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''भारतीय भाषाओं के बीच आदान प्रदान के लिये हिन्दी एक शक्तिशाली भाषा है।''-महाश्वेता देवी


शीर्ष भारतीय भाषा है हिन्दी: महाश्वेता देवी
(विष्णु प्रभाकर जन्मशती समारोह,भागलपुर)

‘‘हिन्दी भारत की सर्वाधिक प्रचलित और व्यवहृत भाषाओं में शीर्ष स्थान पर है। यह मेरा मानना है। रविन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्चंद्र सहित बंग्ला के अनेक प्रमुख साहित्यकारों की रचनाओं के अनुवाद हिन्दी में हुए हैं। मेरी पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी में होता रहा है। यह मैं बहुत दिनों से देखती आ रही हूँ. भारतीय भाषाओं के बीच आदान प्रदान के लिये हिन्दी एक शक्तिशाली भाषा है। इस भाषा में बंग्ला के सारे के सारे बांग्ला साहित्य अनुवाद हो सकते हैं। हिन्दी से बंग्ला और फिर बंग्ला से हिन्दी दोनो भाषाओं के बीच अनुवाद विनिमय चलता रहेगा तो दोनो तरफ के पाठक उपकृत होते रहेंगे।’’ -महाश्वेता देवी

ये विचार सोमा विश्वास के हाथों भागलपुर के अग्रसेन भवन में आयेजित विष्णु प्रभाकर जन्म शताव्दी समारोह के लिये महाश्वेता जी ने भेजा था।  भागलपुर के इस आयोजन में देश के विभिन्न हिस्सों के जुटे साहित्यकारों ने विष्णु प्रभाकर के साहित्य के प्रति समपर्ण और समाज के प्रति दायित्व का मौजूदा परिप्रेक्ष्य में पुनराकलन किया। उनके मूल्य आधारित जीवन संघर्षों पर चिंतन, मनन, मानव मूल्यों के प्रतिबद्धता और उनके साहित्यिक अवदान के विभिन्न पहलुओं का आकलन किया। लोगों ने माना कि भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करनेवाली एकमात्र भाषा हिन्दी है।

महाश्वेता देवी के संदेश को विष्णु प्रभाकर के साहित्यिक आंदोलनों के नजरिये से देखा जाना चाहिए। भारतीय भाषाओं के हिन्दी के साथ समन्वय की दिशा में विष्णु प्रभाकर ने महत्वपूर्ण काम किये। अनुवादों के माध्यम से हिन्दी को व्यापक रूप देने में अथक मेहनत  की। भारत के गैर हिन्दी भाषी प्रांतों का उन्होंने भ्रमण किया और उनकी साहित्यिक गहराई को भी परखने का प्रयास किया। हिन्दी के करीव गैर हिन्दी साहित्य को लाने के लिये कई प्रांतों की भाषाएं सीखी। गैर हिन्दी भाषियों की परंपरा और उनसे जुड़े व्यक्तित्व को अनुवाद में पूरा स्थान देकर मौलिकता के सूत्र में पिरोने में सफलता प्राप्त की। इससे भाषायी टकराव की संभावना क्षीण हुई, आपसी सद्भाव और हिन्दी के विकास के मार्ग खुले। महाश्वेता देवी का संदेश इस कार्य को और आगे बढ़ाने को लेकर है। भारत की विभिन्न भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य का हिन्दी में अनुवाद कर साहित्य भंडार को और अधिक समृद्ध किया जा सकता है।

 विष्णु प्रभाकर के जन्मशती पर भागलपुर के अग्रसेन भवन में आयेजित एक दिवसीय समारोह का उद्घाटन सुंदरवती महिला महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. निशा राय ने  दीप प्रज्जवलित कर किया। समारोह का शुभारंभ उलुपी झा के स्वागत गान से हुआ। आरंभिक वक्तव्य में जनसत्ता के मुख्य उप संपादक प्रसून लतांत ने जन्मशती के भागलपुर में आयोजन के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भागलपुर से मिले आरंभिक सहयोग ने विष्णु प्रभाकर को शरत्चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा के सृजन के लिये पृष्ठभूमि ही नहीं प्रदान की, बल्कि उनके अंदर संकल्प पूर्ति हेतु उत्साह का भी संचार किया। उनकी विशिष्ट कृति आवार मसीहा अनेकों संदर्भ में विद्यमान है। कार्यक्रम का संचालन करती हुई सुप्रसिद्ध कवयित्री अलका सिन्हा ने उनके जीवन के अनेक पक्षों को रखा।

