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''आलोचना मनुष्य की आत्मचेतना की विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति है''-विनोद तिवारी

आलोचना लोकलोचन है...
(देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह-2014)
प्रस्तुति:डॉ. पुखराज जाँगिड़

साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आलोचना के सरोकार सिर्फ आलोचना तक सीमित नहीं होते। रचनात्मक गतिविधि होने के कारण रचनात्मक साझे का काम गम्भीर जुड़ाव की माँग करता है पर मुश्किल यह है कि हमारी आलोचना ऐसा कर नहीं पा रही है।आज जिस नाजुक मोड़ पर हमारा देश खड़ा है, वहाँ साम्प्रदायिक ताकतों की ताजपोशी की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही है। यह स्थिति अचानक उपस्थित नहीं हुई बल्कि यह आधुनिक भारत के उस स्थगित क्षण का प्रगटीकरण है, जिसकी दोषी हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना भी रही है पर ऐसी परिस्थितियों में सम्भव है कि एक बार फिर से उसका प्रतिरोधी स्वर सामने आए। यह बात वरिष्ठ कवि असद जैदी ने आलोचना की युवता के आदर्श रहे स्वर्गीय देवीशंकर अवस्थी के 84वें जन्मदिन पर आयोजित विचार-गोष्ठी आलोचना के सरोकारके दौरान कही।

5 अप्रैल 2014 को साहित्य अकादेमी सभागार (रवीन्द्र भवन, नयी दिल्ली) में आयोजित देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने युवा आलोचक विनोद तिवारी को उनके आलोचनात्मक निबन्धों की पुस्तक नयी सदी की दहलीज पर (विजया बुक्स, 2011) के लिए 18वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित किया। सम्मान स्वरूप उन्हें स्मृति-चिह्न, प्रशस्ति-पत्र और ग्यारह हजार रूपये की राशि प्रदान की गयी। सम्मान समारोह की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने की तोकवि असद जैदी, प्रणय कृष्ण और संजीव कुमार विचार-गोष्ठी के मुक्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे।देवीशंकर अवस्थी अवस्थी परिवार के सदस्यों अनुराग, गौरी, वरुण, स्मिता, वत्सला, कार्तिकेय व शाश्वती ने पुष्पगुच्छ देकर अतिथियों का स्वागत किया।

सम्मान समारोह की नियामिका और संयोजिका कमलेश अवस्थी ने बताया कि अजित कुमार, नित्यानन्द तिवारी, अशोक वाजपेयी औरअर्चना वर्मा इस बार के पुरस्कार निर्णायक मण्डल में शामिल थीं और इससे पहले यह पुरस्कार मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेन्द्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविन्द त्रिपाठी, कृष्णमोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण और प्रमिला के.पी., संजीव कुमार, जितेन्द्र श्रीवास्तव और प्रियम अंकित को मिल चुका है।

हाल ही में हमसे रूखसत हुए साहित्यकार राजेन्द्र यादव की स्मृति को याद करने के तुरन्त बाद देवीशंकर अवस्थी सम्मान की निर्णय प्रक्रिया के बारे में बताते हुए अर्चना वर्मा ने कहा कि इस पुरस्कार के लिए कमलेश अवस्थी जी की अद्यतन फाइलिंग हमारा काम काफी आसान कर देती है। इस पुरस्कार के माध्यम से उन्होंने देवीशंकर अवस्थी के लेखन और स्मृतियों को संजोए रखा है। युवा आलोचकों की नवीन आलोचना पुस्तकों और विभिन्न पत्रिकाओं में फैले उनके आलोचनात्मक निबन्धों पर उनकी लगातार निगाह रहती है। यह उनकी अनवरत कोशिशों का परिणाम है कि हिन्दी समाज में इस सम्मान की प्रतिष्ठा इस रूप में है कि हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में कार्यरत जिस सम्भावनाशील युवा आलोचक को यह सम्मान मिलता है, एक आलोचक के रूप में उसकी स्वीकार्यता स्थापित हो जाती है।प्रशस्ति वाचन में उन्होंने कहा कि विनोद तिवारी अपनी पैनी और गहरी सूझबूझ से आलोचना और साहित्य के रिश्ते को व्याख्यायित करते हुए हमारे समय, समाज और संस्कृति के बनते-बिगड़ते रूपों को रेखांकित कर रहे हैं।

