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‘शब्दिता’: अपनी माटी की संवदेनाओं की संवाहिका

‘शब्दिता’: अपनी माटी की संवदेनाओं की संवाहिका

कौशल किशोर

लघु पत्रिकाओं का साहित्य के विकास में बड़ा योगदान रहा है। जहां ये पत्रिकाएं अद्यतन साहित्य को पाठकों तक पहुचाती हैं, वहीं ये नई प्रतिभाओं को भी मंच प्रदान करती हैं। बड़े तथा ख्याति प्राप्त साहित्यकारों की साहित्य यात्रा का आरम्भ भी इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ है। 1970 के दशक में तो लघु पत्रिकाओं का संपादन व प्रकाशन साहित्य का आंदोलन ही बन गया था जो साहित्य में व्यवसायिकता और सेठाश्रयी पत्रिकाओं के वर्चस्व के विरुद्ध सांस्कृतिक हस्तक्षेप था। भले ही आज साहित्य व पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में उस तरह का प्रखर आंदोलन न हो तथा साहित्य व साहित्यकार भी महानगर केन्द्रित हो गये हों, फिर भी आज ऐसी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जिनमे अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजगता है। उत्तरप्रदेश के मऊ जैसे कस्बे से निकलने वाली समकालीन चिन्तन एवं सृजन की संवाहिका ‘शब्दिता’ ऐसी ही पत्रिका है। कृषि वैज्ञानिक व साहित्यकार डॉ रामकठिन सिंह जहां ‘शब्दिता’ के संरक्षक हैं, वहीं डॉ कमलेश राय इसके संपादक हैं। 

‘शब्दिता’ की आवृति अर्द्धवार्षिक है। इसके अब तक पाच अंक प्रकाशित हो चुके हैं।नया अंक जनवरी-जून 2014 पठनीय रचनात्मक सामग्रियों से पूर्ण है। इसके कई स्तंभ है जिसके द्वारा ‘श्ब्दिता’ को विविधतापूर्ण बनाने की कोशिश की गई है। पत्रिका किस तरह जमीन तथा उसकी चिन्ता से जुड़ी है, इसका प्रमाण डॉ विवेकी राय का महत्वपूर्ण आलेख ‘भारत के उजड़ते गांव’ है। यह आज के समय से सक्षाात्कार करती है। यह दौर सामाजिक व सांस्कृतिक बिखराव तथा राजनीतिक अवमूल्यन का है, ऐसे में साहित्य को जनप्रतिरोध और प्रतिकार का माध्यम कैसे बनाया जाय जिसमें ‘सोनचिरैया, हर दरवाजे, मंगल गाये’ और ‘तंत्र, लोक के रहने लायक देश बनाये’। पत्रिका के संपादकीय में यह जरूरी चिन्ता व्यक्त की गई है। इसकी रचनाओं में इसकी अभिव्यक्ति मिलती है।

‘शब्दिता’ के नये अंक में डॉ पी एन सिंह का ‘प्रतीकों के व्याख्याकार डॉ राम मनोहर लोहिया’, नचिकेता का ‘समकालीन गीतों में संवेदना के विकास का स्वरूप’, डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित का ‘पुरस्कार या तिरष्कार’ तथा डॉ शिवप्रसाद सिंह का ‘जौहर: एक पुरानी संवेदना का नवीन आख्यान’ आलेख हैं। इन आलेखों में व्यक्त विचारों और स्थापनाओं से सहमति या असहमति हो सकती है और भारतीय समाज व संस्कृति के जटिल यथार्थ के संदर्भ में यह स्वाभाविक भी है। लेकिन अच्छी बात है कि ‘शब्दिता’’ इन विषयों पर खुले विचार-विमर्श का मंच प्रदान करती है।

जहां ‘शब्दिता’ में वरिष्ठ कथाकार व उपन्यासकार गिरिराज किशोर का साक्षात्कार है, वहीं गुजराती के मूर्धन्य सर्जक उमाशंकर जोशी का महावीर सिंह का संस्मरण है। इसी तरह पत्रिका भोजपुरी साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले मनीषी बाबू गिरिजेश राय से हमें परिचित कराती है। ‘एक और कबीर सा’ के अन्तर्गत एक ऐसी ही शख्सियत उर्दू के शायर रसूल अहमद ‘सागर’ से हम रु ब रु होते हैं। ‘सृजन संदर्भ’ स्तंभ के अन्तर्गत कमलेश राय के भोजपुरी गीतों का आस्वादन पाठक कर सकते हैं, वहीं उन गीतों को व्याख्यायित करती श्रीधर मिश्र की टिप्पणी है। ‘शब्दिता’ में उद््भ्रान्त, चन्द्रेश्वर, रंजना जयसवाल आदि की कविताएं हैं जो राजनीतिक अवमूल्यन और मानव मूल्यों में आई गिरावट को व्यक्त करती है, वहीं गीतों, गजलों तथा रामदरश मिश्र व राम कठिन सिंह की कहानियां उपभोक्तावाद के दौर में संवेदनाओं व मानवीय मूल्यों के क्षरण को सामने लाती है। 

कुलमिलाकर विविध स्तंम्भें व रचनात्मक सामग्रियों से पूर्ण ‘शब्दिता’ में हमारे गांव, कस्बों, जनपदों की माटी की सुगंध है। इस कथित आधुनिकता के दौर में इसे सचेतन रूप से बिसरा दिया गया है। पत्रिका इसी सुगंध का अस्वादन कराती है। आज साहित्य व सारा प्रचार जिस तरह बड़े शहरों और महानगरों में केन्द्रित या सीमित हुआ है, ऐसे में गांवों, कस्बों में योगदान करने वाले उपेक्षित हुए हैं। इन उपेक्षितों तथा इनके कार्यों को समाने लाना और इनसे हिन्दी पाठकों को परिचित कराना जरूरी कार्य है। 104 पृष्ठों की इस पत्रिका की कीमत तीस रुपये है तथा संपर्क पता है: डॉ कमलेश राय, डी सी एस के पी जी कॉलेज, मऊनाथ भंजन, मऊ, उ0प्र0, मो - 9450758766, 9721719736

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 9807519227 
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