''भारतीय साझेदारी के कारण हिंदी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित होगी। ''-स्पेन में भारतीय राजदूत सुनील लाल
वय्यादोलिद के विश्वविद्यालय एशियन स्टडीज़
ने भारत सरकार के विदेश मंत्रालय
के सौजन्य से
वय्यादोलिद, स्पेन में
15-17 मार्च,2012 को
“विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण : परिदृश्य”
विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी का मूल उद्देश्य यूरोप के विभिन्न देशों में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण पर दृष्टिपात करना था। संगोष्ठी में भारत सहित २१ देशों के ३३ प्रतिष्ठित विद्वान सम्मिलित हुए। जिन्होंने हिन्दी के विश्व रूप पर प्रकाश डालते हुए हिन्दी अध्ययन और अध्यापन से संबंधित समस्याओं और उनके निदान पर चर्चा की।
संगोष्ठी का उद्घाटन वय्यादोलिद विश्वविद्यालय के उपकुलपति, स्पेन में भारत के राजदूत, वय्यादोलिद विश्वविद्यालय की डिप्टी डीन, कासा दे ला इंडिया के निदेशक तथा संगोष्ठी के शैक्षिक निदेशक द्वारा दीप प्रज्ज्वलन से किया गया। तदुरांत भारत सरकार के विदेश मंत्री महोदय एस.एम. कृष्णा का संदेश पढ़ा गया। विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो.मार्कोस साक्रिस्तान ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि प्रागैतिहासिक काल से ही वय्यादोलिद शहर तथा विश्वविद्यालय पर एशिया का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इन देशों की संस्कृति के प्रभाव से वय्यादोलिद विश्वविद्यालय में एशियाई अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात हुआ। वर्ष २००० में एशियन स्टडीज़ सेंटर की स्थापना हुई। इस आयोजन के लिये भारतीय दूतावास माद्रिद और कासा दे ला इंडिया का सहयोग सराहनीय रहा।
वय्यादोलिद विश्वविद्यालय भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सहयोग से भारतीय अध्ययन में एक स्नातकोत्तर डिग्री आरम्भ करने जा रहा है, जो क्रियान्वयन के अंतिम चरण में है। हिन्दी भाषा के अध्यापन की दिशा में भी वय्यादोलिद विश्वविद्यालय अग्रणीय है। वर्ष २००४ में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सहयोग से वय्यादोलिद विश्वविद्यालय में विभिन्न स्तरों पर हिन्दी भाषा का अध्यापन शुरू हुआ। इस केन्द्र में प्राचीन तथा आधुनिक भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक पक्षों के बारे में कई संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।
भारत तथा स्पेन के मध्य सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए वर्ष २००३ में स्पेन में वय्यादोलिद की नगर परिषद, वय्यादोलिद विश्वविद्यालय तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सौजन्य से कासा दे ला इंडिया की स्थापना की गई, जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है। स्पेन तथा भारत के संबंध द्रुत गति से बढ़ रहे हैं और यह विकास शैक्षिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग में दिखाई देने लगा है।