पुरस्कृत आलोचक विनोद तिवारी नेआलोचना एक सजग आलोचनात्मक कार्यवाही शीर्षकीय उद्बोधन में कहा कि आलोचना मनुष्य की आत्मचेतना की विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति है और आलोचक रचना की नागरिकता का चौकन्ना नागरिक। देवीशंकर अवस्थी जिसे चुने हुए बौद्धिक अनुशासन के रूप में चिह्नित करते हैं। उसके लिए उसे जीवन के वास्तविक अनुभवों से जुड़ना और फिर उससे उबरना यानी लहरों में होते हुए अपनी आँखों को बचाए रखना बेहद जरूरी हो जाता है। आलोचना के मानदण्ड स्थिर या निश्चित नहीं हो सकते और न ही आलोचक को उसके जिद्द करनी चाहिए। ऐसी जिद्द में आलोचना स्थिर, जड़ और अमूर्त रूप धारण कर लेती है। किसी भी तरह की यथास्थितिवादी प्रवृत्ति से संघर्ष, संस्कृति के अतिशय महिमामण्डन के प्रति जागरूकता, परम्परा और इतिहासबोध की दरार की समझ जरूरी होती है।रचना की स्वायत्तताकी तरह आलोचना की स्वायत्तताकी माँग ही गलत है।

अपने वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा कि "आज की समकालीन रचनाशीलता को केवल साहित्यिकताके पाठोंऔर प्रतिमानोंसे ही नहीं समझा जा सकता। आलोचना का एक व्यापक और वृहत्तर सरोकार और दायित्त्व आज के बढ़ते सामजिक-सांस्कृतिक खतरों को पहचान कर उन पर सही सार्थक बहस का माहौल पैदा करना और उसे रचना है..." अगर आलोचना अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वहन करने लगे तो मजा ही आ जाए पर दिक्कत यह है कि वह इस पर खरा नहीं उतर पा रही। हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि आलोचना के पक्ष में अधिक बोलना खुद को संदिग्ध बनाना है।

आलोचना के सरोकार विषयक विचार-गोष्ठी की शुरूआतजिगर मुरादाबादी का एक शेर-करना है आज हजरत-ए-नासेह का सामना/ मिल जाए दो घड़ी को तुम्हारी नजर मुझे।से करते हुए कवि असद जैदी ने कहा कि आलोचना की भाषा को कामचलाऊ औजार की तरह इस्तेमाल करने वाले आलोचक भूल जाते हैं कि उसके माध्यम से हम रचना को बाहर से नहीं बल्कि भीतर से भी देखने की कोशिश करते हैं और जिसके माध्यम सेआलोचना रचनाशीलता अपना रूप ग्रहण करती है। हिन्दी समाज की एक गहरी विडम्बना यह रही कि उसके सबसे प्रतिभाशाली आलोचक समय से पहले ही चल बसे। मुक्तिबोध और देवीशंकर अवस्थी इसके प्रमुख उदाहरण है फिर प्रेमचन्द का कद कथालोक में इतना बड़ा था कि हम उनके आलोचकीय रूप को देख ही नहीं पाए। असल में अकादमिक किस्म की प्राध्यापकीय आलोचना ने आलोचना की जीवनधारा को समाप्त कर दिया। देवीशंकर अवस्थी की नातिन शाश्वती ने उनके निबन्ध रचना और आलोचना के अंशों का पाठ किया।

