम्मानित किया। प्रियम अंकित को सम्मान स्वरूप प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिह्न और ग्यारह हजार रूपये की राशि दी गयी। इससे पहले यह पुरस्कार मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेन्द्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविन्द त्रिपाठी, कृष्णमोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण और प्रमिला के.पी., संजीव कुमार, जितेन्द्र श्रीवास्तव को मिल चुका है। कार्यक्रम के संचालक आलोचक संजीव कुमार ने समारोह की शुरूआत देवीशंकर अवस्थी जी की आलोचना के उद्धरणों से की।

निर्णायक मण्डल की ओर से प्रशस्ति वाचन करते हुए आलोचक नित्यानन्द तिवारी ने कहा कि इस पुरस्कार के निर्णायक मण्डल में मेरे साथ राजेन्द्र यादव, अजित कुमार, अशोक वाजपेयी, अर्चना वर्मा शामिल थी और सबने सर्वसम्मति से 17वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान के लिए प्रियम अंकित को चुना। देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की नियामिका और संयोजिका कमलेश अवस्थी जी भी इसमें शामिल थीं। प्रियम अंकित आलोचना में व्याप्त पूर्वाग्रहों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए अपनी पीढ़ी को रचनाकारों को नवोन्मेष का नाम देते हैं। देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की नियामिका और संयोजिका कमलेश अवस्थी जी ने बताया कि पुरस्कार निर्णायक मण्डल में राजेन्द्र यादव, अजित कुमार, नित्यानन्द तिवारी, अशोक वाजपेयी, अर्चना वर्मा शामिल थे।

पुरस्कृत आलोचक प्रियम अंकित ने अपने वक्तव्य में उत्तरआधुनिकता को विकास का नहीं, अस्थिरता का दर्शन बताते हुए कहा कि इसकी शुरूआत दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुई जिसमें आलोचना में नये पूर्वाग्रह पनपे। इसके कारण हमने इस बात पर ध्यान देना छोड़ दिया कि अपने समय और समाज को रचना का आधार बनाते वक्त खुद रचनाकार भी रचना के समानान्तर अपना एक नया समाज भी निर्मित करता चलता है इसलिए आलोचना का प्रयास यह होना चाहिए कि वह इसे समझे और उचित सम्मान दे। अपनी सुविधानुसार कहीं भी भ्रमण करने वाले सर्जक और आलोचक दोनों उभयचर होते हैं और हमारी वैचारिक और ऐन्द्रिय सरणियों में पूर्वाग्रह होते है इसलिए बिना प्रमाणित हुए किसी भी ज्ञान को सत्य नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद किसी भी दृष्टि के निर्माण में इतिहास और आलोचना के विवेक का योगदान तो रहता ही है।

इस अवसर आयोजित आलोचना के नये पूर्वाग्रह विषयक विचार-गोष्ठी में अपनी बात रखते हुए आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि आज की आलोचना ने हिन्दी की अन्य उपभाषाओं को दरकिनार कर दिया है और जनभाषा के बारे में आलोचक की कोई राय नहीं है। जबकि संस्कृत का आलोचक अपनी प्राकृत कविता को श्रेष्ठ कविता के तौर पर प्रस्तुत करता है और वहाँ आलोचना में किसी भी भाषा के प्रति भेदभाव दिखाई नहीं देता। यह बात जॉर्ज ग्रियर्सन ने बहुत पहले ही स्पष्ट कर दी थी। हमारे यहाँ रस-प्रक्रिया का आरम्भ सरस्वती के पहले अंक से ही हो जाता है जिसके सम्पादकीय में ही लिखा गया है कि हिन्दी के साथ ब्रज का प्रयोग निन्दा की बात है।

युवा आलोचक वैभव सिंह ने कहा कि आलोचना के नये पूर्वाग्रहों का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि पुराने पूर्वाग्रह समाप्त हो गये है। असल में साहित्य का या मनुष्यता का इतिहास ही पूर्वाग्रहों का इतिहास है इसलिए आलोचना में पूर्वाग्रहों का जन्म आलोचक के मन से न होकर समय के टकराव से पैदा होता है और कई बार खुद रचना भी अपने जन्म की प्रक्रिया में पूर्वाग्रह लेकर आती है, इसलिए आलोचना को ज्ञान और विचारधारा के बीच के फर्क को समझने का प्रयास करना चाहिए।