प्रो. उदय नारायण सिंह ने ‘नया शतक नई दिशा - भारतीय भाषाओँ के शिक्षण की समस्याएँ और संभावनाएँ’ विषय पर अपना बीज वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक भाषा की अपनी पहचान होती है और उनके पठन पाठन की अपनी समस्याएँ होती हैं। भारतीय बहुभाषिकता के वातावरण में हिंदी पर अन्य भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अंग्रेज़ी, स्थानीय भाषाएँ और बोलियां हिंदी की शब्दावली और अक्सर संरचना को भी प्रभावित करती हैं। हिंदी के विदेशी अध्येताओं को इसका ज्ञान अवश्य देना चाहिए। उन्हें भारतीय व्यवहार की स्थिति से अवगत कराना आवश्यक है। हिंदी एक ओर मानक हिंदी है, जो साहित्य में व्यवहृत होती है तो दूसरी ओर बोलचाल की मिश्र हिंदी है, जिसका प्रयोग आम जनता करती है और उसे टेलिविज़न पर भी देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में यह समझना आवश्यक है कि हिंदी एक भाषा संसार का नाम है, सीमित क्षेत्र का वाचिक संप्रेक्षण माध्यम मात्र नहीं। हिंदी भाषा शिक्षण के क्षेत्र में सम्प्रति हमारे समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियाँ हैं, जिसके लिए हमें कुछ अनोखे और असाधारण ढंग से सोचने विचारने की आवश्यकता है। बीज भाषण के उपरांत संगोष्ठी के शैक्षिक निदेशक प्रोफ़ेसर श्रीश चंद्र जैसवाल ने संगोष्ठी के आयोजकों की ओर से सर्वप्रथम भारत सरकार के विदेश मंत्री महोदय का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी शुभकामनाएँ हमारे इस शैक्षिक अनुष्ठान को सफलता पूर्वक संपन्न कर पाने में अत्यंत सहायक होंगी. उन्होंने विदेश मंत्रालय के प्रशासन एवं हिंदी विभाग को उनके सकारात्मक रवैये और उदार अनुदान के लिए आभार व्यक्त किया।
वय्यादोलिद विश्वविद्यालय के रैक्टर प्रो. मार्कोस साक्रिस्तान, वाइस रैक्टर प्रो.लुईस सांतोस,एशियन स्टडीज़ सेंटर के प्रो. ऑस्कर रामोस्त था उनके सहयोगियों ने संगोष्ठी के आदि से अंत तक पूर्ण सहयोग दिया, कासा दे ला इंडिया के निदेशक डॉ गियर्मो तथा उनके सहयोगियों के परिश्रम और संपर्कों के बिना इस संगोष्ठी का आयोजन असंभव था, इन सभी अधिकारियों को धन्यवाद देने के उपरांत उन्होंने पूर्व भारतीय राजदूत सुश्री सुजाता मेहता तथा नए राजदूत श्रद्धेय सुनील लाल, काउंसलर श्री बिराजा प्रसाद, सांस्कृतिक सचिव श्रीमती पोलोमी त्रिपाठी तथा काउंसलर श्री पिल्लै का के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उक्त सभी अधिकारियों के निरंतर सहयोग और दिशा निर्देशन संगोष्ठी के लिए नितान्त आवश्यक थे। अंत में प्रो .जैसवाल ने संगोष्ठी में २१ देशों से आये हुए सभी गणमान्य प्रतिभागियों का हार्दिक धन्यवाद किया, जिनमें विश्व हिंदी सचिवालय की महासचिव श्रीमती पूनम जुनेजा, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति श्री विभूति नारायण राय, केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के उपाध्यक्ष और विश्व प्रसिद्ध कवि श्री अशोक चक्रधर, विश्वभारती शान्तिनिकेतन के प्रोवाइस चांसलर प्रो. उदय नारायण सिंह, टेक्सस विश्वविद्यालय के एमरेटस प्रोफ़ेसर हर्मन ओल्फेन सम्मिलित थे. उन्होंने सभी प्रतिभागियों से आगामी सत्रों में सार्थक सहयोग की कामना की, जिससे स्पेन में आयोजित हिंदी की पहली संगोष्ठी को सफल बनाया जा सके।
प्रथम शैक्षिक सत्र ‘पश्चिमी तथा मध्य यूरोप में हिन्दी शिक्षण : वर्तमान परिदृश्य’