संगोष्ठी में कोलकाता विश्वविद्यालय के अतिथि प्राध्यापक डॉ विनय कुमार मेहता ने महाश्वेता देवी के संदेश और सोमा विश्वास द्वारा उठाये गये हिन्दी और बांग्ला के समन्वय के उठाये गये मुद्दे पर वहस को आगे बढाया। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में काफी अच्छे साहित्य रचे जा रहे हैं। उसे सामने लाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भागलपुर और शरत्चंद्र आकर्षण का केंद्र रहा है। शरत्चंद्र की अनेक कृतियों का अनुवाद हिन्दी में हुआ है। विष्णु प्रभाकर ने आवारा मसीहा की रचना प्रमाणिकता के साथ की, जिसका सर्वप्रथम स्वागत बंाग्ला भाषियों ने किया। उन्होंने कहा कि बंगाल के गोपालचंद्र राय ने शरत्चंद्र के जीवन को लेकर अनेक काम किये, पर विष्णु प्रभाकर ने आद्वितीय काम किया। इस मौके अतुल प्रभाकर ने देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहे जन्मशती के आयोजनों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि विष्णु प्रभाकर के जीवन में कई मान्यताएं एवं प्रतिवद्धता थी, जिसका उन्होंने निर्वहन आजीवन किया।

टी.एन.बी कॉलेज भागलपुर के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ योगेन्द्र ने विष्णु प्रभाकर के साहित्यिक अवदान की चर्चा करते हुए कहा कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में उनमें जो जीवन मूल्य गठित हुए, वह आजीवन जारी रहा। यह उनकी कहानियों, नाटकों तथा उपन्यासों में देखने को मिलता है। उनकी 83 मौलिक रचनाएं तथा 19 यात्रा वृतांत हैं। उनकी सत्ता, पूंजीपतियों तथा सामंती प्रवृतियों पर प्रहार करती हैं। औरत का इस्तेमाल पद तथा रिश्वत के लिये कैसे किया जाता है इसका चित्रण धरती घूम रही है में किया गया है। इसी कड़ी में आचार्य रामचंद्र शुल्क पुरस्कार से सम्मानित चर्चित कथाकार डॉ कलानाथ मिश्र ने उनकी कृति आवारा मसीहा को  केन्द्र में रखकर विवेचना की। इसके माध्यम से उन्होंने यह बताना चाहा कि कैसे एक आवारा पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है। आवारा और मसीहा दो शव्द हैं। दोनो में एक ही अंतर है। आवारा के सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है, उसी दिन यह मसीहा हो जाता है। 

प्रमाणिकता और मौलिकता के साथ उन्होंने  शरतचंद्र के जीवन को इसी रूप में रखा। एक गोताखोर की तरह उन्होंने शरत्चंद्र के जीवन सागर की मोतियों को चुना तथा काल, देश, व्यक्ति और घटना की सीमाओं को तोड़कर अनुभूतियों का सौंदर्य में विक्षेपण कर परिणति दी। वहस में हिस्सा लेते हुए सुप्रसिद्ध गांधीवादी बाबूलाल शर्मा ने कहा कि विष्णु प्रभाकर ने  गांधीवाद को आत्मसात किया और आजीवन परंपराओ के रूप में जिया। बीसवीं सदी चमत्कारों की सदी है। नरसंहार भी हुए और जीवन रक्षक सावित हुआ। युवा चित्रकार हर्षवर्द्धन आर्य ने उनसे  हुई मुलाकातों तथा संस्मरणों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि विष्णु प्रभाकर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य के भंडार के समृद्ध किया। आरंभिक जीवन से वे यायावर रहे। गांधी का दामन थामा तो छोड़ा नहीं, सिर्फ दिखावे के लिये नहीं अंर्नमन से गांधीवाद को अपनाया।

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार अनिल जोशी ने कहा कि शरतचंद्र स्त्री विमर्श के सबसे बड़े पुरोधा थे। विष्णु प्रभाकर की आरंभिक कृतियों में शरतचंद्र  का प्रभाव देखने को मिलता है। बाद उनकी वहुचर्चित कृति अर्द्धनारीश्वर पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। उसमें स्त्री विमर्श की स्पष्ट झलक मिलती है। उन्होंने कहा कि हाल में दिल्ली के एक आयोजन में नामवर सिंह ने अज्ञेय को सबसे बड़ा कवि बताया। साथ ही विष्णु प्रभाकर के साहित्य के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता बतायी। इस लिहाज से यह आयोजन महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि देश की आजादी में साहित्यकारों की अहम् भूमिका है। विदेशों में वहाँ के साहित्यकार शेक्सपियर, टॉल्सटाय और वर्डसवर्थ के स्मारक हैं, लेकिन भागलपुर में  शरतचंद्र  की स्मृतियां ढह रही हैं, इसका क्षरण हो रहा है। हम और हमारा समाज सांस्कृतिक संक्रमणकाल से गुजर रहा है ऐसे में साहित्यकारों की भूमिका और बढ़ जाती है। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि शरत् के भागलपुर की अंखफोड़वा कांड या दंगाईयों के शहर के रूप में हो या यहां की संस्कृति, साहित्य और समृद्ध विरासत के रूप में हो यह तय साहित्यकारों को करना होगा और इसके लिये सांस्कृतिक आंदोलन चलाना होगा।

