नेल्सन मंडेला , जैनुल आबेदीन, बलराज साहनी , रेशमा , फारूख शेख और अमरकांत को समर्पित
तीसरा बनारस फिल्मोत्सव / पहला दिन
22 फरवरी , 2014
इंटर नेशनल हिन्दू स्कूल , नगवा , वाराणसी
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प्रतिशोध नहीं प्रतिरोध का सिनेमा
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जिन्दगी की जंग हथियार से नहीं हौसलों से लड़ी जाती ! यह बात शनिवार को तब सौ फीसदी सही साबित हुई जब अचानक बदले मौसम के बावजूद अपनी पूरी गहमागहमी के साथ तीसरा बनारस फिल्मोत्सव शुरू हुआ. पहले दिन की शुरूआत स्मारिका के विमोचन व उद्घाटन सत्र से हुई. जिसमें मुख्य रूप से ‘द ग्रुप’ के राष्ट्रीय सयोंजक संजय जोशी, फिल्म निर्देशिका सबा दीवान, फिल्मकार एम. गनी, नाटककार राजेश कुमार, हिंदी आलोचक बलिराज पांडे, बनारस फिल्म सोसायटी के सचिव वी के सिंह व संयोजक सौरभ माहेश्वरी आदि शामिल रहे. जबकि सत्र का संचालन मिताली गुप्ता व रवि कृष्ण त्रिपाठी ने किया.
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की अवधारणा के बारे में बताते हुए राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने कहा कि लगभग 9 सालों पहले जब एक गैर फिल्मी शहर गोरखपुर से इस अभियान की शुरूआत हुई थी तो कभी यह ख्याल भी नहीं आया था कि यह एक आन्दोलन बन जायेगा. लेकिन हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते गये वैसे-वैसे परेशानियाँ तो बढीं लेकिन हौसला बढ़ाने वाले लोग इस अभियान से दोगुने हौसले से जुड़े. संजय जी विशेष जोर दे कर कहा ‘जो हो रहा है और जो नहीं हो रहा है’, उसके बीच की पॉलिटिक्स को भी समझने की जरूरत है क्योंकि तत्कालीन साम्राज्यवादी व पूंजीवादी मॉडल जो कर रहा है हमें उसके खिलाफ ही ‘सबकुछ करना है’. आज के दौर में सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिरोध करने वाली फिल्मों को दिखाने के लिए कोई जगह नहीं है. जबकि सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघरों पर पीवीआर जैसे कार्पोरेटर घात लगाये बैठे रहते हैं. ऐसे में ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ बिना किसी स्पांसरशिप के विशेष तरह की फिल्मों को दिखाने का एक सामाजिक अभियान बन गया है. इसके अलावा जो लोग इस अभियान को प्रतिशोध जैसे नकारात्मक शब्द से जोड़ रहें हैं उनके लिए हमारा यह 36वां आयोजन, हमारे बढ़ते अभियान का एक महत्वपूर्ण जवाब भी है. क्योंकि ‘यह प्रतिशोध का सिनेमा नहीं प्रतिरोध का सिनेमा’ है. इस मौके पर संजय जी ने सिनेमा को साहित्यक विधाओं के परिप्रेक्ष्य में महाकाव्य की अनुभूतियों से जोड़ा तो दूसरी तरफ इस अभियान को घर-घर पहुँचाने की बात कही.इस मौके पर फिल्म निर्देशिका सबा दीवान ने कहा कि मुझे कई बार संजय जी का बुलावा आया लेकिन मैं आ न सकी लेकिन जब बुलावा बनारस से आया तो कैसे नहीं आती. बनारस तो मेरे घर जैसा है. वहीं, उन्होंने फिल्मोत्सव में दिखायी जाने वाली अपनी फिल्म ‘द अदर सांग’ के बारे में बताते हुए कहा कि यह फिल्म बनारस की संगीत संस्कृति को करीने से दिखाती है. जिसमें समाज में तवायफों की स्थिति व उनके योगदान को रेखांकित किया गया है.