हिन्दी आलोचना के सरोकारों पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि हिन्दी अकेली ऐसी जबान है जिसमें आलोचना को एक समुदाय के रूप देखा जाता है, जिसमें शोध और प्रतिशोध की अनवरत कार्यवाहियाँ जारी रहती है। प्राध्यापकीय नियुक्ति को एक तरह सेआलोचना का नियुक्ति-पत्र भीमाना जाता है। अगर ऐसा न होता तो अपने समय के जरूरी सवालों, कम-से-कम शिक्षा पर तो उनकी आलोचना का कोई असर होता!अन्य अनुशासनों में जिस तरह की जवाबदेही दिखती है, वैसी जवाबदेही हिन्दी का आलोचक महसुस ही नहीं करता, उसकी जवाबदेही सिर्फ खुद तक सीमित होती है। हिन्दी ऐसी अकेली भाषा भी है, जिसकी ज्ञान परम्परा को हमारा आलोचक जातीय ज्ञान की तरह देखता है और इतिहास, भूगोल, पुरात्तव जैसे सारे ज्ञानानुशासनों का ठेका भी वह खुद ही ले लेता है। ऐसे मेंविश्वविद्यालयों से निकलने वाले हमारे छात्र जिस तरह की मानसिकता लेकर वापस समाज में आते हैं, वे अर्द्ध-फासीवादी विचारों को सोखने के लिए तैयार रहते हैं। उन्होंने बताया कि आलोचना में इस तरह की क्षुद्रताओंके बीज1857 से पहले और उसके बाद की भाषा के बदलाव को चिह्नित न कर पाने और उस समय की जातीयता या जातीय गौरव के आग्रहों और आह्वानों के निहितार्थ में मौजूद है!यथार्थ को देखने की हमारी नजर को उसने जो रूप दिया, उसमें कई तरह के अन्तर्विरोध मौजूद थे। ऐसे मेंपिछड़ेपन के हमारे समाजशास्त्र के विकास के लिए हिन्दी आलोचना ने क्या किया?सारी प्रगतिशील आलोचना यहाँ आकर समाप्त हो जाती है कि रामचन्द्र शुक्ल तो सबकुछ पहले ही लिख चुके थे। फिर वकीलों और न्यायधीशों के इस कबीले के अपने आचरण और सामाजिक व्यवहार की जाँच कौन कर रहा है, क्या वह भी कभी आत्मालोचना के दौर से गुजरेगी?
युवा आलोचक प्रणय कृष्ण ने अपनी बात रखते हुए कहा कि 1992 में जब बाबरी मस्जिद ढहाई गयी तो ज्ञानेन्द्र पाण्डे ने कहा किएक इतिहासकार के रूप में हमअपनी जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वहन नहीं कर पाए। वह उस समय के एक ईमानदार बौद्धिक की आवाज थी। पर प्रणय कृष्ण हिन्दी आलोचना मौजूद में ऐसी आवाजों को चिह्नना भूल गये। उन्होंने बताया कि परिवर्तन के लिए आलोचना जरूरी है और अपनी इसी भूमिका के कारण वह साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक व्यापक होती है। अगर आलोचना नहीं होगी तो समाज में परिवर्तन ही नहीं होगा। जिस दौर मेंहम रह रहे हैं, वहाँ मीडिया के 30 मिनट के एक कार्यक्रम में 15 मिनट तो खुद उद्धघोषक ले लेता है (जिसमें उसकी प्रतिबद्धताएँ पहले से तय होती है) और पीछे बचे 15 मिनटों में ही हम सभी बौद्धिकों को अपनी बात रखनी होती है।