विचार-गोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए अभय कुमार दुबे ने कहा कि हमारे यहाँ के स्त्री विमर्श, देहवाद के विरोध की जड़े रामचन्द्र शुक्ल के रीतिकाल के विरोध में है जिसका खण्डन हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रीतिकाल को सेकूलर काव्य कहकर किया लेकिन रामविलास शर्मा ने इसका विरोध किया और आगे की आलोचना ने इसे आगे बढ़ाया। हमारे लिए अगर मार्क्सवाद पुराना पड़ गया है तो हमें ऑस्टो-जर्मन मार्क्सवाद को भी देखना चाहिए और रामविलास शर्मा ने जातीयता की अवधारणा वहीं से ली है क्योंकि पुराना मार्क्सवाद हमें सेक्सुअलिटी आदि को समझने नहीं देता। हमारे यहाँ साहित्यिक हिन्दी को उत्कृष्ट और अन्यों को निकृष्ट के रूप में देखा जाता है और लिखी जाने वाली भाषा को बोली जाने वाली भाषा पर प्रमुखता दी जाती है, जो सही नहीं है।

रिपोर्ट By
पुखराज जाँगिड़

युवा आलोचक हैं।
राष्ट्रीय मासिक ‘संवेद’ और
सबलोग के सहायक संपादक, 
ई-पत्रिका ‘अपनीमाटी’ 
व मूक आवाज के 
संपादकीय सहयोगी है। 
दिल्ली विश्वविद्यालय से 
‘लोकप्रिय साहित्य की अवधारणा और 
वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास’ 
पर एम.फिल. के बाद 
फिलहाल 
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 
के भारतीय भाषा केन्द्र से 
साहित्य और सिनेमा के 
अंतर्संबंधों पर पीएच.डीकर रहे है। 
संपर्क:
204-E,
ब्रह्मपुत्र छात्रावास,
पूर्वांचल,
जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली-67
ईमेल-pukhraj.jnu@gmail.com

इस अवसर पर पाकिस्तान से आई लेखिका फहमीदा रियाज ने कार्ल मार्क्स पर नज्म सुनाते हुए कहा कि उर्दू अदब तब तक पूरा नहीं होता जब तक कि उसमें हिन्दी साहित्य न मिलाया जाए। पाकिस्तान में महाश्वेता देवी, नागार्जुन, उदयप्रकाश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भण्डारी आदि को अनुवाद में पढ़ा जाता है। हमलोग प्रगतिशील आन्दोलन की कोख से पैदा हुए जिसने हमें फैज अहमद फैज दिए हैं। आज हम मजहब के नाम पर बँटे हैं जो मार्क्सवाद विरोधी है और आज उनके पास भी इसका कोई जवाब नहीं है।

वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की नियामिका और संयोजिका कमलेश अवस्थी और उनके पुत्रों अनुराग और वरुण व पुत्री वत्सला का देवीशंकर अवस्थी जी के लेखन और स्मृतियों को इस पुरस्कार के माध्यम संजोए रखने के लिए आभार व्यक्त किया और कहा कि आज की आलोचना की सबसे बड़ी खामी उसमें सूत्रबद्ध या क्रमबद्ध लेखन का अभाव है, इसलिए वह किसी व्यापक निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाती। आलोचना के नाम पर अधिकांशतः निबन्धों के संग्रह को प्रस्तुत किया जाता है, जो सही नहीं है। प्रियम अंकित ने अपने वक्तव्य में जिस वैचारिक प्रौढ़ता का परिचय दिया है, मैं उम्मीद करूँगा कि वे इस पर एक मुकम्मल किताब लिखेंगे।

अनुराग अवस्थी ने समारोह में उपस्थित सभी साहित्य-प्रेमियों को धन्यवाद ज्ञापन दिया। समारोह में अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी, निर्मला जैन, अर्चना वर्मा, मंगलेश डबराल, किशन कालजयी, मैत्रेयी पुष्पा, सुमन केशरी, रेखा अवस्थी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जैसे कई वरिष्ठ साहित्यकार मौजूद थे।

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