सत्र का उद्घाटन वक्तव्य देते हुए नाटककार राजेश कुमार ने कहा कि हम समाज में प्रतिरोध की राजनीति करते हैं. जबकि मुम्बईया सिनेमा पलायनवादी रुख अख्तियार किये हुए है. तब यह सवाल उठता है कि उन चीजों को कौन दिखायेगा जो समाज में छूट रहा है. आज के दौर में निश्चित ही विज्ञान ने फिल्म बनाना आसन कर दिया है और यही कारण है कि आज प्रतिरोध का सिनेमा निरंतर आगे बढ़ रहा है. जहाँ तक प्रतिरोध की संस्कृति की बात है तो हर दौर में रचनाकार और कलाकार अपनी कला के माध्यम से प्रतिरोध करते रहे हैं. जैनुल आबेदीन की बनायी कलाकृतियाँ और आनंद पटवर्द्धन का गोरिल्ला सिनेमा इसके सशक्त उदाहरण हैं. राजेश जी ने आशा जताते हुए कहा कि जल्द ही नुक्कड़ नाटकों की तरह ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ भी हालों से निकल कर आम जनों के बीच लोकप्रिय हो जाएगा. बनारस फिल्म सोसायटी के सचिव वीके सिंह ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अपनी नजर में एक नजरिया लेकर देंखें. क्योंकि ‘कल लाने की पहली शर्त है आज पर सवाल उठाना’. साथ ही हमें इस बात का विशेष ख्याल रखना है कि प्रतिरोध करने वाले अपना रास्ता खुद बनाते हैं.
दो दिवसीय तीसरे बनारस फिल्मोत्सव में पहली प्रस्तुति बनारसी संगीत और तवायफों पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म “ द अदर सॉंग’ रही. इस डाक्यूमेंट्री को देखने के बाद डेढ़ सौ से ज्यादा दर्शकों से फिल्म की निर्देशिका सबा दीवान ने संवाद किया. इस दौरान दर्शकों ने जम कर सवाल-जवाब किये. सबा जी ने विभिन्न सवालों के जवाब देते हुए राग भैरवी व विभिन्न रागों आदि के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला. वहीं, इस मौके पर विशेष रूप से उपस्थित हुए इस डाक्यूमेंट्री फिल्म से जुड़े कृष्ण कुमार रस्तोगी जी ने कहा कि आजकल कोई भी डायरेक्टर किसी भी कलाकार के जन्म और मृत्यु पर फ़िल्में बनाते हैं जबकि सबा जी कि फिल्म किसी कलाकार की रचना से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाती है. सवाल-जवाब के सत्र के बाद फिल्म निर्देशिका सबा दीवान जी को सोसायटी के कोषाध्यक्ष बलिराज जी ने स्मृति-चिन्ह देकर सम्मानित किया.
दुपहर के सत्र में पहले दिन संजय जोशी ने ‘ जन संघर्ष और नए कैमरे की भूमिका’ पर व्याख्यान दिया और गया से पधारे युवा कवि अनुज लुगुन का कविता पाठ भी हुआ. शाम के सत्र में संजय जोशी ने ओडिशा में चल रहे जन संघर्षों को केंद्र करके नियामगिरि और दूसरे इलाकों से सम्बन्धित लघु फिल्में दिखाई जिन्हें केबीके समाचार और विडिओ रिपब्लिक ने निर्मित किया है.शाम के सत्र में एम् एस सथ्यू निर्देशित ‘ गरम हवा ’ दिखाई जिसका परिचय देते हुए नाटककार राजेश कुमार ने इसे विस्थापन पर बनी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म बताया.
पहले दिन का समापन संजय जोशी द्वारा निर्देशित डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘कहानीकार अमरकांत “ का प्रदर्शन हुआ जिसके जरिये दर्शक हिंदी के कथाकार अमरकांत के कहानीकार बनने की प्रक्रिया से रूबरू हुए .बनारस फिल्म सोसाइटी के युवा सद्ययों के परिचय के साथ तीसरे बनारस फ़िल्मोत्सव के पहले दिन का समापन हुआ.फ़िल्मोत्सव के मौके पर कला कम्यून, बनारस और संभावना कला मंच, गाजीपुर के कलाकारों द्वारा तैयार की गयी कविता चित्र प्रदर्शनी और साज सज्जा को दर्शकों की खूब सराहना मिली. जैनुल आबेदीन की शताब्दी के बहाने चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा संयोजित प्रदर्शनी “ जन चेतना के चितेरे “ और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा खींची तस्वीरों ने भी दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया.लंच और टी ब्रेक में भारी संख्या में दर्शकों ने जनमत और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टालों से फिल्मों की डी वी डी, किताबों और कविता पोस्टरों की खरीददारी की.