औपनिवेशिक काल में ज्ञान की भाषा भले ही अँग्रेजी रही है, पर भारतीय ज्ञानकाण्ड के निर्माण के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्टऔर प्रेमघन सरीखे आलोचकों ने जो नयी परिभाषाएँ और शब्दावलियाँ तैयार की, उसमें हम पाते हैं कि समाज, राष्ट्र और इतिहास के बिना साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। बाद मेंरामचन्द्र शुक्ल ने जिन छन्नियों का इस्तेमाल किया, उससे सामाजिक जरूरतों से जुड़ी हिन्दी आलोचना विकसित होती है।आज की आलोचना ऐसा क्यों नहीं कर पा रही है, इस बारे में उन्होंने कहा कि आज कीराजसत्ता, विद्यालयों-महाविद्यालयों के ढाँचे में आलोचनात्मक विवेक को मारने के औजार मौजूद है, जिसके कारण कोई निरापद रास्ता ही नहीं बचा, इसलिए गलतफहमियाँ और अन्यथाकरण तो होगा ही। एक खास समय में आलोचना जिस तरह की भूमिका निभाती है, उससे उसकी शक्ल सामने आती है पर मुश्किल यह है कि इस समय दलित साहित्य को छोड़ किसी पर भी बहसपरक आलोचना सामनेनहीं आ रही।समकालीन न होने पर भी आज की आलोचना को कबीर पर जमकर लड़ाई करनी पड़ रही है। आलोचना का रिश्ता उतना सीधा नहीं है, जितना समझा जाता है। वह सभी विधाओं में संक्रमित होती है और उसी से लोकतन्त्र की व्याख्याएँ सामने आती है। आलोचना में सनसनी के लिए कोई स्थान नहीं है। वह मौलिकता की भ्रान्त धारणा को तोड़ती है। हम ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों से जुड़कर ही देख पाएँगे कि यहाँ जिस राष्ट्र की बात हो रही है, वह किसकी कल्पना का राष्ट्र है और उसकी इतिहास-दृष्टि कैसी है?

युवा आलोचक संजीव कुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि जिस तरह एक विषय के रूप में आलोचना के सरोकार में किसी तरह के विशेषण के न होने सेएक ओर तो वह काफी विस्तार ग्रहण कर लेता है, लेकिन दूसरी ओरवह भाषा के भीतर सीमा-रेखाएँ खिंचने का काम भी करने लगता है। आलोचना में असहमतियाँ स्वस्थ लक्षण होती हैं। आलोचना की परम्परा के प्रति आलोचनात्मक होने की जरूरतों को चिह्नित करते हुए वे बताते है किदेवीशंकर अवस्थी ढाई हजार साल पहले की आलोचना परम्परा की बात करते हुए भी अपने समय की जरूरतों का ख्याल रखने, नयी रचनाओं को शामिल करने और प्राचीन साहित्य नयी व्याख्या की जरूरतों को नहीं भूलते।आलोचना का मुख्य काम है स्थिति-निर्धारण, जो ठीक पिरामिड की शक्ल में होता है। शक्ति-प्रदर्शन के इस खेल में हमारे आलोचनात्मक विवेक और आलोचनात्मक मानदण्डों की भी परीक्षा होती है। इसी से तत्कालीन समाज की चिन्ताओं को देखते हुए लोकरंजन के मुकाबले लोकमंगल और साधनावस्था की सिद्धावस्था जैसे सिद्धान्त विकसित होते हैं।

वे बताते है कि आलोचना की गहरी सम्बद्धता रचना के आस्वादन से होती है।मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी आलोचना के विभाजन के बावजूद आलोचना हमें रचना से परिचित कराती है, लेकिन समस्याग्रस्त होने का अहसास उसके तेज को छिन रहा है। उन्होंने कैथरीन बैल्सी के हवाला देते हुए कहा कि बाजार जिस तरह से उत्पाद को उपभोग के रूप में प्रस्तुत करता है और उसकी निर्माण प्रक्रिया में मजदूरों का भयावह जीवन-स्थितियों को छोड़ देता है, लेकिन आलोचना ऐसा नहीं कर सकती, उसे दोनों को दिखाना होगा। यह अलग बात है कि साहित्यिक उत्पाद निर्माण की प्रक्रिया में वह खुद पहले से बनी अपनी विचारधारा को भाषा के माध्यम से छिपा लेता है। आलोचना को रचना के भीतरी अर्थों को निकालने की कोशिश करनी होती है, जिसे पियरे मार्शल रचना में इतिहास खोजना कहते हैं। विमर्शपरक आलोचना उस सामाजिक ढाँचे को तोड़ने का काम करती है, जिसकी जरूरत महसुस की जा रही है। ऐसे में आलोचना से रसास्वादन के एक माध्यम होने की अपेक्षा सही नहीं है और इस पर आपत्ति की जानी चाहिए।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि आलोचना लोकलोचन है। वह रचना में व्यक्त और अव्यक्त की खोज करती है। इसके लिए उसे रचना के भीतर के लोक की पड़ताल के साथ-साथजो रचना में नहीं आ पाया है, उसकी ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा लोक बहुत सी बातों, परम्पराओँ से प्रभावित होता है, अब यह आलोचना का काम है कि वह हमें विभिन्न परम्पराओं और परिवेश के प्रभाव से अवगत कराएँ, उनके प्रति सजग और सावधान बनाए। क्या कारण है कि बारहमासा का वर्णन सिर्फ भारतीय साहित्य में ही मिलता है, अन्यत्र नहीं? उसे देश की प्रकृति से रचना-जगत के रिश्ते को भी व्याख्यायित करना होता है। आलोचक को बहुत सारे खतरे उठाकर भी अपनी चिन्तन प्रक्रिया से वाकिफ करवाना होता है। अपनी सोच का सच रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना में मिलता है। अपने समय के सबसे बड़े कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की जैसी आलोचना उन्होंने लिखी, वैसी और कोई न लिख सका।हिन्दी में पिछले दो सौ सालों से महाकवि बने केशवदास की उनकी आलोचना के बाद वे जो कुछ माने गए पर महाकवि तो नहीं ही रहे। अपने समय के सबसे बड़े राजनीतिज्ञमहात्मा गाँधी की आलोचना उन्होंने लिखी।

