लखनऊ,
अदम गोण्डवी की हालत में फिलहाल सुधार दिख रहा है। यह राहत देने वाली बात है। अब वे मिलने वाले साथियों को पहचान रहे हैं। उनसे बातचीत भी कर रहे हैं। साथियों के आने व बतियाने से वे ताजगी भी महसूस कर रहे हैं। इससे उन्हें ताकत और अपनी बीमारी से लड़ने की मानसिक खुराक मिल रही है। उनकी तिमारदारी कर रहे उनके भतीजे दिलीप कुमार सिंह और उनके बेटे आलोक के चेहरे पर भी वैसा तनाव नहीं है जैसा सोमवार को था जब उन्हें गोण्डा से लखनऊ के पी जी आई में लाया गया था। इस सब के बावजूद उनकी हालत गंभीर है। अदम गोण्डवी को लीवर सिरोसिस है। इस बीमारी को देखते हुए जरूरी है कि अदम गोण्डवी का इलाज सही दिशा में चले तथा उनके इलाज मे आना वाला खर्च जुटे। आज ‘दस्तक टाइम्स’ पत्रिका के सम्पादक रामकुमार सिंह की ओर से इक्कीस हजार रुपये अदम गोण्डवी के खाते में जमा किया गया तथा कथाकार सुभाषचंद्र कुशवाहा की ओर से व्यक्तिगत सहयोग दिया गया।
अदम ‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठा हाथ’ वाली कबीर परम्परा के कवि हैं। ये उस किसान की तरह हैं, जो मौसम और समय की मार झेलता है। अन्न पैदाकर सबको खिलाता है, पर अपने भूखा रहता है, अभाव में जीता है। यही अभाव अदम के जीवन में रहा है। अदम ऐसे कवि हैं जिनके लिए कविता करना धन व ऐश्वर्य जुटाने, कमाई करने का साधन नहीं है बल्कि उनके लिए शायरी समाज को बदलने के संघर्ष में शामिल होने का माध्यम है, सामाजिक प्रतिबद्धता है।
यही कारण है कि अदम की कविताएँ व गजलें इस राजनीतिक तंत्र पर पुरजोर तरीके से चोट करती हैं। यह तंत्र आमजन को तबाह.बर्बाद कर रहा है। वह विपन्नता व दरिद्रता में जीने के लिए बाध्य है। इसके लिए आजादी का कोई अर्थ बचा है क्या ? अदम इसी जनता का पक्ष लेते हैं और पैसे के बूते सत्ता पर काबिज तस्करों व डकैतो की इस व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं। जनता की जबान में जनता का दुख.दर्द बयाँ करते हैं: ‘आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह/जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में’ और ‘जनता के पास एक ही चारा है बगावत/ यह बात कह रहा हूँ मैं होशो.हवास में’।
इसीलिए अदम गोण्डवी के जीवन को बचाना बगावत की कविता को बचाना है, जनता की संघर्षशील परम्परा को बचाना है। विद्रोह का यह स्वर हमारी फिजाँ में गूँजे, इसके लिए जरूरी है कि अदम हमारे बीच रहें, वे दीर्घायु हों। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम देखें कि अदम के इलाज में कोई कमी न रह जाय। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि हम तभी जागते हैं जब कोई साहित्यकार बीमार होता है या उसके ऊपर कोई बड़ा संकट आता है। इस हालत में हम यही उम्मीद लगाते हैं कि सरकार आगे आये, कुछ करे। अदम गोण्डवी के सम्बन्ध में राज्य सरकार से बार बार अपील की गई। उनके पीजीआई में भर्ती हुए चार दिन हो गये। राज्य सरकार से आर्थिक मदद तो दूर की बात है, हालचाल लेने भी अब तक कोई अधिकारी नहीं आया। बेशक प्रदेश के राज्यपाल की ओर पच्चीस हजार रुपये के अनुदान की घोषणा की गई है। पीजीआई के डाक्टरों ने कहा है कि अदम के इलाज पर तीन लाख से ज्यादा का खर्च आयेगा। इसे देखते हुए राज्यपाल के इस को अनुदान को खानापूर्ति ही कहा जायेगा। सांस्कृतिक संगठनों ने इसे अदम का अपमान कहा है।
सोमवार को जब अदम गोण्डवी को गोण्डा से लाया गया था, उस वक्त उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक की ओर से कहा गया था कि संस्थान इलाज के मद में सहयोग कर सकता है बशर्ते सहयोग का प्रस्ताव आये। उत्तर प्रदेश भाषा परिषद के गोपाल उपाध्याय, जो स्वयं हिन्दी के वरिष्ठ लेखक है, ने परिषद की ओर से आर्थिक सहयोग की बात कही थी। लगता है प्रस्ताव के बहाने जहाँ हिन्दी संस्थान ने अपना पल्ला झाड़ लिया है, वहीं भाषा परिषद ने अखबारी घोषणा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी है। इनकी ओर से अभी तक कोई आर्थिक सहयोग नहीं आया है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि साहित्य के उत्थान व उन्नयन के लिए बनी सरकारी संस्थाएं इस कदर संवेदनहीन हो गई है कि प्रदेश का रचनाकार असाध्य बीमारी से जूझ रहा है और संस्थाओं के अफसर कुशल क्षेम जानने.पूछने की जरूरत भी नहीं समझते। ऐसी ही संस्कृतिविहीन व संवेदनहीन हमारी राजनीतिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था से क्या उम्मीद ?
फिर इसका विकल्प क्या है ? हो यह रहा है कि लेखक के बीमार होते ही हमारी भागदौड शुरू होती है और इस संकट के थमने के साथ ही यह मुद्दा ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है। यह स्वतःस्फूर्तता है। इससे काम चलने वाला नहीं है। दक्षिण के कुछ राज्यों में संकटकालीन स्थितियों से निपटने के लिए साहित्यकारों ने सहकारी संस्थाएं बना रखी हैं। हिन्दी.उर्दू की यह पट्टी बहुत बड़ी है। लिखने.पढ़ने वालों का समाज भी विशाल है। लेकिन इस क्षेत्र में ऐसी सहकारी संस्थाओं का अभाव है जो संकटकालीन स्थिति में साहित्यकारों.संस्कृतिकर्मियों को मदद कर सके। बेशक कुछ छोटी मोटी कोशिशें जरूर हुई हैं। जैसे जन संस्कृति मंच ने ‘सांस्कृतिक संकुल’ बना रखा है जिसकी तरफ से पिछले दिनों वरिष्ठ कथाकार अमरकांत, कवि शिवकुटी लाल वर्मा, रंगकर्मी अतिरंजन और कवयित्री प्रेमलता वर्मा को उनकी बीमारी में सहयोग दिया गया। लेकिन यह सब अपर्याप्त तथा अभी बहुत आरम्भिक स्टेज में है।
अदम की बीमारी ने साहित्यकारों.संस्कृतिकर्मियों की सहकारी संस्थाओं के निर्माण की जरूरत को सामने ला दिया है। इस पर गंभीरता से विचार हो, कारगर कदम उठाये जाय तथा प्रगतिशील व जनवादी संगठनों का यह कार्यभार बने। ऐसा करके ही हम अदम जैसे अपने प्रिय रचनाकारों के जीवन को बचा सकते हैं।
कौशल किशोर
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