तोरीनो विश्वविद्यालय की आलेस्सान्द्रा ने इटली में हिन्दी शिक्षण की जानकारी देते हुए इस तथ्य पर बल दिया कि विद्यार्थियों को हिन्दी के माध्यम से भारतीय संस्कृति में प्रवेश मिल जाता है। उन्होंने बताया कि इटली के व्यापारिक निगमों में हिन्दी का ज्ञान रखने वाले विद्यार्थियों को रोज़गार के अवसर भी मिल रहे हैं। यॉर्क विश्वविद्यालय के महेंद्र किशोर वर्मा ने मानक हिन्दी और/या प्रामाणिक हिन्दी पर अपने आलेख में पाठ्य सामग्री चयन और पाठ्य सामग्री की रचना के विषय से संबंधित बिंदुओं पर प्रकाश डाला। उनके अनुसार भारत में हिन्दी के बदलते स्वरूप को ध्यान में रखते हुए मानक हिन्दी तथा प्रामाणिक हिन्दी के महत्व की व्याख्या की जानी चाहिए। घेंट विश्वविद्यालय, बेल्जियम से आए रमेश चन्द्र शर्मा ने आग्रह किया कि हमें यूरोप के विश्वविद्यालयों में हिन्दी का एक सामाजिक वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें एक ओर हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक आधार हो दूसरी ओर उसका एक सामाजिक आधार हो। उन्होंने एक ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता व्यक्त की, जो शब्द और संस्कृति दोनों का ज्ञान दे सके। कासा एसिया, माद्रिद की शेफ़ाली वर्मा ने स्पेन में हिंदी के अध्येताओं के समक्ष आनेवाली व्यावहारिक कठिनाइयाँ रखीं और उनके समाधान के लिए आग्रह किया। कुल मिलाकर यह सत्र हिन्दी से आत्मीय रिश्ता जोड़ने की आकांक्षा से युक्त सत्र रहा।
द्वितीय शैक्षिक सत्र भाषा प्रौद्योगिकी और हिंदी शिक्षण में उसका अनुप्रयोग

प्रो. हर्मन वैन ऑल्फेन ने बताया कि अमेरिका में हिन्दी शिक्षण संबंधी इतिहास का परिचय देते हुए कहा कि भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की संख्या में वृद्धि होने के कारण १९८५ के बाद वहाँ हिन्दी शिक्षण का तेज़ी से प्रसार हुआ। उन्होंने पिछले पचास वर्षों में हिन्दी भाषा शिक्षण में प्राद्योगिकी के प्रयोग का वर्णन करते हुए आधुनिक युग में उसकी उपयोगिता और नवीनतम विकासों के अनुप्रयोग पर बल दिया। ऐश्वर्ज कुमार ने बताया कि यूरोपीय आर्थिक मंदी हिन्दी के पठन पठान पर प्रभाव डाल रही है। हिन्दी के प्रति खुद हिन्दी भाषियों या भारतीयों की सोच मौजूदा स्थिति की जिम्मेदार है। इस मानसिकता को बदलना होगा । कविता वाचक्नवी ने भाषा प्रकार्यों के अधुनातन सन्दर्भ और हिन्दी विषय पर अपनी प्रस्तुति दी। उन्होंने वैश्वीकरण के सकारात्मक पक्षों के ऊपर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि हिन्दी विश्व में दूसरी सबसे बड़ी भाषा है, किन्तु इंटरनेट आदि माध्यमों के प्रयोग में अन्य भाषाभाषियों से काफ़ी पीछे हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा समाज के लिए उपलब्ध सॉफ्टवेयर की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा कि तकनीकी दृष्टि से हिन्दी को कंप्यूटर की चुनौती व प्रयोक्ता – सापेक्ष होने की यात्रा में बहुत आगे जाना अभी शेष है।
तृतीय शैक्षिक सत्र ‘शेष यूरोप में हिन्दी शिक्षण : वर्तमान परिदृश्य’

विद्यार्थियों की भारतीय संस्कृति. धर्म में बहुत जिज्ञासा है और उनके अनुसार उनके विश्वविद्यालय में हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। बुखारा विश्वविद्यालय रूमानिया की सबीना पोपर्लान ने बताया के वहाँ भारतीय दर्शन और चिंतन के अध्ययन की एक परंपरा रही है। उनके विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृति पर कई किताबें लिखी गई हैं। ज़्यादातर शोध कार्य भाषा विज्ञान से संबंधित होता है। एल्ते विश्वविद्यालय, बुडापेस्ट की विजया सती ने कहा कि हंगरी में तीन वर्षों का इंडोलॉजी अध्ययन कराया जाता है। यहाँ का मूल उद्देश्य संवाद है, जिसके माध्यम से संस्कृति और हिन्दी की जानकारी भी दी जाती है, भारतीय संस्कृति से जुड़े उपादानों का परिचय भी दिया जाता है। हिन्दी को रोज़गारपरक बनाने की कोशिश की जाती है। मोहन कान्त गौतम ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हिन्दी के विकास की प्रक्रियाओं को हमें देखना है। हम इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए मीडिया का उपयोग कर सकते हैं। हिन्दी को रोज़गारपरक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। इससे हमारे यूरोपीय विद्यार्थी हिन्दी का प्रयोग अपने रोज़गार के लिए कर सकते हैं। हिंदी भाषा का व्यावहारिक रूप अपनाना अधिक उपयुक्त है।