साहित्य की व्यापकता और उसके स्वभाव को चिह्नने का दायित्व आलोचना का है। इसीलिए ज्ञान, भाव और संवेदना के तमाम अनुशासन इसमें घुले-मिले रहते हैं। आलोचना बहीखाते की भाषा में नहीं लिखी जा सकती। भाषायी विशिष्टता के ही कारण आलोचना विशिष्ट और साहित्यिक बनती है। रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की आलोचना की भाषा उनकी सोच की शैली को भी प्रतिबिम्बित करती है। आलोचना की भाषा को लोकतान्त्रिक बनाने का काम रामविलास शर्मा ने किया क्योंकि उनकी भाषा को समझने के लिए बहुत ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है। आलोचना की भाषा में अपने समय की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना में उस दौर का इतिहास मौजूद है। इसलिए वे कहते है कि जब स्वाधीनता आन्दोलन उग्र हुआ और प्राणोत्सर्ग की बात होने लगी तो कविताओंमें भी जान आने लगी।

विचार-गोष्ठी की समाप्ति पर देवीशंकर अवस्थी के बड़े बेटे अनुराग अवस्थी ने समारोह में उपस्थित सभी साहित्य-प्रेमियों का धन्यवाद और आभार व्यक्त किया। समारोह में अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी, देवीप्रसाद त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह,नित्यानन्द तिवारी, रमेश उपाध्याय,मंगलेश डबराल, सविता सिंह, वीरभारत तलवार,किशन कालजयी, शिवमंगल सिद्धान्तकार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, अपूर्वानन्द जैसे कई वरिष्ठ साहित्यकार मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन अल्पना मिश्र ने किया।कुल मिलाकर अच्छी शुरूआत कुछेक अच्छी टिप्पणियों के बावजूद बात आलोचना के सरोकारों पर हो न सकी। कुछ तो बात है कि आलोचना नागार्जुन की तरहजो नहीं हो सके पूर्ण काम/ में उनको करता हूँ प्रणाम और शमशेर की तरहजो नहीं है/ जैसे की सुरूचि/ उसका गम क्या?/ वह नहीं है की तरह अपने समय के सवालों से मुखातिब होने से बचना क्यों चाहती है? कुछ तो लोचा है भई! क्या कारण है कि सबकुछ के बावजूद आज हमारे पास एक भी ऐसा आलोचक नहीं है, दिल्ली की घरघुस्सु बिरादरी के बाहर के जनमानस में जिसकी गहरी पैठ हो। साँप के काट खाने के बाद चिल्लाते रहिए, कौन देखता-पढता-पूछता है!


(सम्पर्क: डॉ. पुखराज जाँगिड़, ई-पता :pukhraj.jnu@gmail.com )

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