दिल्ली : 22 अप्रैल 2013
18 अप्रैल को लातिन अमरीका के अद्भुत किस्सागो गैब्रियल
गार्सिया मार्केज ने 87 साल की उम्र में हमसे विदा ली। उनका कथा संसार लातिन
अमरीका के देशों के पिछड़े माने जाने वाले समाजों की जिंदगी की समझ के साथ ही इस समाज
के दुख-दर्द, हिंसा, असमानता, आवेग और
गतिशीलता से पूरी दुनिया को बावस्ता कराता है।
6 मार्च 1927 को कोलम्बिया के छोटे से शहर आर्काटका
में जन्मे गैब्रियल खोसे द ला कन्कर्डिया गार्सिया मार्केज का यह शहर 20 वीं सदी
की शुरुआत में दुनिया के नक्शे पर भीषण औपनिवेशिक लूट के नाते दिखा। यही शहर और
उसके अनुभव बाद में मार्केज के रचना संसार के बीज बने। 'क्रानिकल्स ऑफ ए
डेथ फोरटोल्ड', 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा', 'ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क', 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' आदि मार्केज के नामी
गिरामी उपन्यास हैं। वास्तविक घटनाओं को मिथकों के साथ जबर्दस्त ढंग से गूँथ देने
की उनकी क्षमता ने उन्हें विश्वस्तर पर ऐसा उपन्यासकार बना दिया जिसके विरोधियों
को भी उसका सम्मान करना पड़ता था।1982 में उनको साहित्य के नोबल सम्मान से नवाजा गया।
सम्मान समारोह के मौके को उन्होने साम्राज्यवाद-विरोध के मंच के रूप में बदल दिया।
इस मौके पर बोलते हुए उन्होने न सिर्फ लातिन अमेरिकी जमीन पर अंग्रेजी उपनिवेशवाद
की क्रूरताओं का जिक्र किया बल्कि अमरीका और यूरोप के कॉर्पोरेट घरानों द्वारा इस
इलाके में की जा रही लूट और भयानक दमन को भी बेनकाब किया। उन्होने साफ-साफ कहा कि उनकी
कहानियाँ गायब हुए लोगों, मौतों और राज्य प्रायोजित नरसंहारों के बारे में हैं जो
कॉर्पोरेट हितों के लिए रचे जाते हैं।
मार्केज को याद करते हुए श्रद्धांजलियों में पीली
तितलियों, लाल चींटियों, चार साल ग्यारह हफ्ते दो दिन चली बारिश आदि मिथकीय कथातत्त्वों का जिक्र
तो काफी हो रहा है पर उनकी इस शैली के पीछे की असलियत पर निगाह अपेक्षाकृत कम ही
टिकती है। मार्केज के सामने एक पूरी ढहा दी गई सभ्यता थी,
जिसे उन्होने भोगा और महसूस किया था। मार्केज के नाना गृहयुद्धों में भाग ले चुके
थे और नानी जीवन की ‘असंभव’ किस्म की
कहानियाँ सुनाया करती थी। शायद इतिहास की अकादमिक व्याख्या की जड़ता से अलग पूरी
हकीकत बताने की छटपटाहट ही मार्केज को उस शिल्प तक ले गई जिसे पश्चिमी अकादमिक जन ‘जादुई यथार्थवाद’ कहते हैं। इतिहास की वर्तमान धारणा
से पहले अन्य किस्म की अवधारणाएं विभिन्न समाजों में रही आई हैं। मार्केज ने इन
धारणाओं को भी अपने बयान के लिए चुना।
लातिन अमरीका की जमीन 20वीं सदी में समाजवाद के नए
प्रयोगों के लिए जानी गई। फिदेल कास्त्रो इस आंदोलन के प्रतीक पुरुष बने। ठीक ऐसे
ही लातिन अमरीकी देशों की जमीन से पुराने यथार्थवाद को बदलने-विकसित करने वाले
ढेरों रचनाकार पैदा हुए, जिनकी अगुवाई मार्केज ने की। संयोग से ज्यादा ही है कि फिदेल, मार्केज के उपन्यासों के पहले कुछ पाठकों में शुमार हैं। दोनों ही वामपंथ
की लड़ाईयों को अलग-अलग मोर्चों पर विकसित करने वाले योद्धा हैं। मार्केज की
प्रतिबद्धताएं हमेशा ही वामपंथ के साथ रहीं। वेनेजुएला, निकारागुआ और
क्यूबा के वाम आंदोलनों के साथ उनके गहन रिश्ते थे। अनायास नहीं कि उनकी रचनाशीलता
के अमरीकी प्रसंशक उनके वामपंथी होने को कभी पचा नहीं पाये।
हम तीसरी दुनिया के लोग औपनिवेशिक विरासत के चक्के
तले पिसने को बखूबी समझते हैं, पश्चिमी आधुनिकता के साथ ही अलग तरह का देशज इतिहास-बोध हमें
भी हासिल है, ऐसे में मार्केज अपनों से ज्यादा अपने लगते
हैं। एक पूरी सभ्यता का बनना और उसका नष्ट होना हमारे अपने देश-काल में भी
धीरे-धीरे घटित होता जा रहा है। हम भी मिथकों के औजार से यथार्थ को और बेहतर तरीके
से और संपूर्णता में देख सकते हैं।आज जब हमारे देश में अमरीकी तर्ज पर ही स्मृतिहीनता
और फर्जी इतिहासबोध लादा जा रहा है, तब मार्केज के उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' के आखिर हिस्से के
एक वर्णन की याद बेहद प्रासंगिक है। भारी वर्षा के बाद कत्ल कर दिये गए 3000
हड़ताली मजदूरों की स्मृति लोगों के दिमाग से धुल-पुंछ जाती है। अकेले खोसे
आर्कादियो सेगुंदो इस बात को याद है और वह लोगों से इस बावत बात करता है पर लोग
भूल चुके हैं।ऐसी स्मृतिहीनता को दर्ज करना और स्मृतिहीन बनाने
वाली ताकतों, व्यवस्थाओं, कॉर्पोरेटों के खिलाफ प्रतिरोध रचना ही
मार्केज को सही श्रद्धांजलि होगी !जन संस्कृति मंच दुनिया की जनता के इस दुलारे कथाकार
को सलाम करता है।
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