चतुर्थ शैक्षिक सत्र ‘हिन्दी शिक्षण तथा पाठ्यक्रम संबंधी समस्याएँ तथा समाधान’

लूसान विश्वविद्यालय, स्विट्ज़रलैंड के नवीन चन्द्र लोहानी ने ‘हिन्दी साहित्य शिक्षण के लिए आलोचना मानदंडों की मुश्किलों’ पर चर्चा करते हुए बताया कि हिन्दी साहित्य को समझने के मानदंड संस्कृत, काव्य शास्त्र, पाणिनि व्याकरण तथा विश्व के आलोचनाशास्त्रों से प्राप्त वैचारिकी द्वारा मिले हैं। सोफ़िया विश्वविद्यालय के नारायण राजू ने हिन्दी शिक्षण में भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ का महत्व स्थापित किया। लिस्बन विश्वविद्यालय से आए शिव कुमार सिंह ने पुर्तगाल में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण व्यवस्था से संबंधित चुनौतियों को प्रस्तुत किया। उन्होंने हिन्दी सीखने की प्रेरणा और शिक्षण पद्धतियों का ज़िक्र करते हुए सांस्कृतिक सन्दर्भों के महत्व को दर्शाया तथा यूरोप की स्थानीय भाषाओं में हिन्दी शिक्षण संसाधन तैयार करने पर बल दिया। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय की तात्याना ओरान्स्कया ने हिन्दी शिक्षण के संबंध में विश्व हिन्दी दिवस के महत्व के बारे में कुछ विचार रखते हुए उसकी सकारात्मक भूमिका को स्वीकार किया तथा बताया कि यूरोपीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण की समस्या के मूल में भारत की गृहभाषा- राजनीति ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक और राजनैतिक तथ्य भी हैं। कासा एसिया, बार्सिलोना से आईं दीप्ति गुलानी ने स्पेन में हिन्दी भाषा अध्ययन की अपेक्षाओं और कठिनाइयों पर प्रकाश डाला। उन्होंने हिन्दी शिक्षण की व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख किया और बताया कि स्पेन में हिन्दी के प्रति दिलचस्पी बढ़ रही है। इस सत्र के अंतिम वक्ता लाइडन विश्वविद्यालय, नैदरलैंड के मोहन कान्त गौतम ने यूरोप में हिन्दी अध्ययन की विस्तृत समस्याएँ और उनके समाधान पर अपनी प्रस्तुति की। उन्होंने आशा व्यक्त की कि यूरोपियन संसद यूरोप में प्रचलित सभी भाषाओं को मान्यता प्रदान करेगी और हिन्दी भाषा तथा इसका विशाल साहित्य यूरोप की सभ्यता को और अधिक संपन्न करेगा।
समापन सत्र
संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो. उदय नारायण सिंह ने की। इस सत्र में चारों शैक्षिक सत्रों की रिपोर्ट क्रमशः विजया सती, शिव कुमार सिंह. रमेश शर्मा तथा ऐश्वर्ज कुमार ने प्रस्तुत की। तदुपरांत संगोष्ठी में उठे सभी मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई और अंत में संगोष्ठी की ओर से की जाने वाली संस्तुतियों पर विचार विमर्श हुआ। गंभीर चिंतन और पारस्परिक विचार विनिमय के बाद सर्वसम्मति से विदेश मंत्रालय के समक्ष निम्नलिखित संस्तुतियों को रखने का निर्णय हुआ –
- १. आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयॉर्क की प्रमुख संस्तुति “अन्तर्राष्ट्रीय मानक हिन्दी पाठ्यक्रम” की परियोजना को क्रियान्वित किया जाए और उसमें हिन्दी के सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भौं का समावेश किया जाए।
