बच्चों के लिए लिखना सबसे मुश्किल काम-राजेश उत्साही
बहुत कड़वा सच यह है कि मुझे जो कुछ मिला उसमें स्कूली शिक्षा का कोई रोल नहीं रहा बल्कि मैंने जो कुछ भी खुद में जोड़ा अनौपचारिक संगतों से ज्यादा जोड़ा है।हमारा बचपन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के दौर का रहा है अफ़सोस अब ऐसी पत्रिकाएँ नहीं रही जिनमें एक परिवार के समस्त सदस्यों की ज़रुरत मुताबिक़ सामग्री एक साथ प्रकाशित मिले।चिंताजनक बात यह भी है कि लेखकों ने बच्चों के लिए लेखन को बहुत हलके में ही लिया है जबकि यह मेरी नज़र में सबसे मुश्किल काम है।अपने लगातार के सम्पादन में मैंने देखा है कि संपादकों का रचनाकारों से अब उतना संवाद नहीं होता है। डिहर पाठकीयता के बढ़ावे को लेकर नेटवर्किंग साईट के चलन और अभिव्यक्ति के नए मंचों से अवसर और संभावनाएं बढ़ी है मगर इसका इस्तेमाल बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।
यह विचार अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के हिंदी सम्पादन विभाग से जुड़े राजेश उत्साही ने एक कार्यक्रम में कहे। यह आयोजन अपनी माटी और अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की संयुक्त प्रस्तुति के रूप में बातें बीते दिनों की शीर्षक से बारह अक्टूबर शाम विजन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में हुआ। नगर के साहित्यिक अभिरुचि संपन्न लगभग सत्तर साथियों के बीच कई बहानों से यहाँ एक सार्थक संवाद हुआ। राजेश उत्साही ने अपने संस्मरणों में बचपन से लेकर कॉलेज दिनों की सफलताओं के बीच बेरोजगारी और मुफलिसी के दिनों पर प्रकाश डाला।सबसे पहले हिंदी प्राध्यापक डॉ. कनक जैन ने अपने बचपन के दिन याद करते हुए दलोट जैसे आदिवासी अंचल में उस दौर के प्रतिबद्ध गुरुजनों को याद किया।उन्होंने कहा कि बहुत तेज़ी से भागते इस वक़्त में हमने बहुत सारे बदलाव देखें हैं और हमारी आँखों के सामने ही यह नज़ारा एक नयी शक्ल के साथ हमें चिढ़ाता है।प्राथमिक शिक्षा के दौरान की वो पाठशाला, पुस्तकालय, खेलकूद प्रतियोगिताएं, पैदल भ्रमण, सायकिल कल्चर सब बीते दिनों की बातें हो गयी हैं।अभिभावकों और गुरुजन के बीच के आत्मीय रिश्ते लगभग गायब हो गए हैं।संस्मरण केन्द्रित इस आयोजन में आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ के कार्क्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने अव्वल तो अपने दादा और दादी के ज़रिये मिली अनौपचारिक तालीम का ज़िक्र करते हुए तमाम बाल पत्रिकाओं के बारे में फोरी तौर पर टिप्पणियाँ की।अपने लगातार की पठन-पाठन की आदतों का हवाला देते हुए व्यास ने कहा कि आज भी दुनिया को बदलने का सम्पना देखने वालों को किताबों का सबसे बड़ा सहारा मिल सकता है।किताबें सबसे बेहतर गुरु साबित हो सकती हैं अगर आपका चुनाव एकदम सही हो।आँखें खोलने और दिशा तय करने में पुस्तकों बड़ा योगदान साबित होता रहा है। मैं आज जितना कुछ हूँ बहुत कुछ किताबों की संगत की वज़ह से ही हूँ।मैं सबकुछ पढ़ा गोया कविता, कहानी और उपन्यास।लुगदी साहित्य से लेकर सोवियत रूस के प्रकाशन तक।विदेशी नोवेल से लेकर हिंदी में अनुदित रचनाएँ तक।यहाँ तक की कॉमिक्स तक ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है।
कॉलेज शिक्षा में हिंदी के प्राध्यापक डॉ. राजेश चौधरी ने अपनी बहुत कम पढ़ी-लिखी माँ की संगत में यात्राओं के दौरान मिली शिक्षा से लेकर स्कूली अध्ययन में संपर्क में आए अध्यापकों का ज़िक्र किया। वे अपने सहज मगर चुटीले अंदाज़ में कई सारे बिन्दुओं पर प्रेरक अंश सुनाते हुए उपस्थित श्रोताओं को अपने बीते दौर में ले जा सके। उनके संस्मरणों में कई प्रतिबद्ध लोगों का ज़िक्र हुआ जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय, आलमशाह खान, प्रसिद्द व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई भी शामिल रहे। डॉ. चौधरी ने धर्मनिरपेक्षता, गुरु-शिष्य के संबंध, मित्रों की संगत, लेखकीय दायित्व और अध्यापकी जैसे मुद्दों पर राय बनने-बिगड़ने के कई रोचक प्रसंग सुनाए।कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार शिव मृदुल ने की।सभा का संचालन अपनी माटी के संस्थापक माणिक ने किया।आयोजन की शुरुआत में कॉलेज निदिशिका डॉ.साधना मंडलोई, अपनी माटी उपाध्यक्ष अब्दुल ज़ब्बार, संस्थापक सदस्य डॉ.ए.एल.जैन, सह सचिव रेखा जैन और छात्रा आकांक्षा नागर ने जानकार वक्ताओं का अभिनन्दन किया। इस मौके पर फाउंडेशन की गतिविधियों के बारे में कार्यकर्ता विनय कुमार ने विस्तार से बताया।आयोजन में अंजली उपाध्याय, कपिल मालानी और लोकेश कोली के निर्देशन में एक लघु पत्रिका प्रदर्शनी भी लगाई गयी।आखिर में आभार अज़ीम प्रेम जी फाउंडेशन के चित्तौड़ इकाई समन्वयक मोहम्मद उमर ने व्यक्त किया।
डॉ. राजेन्द्र सिंघवी,प्रबंध सम्पादक,अपनी माटी
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