इस मौके पर निबंध प्रतियोगिता में प्रथम, द्धितीय और तृतीय आयी लवली, जया भारती और चांदनी कुमारी को क्रमशः पांच हजार रुपये, तीन हजार रुपये और दो हजार रुपये की नगद राशि, प्रशस्ति पत्र, अंग बस्त्र तथा स्मृति चिन्ह देकर पुरस्कृत किया गया। आयोजन में विष्णु प्रभाकर की पुत्री अनिता, अर्चना और पुत्रवधु अनुराधा के  साथ -साथ सरोज शर्मा एवं निवंध प्रतियोगिता की सयोजिका डॉ विद्या रानी को अंग वस्त्र और स्मृति चिन्ह् देकर सम्मानित किया गया।

अध्यक्षीय उद्गार व्यक्त करते हुए तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ नृपेन्द्र प्रसाद वर्मा ने कहा कि जन्मशताव्दी पर ऐसे आयोजन विश्वविद्यालय में होने चाहिये। उनकी कृति आवारा मसीहा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है, फिर भी विश्वविद्याालय मौन है। उन्होंने कहा कि जाति, वर्ग और पूंजी के आधार पर समाज टूट रहा है। ऐसी स्थिति में विष्णु प्रभाकर के सिद्धांतांे और रचनाओं की प्रासंगिकता और ज्यादा और ज्यादा बढ़ गयी है। उन्होंने एक प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा कि अज्ञेय की एक कविता को विश्वविद्याालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना था, इसके लिये पांच सौ रूपये का चेक विश्वविद्यालय ने उन्हें भेजा था तो उन्होंने यह कहकर राशि लेने से इंकार कर दिया  कि उनकी कविता का यह मूल्य नहीं हो सकता है। आखिरकार अज्ञेय की रचना पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हो सकी। वहीं विष्णु प्रभाकर विदाई तक नहीं लेते थे। आयोजन समिति के संरक्षक गिरधर प्रसाद ने निंवध प्रतियोगिता के सफल प्रतिभागियों को अपनी ओर से एक-एक हजार की कितावें पुरस्कार स्वरूप देने की घोषणा की। संयोजक मनोज कुमार पांडेय ने कार्यक्रम की रूपरेखा को रखा। वहीं मुकुटघारी अग्रवाल ने भागलपुर से जुडे़ संस्मरणों को रखा। दिवाकर दूवे ने इस आयोजन को साहित्य के इतिहास  में महत्वपूर्ण बताया।

आयोजन के दूसरे सत्र में सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मा सचदेव द्वारा निर्देशित और साहित्य अकादमी द्वारा विष्णु प्रभाकर के जीवन पर निर्मित फिल्म का प्रदर्शन किया गया। इस फिल्म के आलोक में बीआरएम कॉलेज की हिन्दी की प्राघ्यापिका डॉ शिवरानी ने  विष्णु प्रभाकर पर बनी इस फिल्म को भावी पीढी कें लिये महत्वपूर्ण बताया। इससे साहित्य के प्रति उनकी समझ बढेगी। इस अवसर पर सूचना जन संपर्क के पूर्व उप निदेशक डॉ शिवशंकर सिंह पारिजात ने इस फिल्म को उनके जीवन का एक जीवंत दस्तावेज बताया।

फिल्म प्रदर्शन के बाद दिशा ग्रामीण विकास मंच के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के कलाकारों की प्रस्तुति विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित नाटक ‘‘ दूर और पास ’’ की प्रस्तुति थी। नाटक का निर्देशन मनोज पंडित ने किया। नाटक कथ्य इस प्रकार है। सांसारिक रिश्तों  की मधुरता में किस प्रकार खटास पैदा होता है। साथ-साथ रहनेवाले दो भाई जगन्नाथ और रमेश सांसारिक गतिविधि चक्र में फंसकर  अलग होकर रहते हैं। अलग रहकर भी रमेश अपने भाई और भाभी के प्रति  अपने दायित्व को निभाना चाहता है। परंतु अतिस्वाभिमानी कलावती रमेश के स्नेह से स्नेहारिक्त नहीं होना चाहती है। अपने वाल - बच्चों के भरण पोषण के लिये वह कर्ज लेकर काम करने केा तैयार है, पर देवर से मदद लेने को तैयार नही।। इसी का फायदा उठाता है कुटिल और चालक लाला राम प्रसाद। अंत में रमेश भामी के प्रेम और विश्वास को जीतने में सफल होता है। नाटक में मुल्क राज आनंद ;जगन्नाथद्ध, कलावती ;माला साहद्ध, रमेश ;मनोज कुमार पंडितद्ध, लाला राम प्रसाद ; डॉ जयंत जलदद्ध अपनी भूमिका पर खड़े उतरते हैं। ध्वानि संयोजन कपिलदेव एवं सोनु, वेशभूषा एवं रूप सज्जा मनोज कुमार पंडित एव डॉ जयंत जलद, प्रकाश व्यवस्था राकेश रोशन ने किया।