- २. विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण में संलग्न भारतीय एवं भारतेतर प्राध्यापकों को भाषा शिक्षण प्रविधि. साहित्य शिक्षण प्रविधि. हिन्दी व्याकरण. हिन्दी का सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ आदि विषयों में प्रशिक्षित किया जाए।
- ३. यूरोप में इस प्रकार की शैक्षिक संगोष्ठियां विदेश मंत्रालय के सहयोग से हर दो वर्ष में नियमित रूप से आयोजित की जाएँ। वर्ष २०१४ की यूरोपीय हिन्दी संगोष्ठी वारसा विश्वविद्यालय में आयोजित करने का प्रस्ताव है।
- ४. पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत एक २४ घंटे का हिन्दी भाषा चैनल प्रारम्भ किया जाए, जिसमें हिन्दी की सभी प्रयुक्तियाँ उपलब्ध हों तथा वेब पर हिन्दी की विशाल सामग्री को एक स्थान पर हिन्दी अध्येताओं को उपलब्ध कराया जाए।
- ५. अंग्रेज़ी से इतर विदेशी भाषाओं को दृष्टि में रखकर मल्टीमीडिया सहित हिन्दी शिक्षण सामग्री का निर्माण किया जाए।
- ६. विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के लिए स्नातकोत्तर स्तर का पाठ्यक्रम विकसित किया जाए।
- ७. भारतीय संस्कृति संबंध परिषद द्वारा विभिन्न विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पीठों की संख्या में वृद्धि की जाए।
- ८. हिन्दी साहित्य एवं हिन्दी शिक्षण की उपयोगी पुस्तकें तथा मल्टी मीडिया सामग्री उन सभी विश्वविद्यालयों को विदेश मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराई जाएँ, जहाँ हिन्दी अध्ययन अध्यापन की सुविधाएँ हैं।
- ९. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के डायनमिक पोर्टल पर वर्चुअल क्लास रूम की व्यवस्था की जाए, जिसके माध्यम से विदेशों में अध्ययनरत हिन्दी विद्यार्थियों को हिन्दी साहित्य तथा हिन्दी भाषा के विद्वानों के विभिन्न विषयों पर व्याख्यान उपलब्ध कराए जाएँ।
- १०. विश्व में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण से संबंधित उक्त सभी संस्तुतियों के क्रियान्वयन के लिए विदेश मंत्रालय के अतिरिक्त भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा और विश्व हिंदी सचिवालय,मॉरिशस उत्तरदायित्व लें तथा एतदर्थ प्रभावी परियोजनाएँ बनाए।

भाषा और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध है। संगोष्ठी के पहले दिन गहन चिंतन और विचार मंथन के उपरांत शाम को कासा दे ला इंडिया के सभागार में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें स्पेन के जिप्सी समुदाय के पारंपरिक नृत्य फ़्लेमेंको को उसके भारतीय स्रोत से जोड़ने का प्रयास किया गया तथा साथ ही भरतनाट्यम, कत्थक, हंस वीणा, तबला और मृदंगम एवं फ़्लेमेंको नृत्य और गायन का अन्तर्राष्ट्रीय कलाकारों ने अद्भुत समागम किया। स्पेन की प्रसिद्ध भरतनाट्यम विशेषज्ञ मोनिका देला फुएंते द्वारा हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘इस पार प्रिये तुम हो मधु है’ पर किया गया मोहक नृत्य दर्शनीय था। सांस्कृतिक कार्यक्रम के उपरांत भारतीय राजदूत महोदय द्वारा प्रतिभागियों के स्वागत में प्रीति भोज दिया गया। संगोष्ठी में सभी प्रतिभागियों को स्थानीय परिभ्रमण के लिए भी ले जाया गया । इस प्रकार स्पेन की पहली तीन दिवसीय संगोष्ठी यूरोप में हिंदी के उज्जवल भविष्य की कामना के साथ संपन्न हुई।
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