समारोह का अंतिम सत्र  कवि सम्मेलन का था। कवि सम्मेलन में दिल्ली से आये चर्चित व्यंग्यकार अनिल जोशी ने विष्णु प्रभाकर की कविता का पाठ कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। अपनी कविता में उन्होेंने वाल मजदूरी की त्रासदी का खांका यूं खींचा- ‘ यह भारत का भविष्य है, जिसकी तुम बातें करते हो, जिसके दम पर चांद सितारे लाने का दंभ भरते हो।’ अगली रचना में उन्होंने मर्यादा पुरूषोत्तम राम और जगत जननी सीता का मार्मिक प्रसंग छेड़कर बताना चाहा कि सोने के मृग ने उनके जीवन किस प्रकार अशांति और अवसाद घोल दिया। अपनी कविता के माध्यम से उन्होंने सवाल किया कि- ‘ सोने के मृग के विना ही उनका जीवन सुखी था।, तुम्हें क्या चाहिये? दिल्ली से ही आये ख्याति प्राप्त चित्रकार हर्षवर्द्धन आर्य ने अपनी कविता  के माध्यम से जहां नारी शिक्षा की जोरदार वकालत की, वहीं उन्होंने देश में व्याप्त विभिन्न घोटालों की स्वार्थपरक प्रवृतियों पर चुटीला व्यंग्य प्रहार कर श्रोताओं के मानस पटल को झकझोर दिया। इसी क्रम में सुप्रसिद्ध कवयित्री अलका सिन्हा ने अपनी रचना ‘ मैंने मांगी मन्नत तुम्हारी आंखों की एक बुंद‘ के तहत अपनी गहरी संवेदना को वाणी प्रदान की।

दिल्ली से आयी विष्णु प्रभाकर की पुत्री अर्चना प्रभाकर ने वनों की अंघाधुध कटाई और उत्पन्न खतरे पर अपनी अंतर्वेदना को इस प्रकार अभिव्यक्त किया -‘ तुम पेड़ काटते हो क्योंकि तुम्हारे कोश में पेड़ का अर्थ है महज लकड़ी लेकिन तुमने कभी पूछा है घायल हिमालय से कि उसके कोश में पेड़ का क्या अर्थ है?’ कवि सम्मेलन का संचालन सुधीर कुमार प्रोग्रामर ने किया। सम्मेलन में हिन्दी भाषा की रचनाओं के साथ-साथ लोकभाषा अंगिका की भी रचनाएं पढ़ी गयी। कवि सम्मेलन में हीरा प्रसाद हरेन्द्र, छंदराज, कैलाश झा किंकर, धनंजय मिश्र, विष्णुदेव विकल, उलूपी झा, रामावतार राही, प्रकाश सेन प्रीतम, राजकुमार,  दिनेश तपन, डॉ अश्विनी ने अपनी रचनाओं का पाठकर भाव वोध को अभिव्यक्ति दी। कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि  यूको बैंक के आंचलिक प्रबंधक आरती प्रसाद सिंह विशिष्ट अतिथि नबार्ड के जिला विकास पदाधिकारी नवीन कुमार राय थे। अध्यक्षता की स्नातकोत्तर अंगिका विभाग के  प्राध्यापक डॉ मधुसूदन झा ने। 

भागलपुर के अग्रसेन भवन का सभागर दिन भर भरा रहा और इस बात का गवाह रहा कि विष्णु प्रभाकर ने नाम पर जन्मशती आयोजन समिमि ने राष्ट्रीय संगोष्ठी को अंजाम दिया। यह आयोजन इस बात का सवूत रहा कि लोगों में गंभीर साहित्यिक वहसों की भूख है जो रश्म अदायगी में आज खो सी गयी है। इस आयोजन ने बिहार के साहित्यक क्षेत्र में एक नयी उर्जा का संचार किया है। निःसंदेह इस आयोजन के माध्यम से विष्णु प्रभाकर का समग्रता से मूल्यांकन कर भागलपुर गौरव का भागीदार बना है। 


योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-
कुमार कृष्णन
स्वतंत्र पत्रकार
 द्वारा श्री आनंद, सहायक निदेशक,
 सूचना एवं जनसंपर्क विभाग झारखंड
 सूचना भवन , मेयर्स रोड, रांची
kkrishnanang@gmail.com 
मो - 09304706646
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