दूसरे दिन रही सबसे ज्यादा चर्चा
तीसरे बनारस फिल्म महोत्सव का दूसरा दिन, सवालों का दिन रहा. रविवार को मौसम तो साफ़ रहा लेकिन महोत्सव में प्रदर्शित हुई फिल्मों ने दर्शकों के मन में जबरदस्त सवाली बादलों को जन्म दिया. तीसरे बनारस फिल्मोत्सव के दूसरे दिन एंगस गिब्सन और जो मेनेल निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म मंडेला दिखाई गयी. जो नेल्सन मंडेला के जीवन संघर्ष और साउथ अफ्रीका की आजादी को रेखांकित करती है. इस फिल्म को लगभग दो सौ घंटे की वास्तविक वीडियो फुटेज और सौ घंटे की आर्काइव सामग्री के सहयोग से बनाया गया है. कई वैश्विक सम्मान पा चुकी यह दस्तावेजी फिल्म 1997 में सर्वोतम डाक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में अकादमी पुरस्कार के लिए भी नामित हो चुकी है. ‘लोकतंत्र के प्रतिक’ नेल्सन मंडेला की पूरी जीवन यात्रा पर आधारित 114 मिनट की यह फिल्म उनके बचपन, शिक्षा, २७ वर्ष तक जेल प्रवास व रंगभेद के संघर्ष को रेखांकित करती है.
महोत्सव की दूसरी फिल्म सुरभि शर्मा द्वारा निर्देशित ‘बिदेसिया इन बम्बई’ रही. यह फिल्म अपने विशेष रचनात्मकता के जरिये भोजपुरी संस्कृति और ‘शहरीपन की राजनीतिक परिदृश्य’ को एकदम नये तरीके से पर्दे पर उकेरती है. साथ ही फिल्म बम्बई के माहौल की राजनीतिक आलोचना भी करती है. फिल्म इसके लिए ‘बिदेसिया’ समाज के लोगों पर फोकस करते हुए उनके जीवन संघर्ष को नये नजरिये से सेल्युलाइड पर उतारती है.इसके बाद जिस डाक्यूमेंट्री फिल्म क्लिपिंग ‘मुजफ्फरनगर टेस्टमोनियल’ की सबसे ज्यादा चर्चा थी उसका प्रदर्शन किया गया. इस प्रदर्शन के बाद विशेष तौर पर बनारस आये एम गनी ने दर्शकों से संवाद किया. इस दौरान दर्शकों ने मुजफ्फरनगर दंगो की कलई खोलती इस फिल्म को आधार बना अपने सवालों की झड़ी लगा दी. सवालों के जवाब देने के क्रम में फिल्म के कैमरा परसन एम गनी ने प्रतिरोध की संस्कृति और उससे जुड़े अभियानों पर भी अपना विस्तृत नजरिया रखा.
इस वर्ष के फिल्म महोत्सव में बनारस के युवा फिल्मकारों को भी अपनी प्रतिभा को जनता के बीच प्रदर्शित करने का मौका दिया. प्रयोगधर्मी फिल्मो के सत्र में बनारस के युवा फिल्मकारों की 8 फिल्में प्रदर्शित की गयी. विवेक सिंह की “आखिरी चिठ्ठी”, विक्रम, सौम्य, शैवाल व बोनी की “कागज़ की कश्ती”, अतुर अग्रवाल की “द जर्नी ऑफ़ लाइफ”, मुकेश तिवारी की “दिलीप”, रोहिताश की “खौफ-द टेरर”, हिबा फरहीन, अंजू कुमारी, एलेना मलोवा की “साड़ी वीविंग”, निमित सिंह की “ए वर्ल्ड विदआउट बाउंड्री” एवं पंकज चौधरी की “घरियाल कंजर्वेशन” डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई गयी. फिल्मोत्सव की अंतिम फिल्म ईरानी फिल्मकार बहमान घोबादी की “हाफ मून” रही. बहमान घोबादी ईरानी सिनेमा के नयी धारा के प्रतिनिधि माने जाते हैं. ११४ मिनट की “हाफ मून” में बहमान लालफीताशाही व देहाती संस्कृति के ज़रिये एक बूढ़े व्यक्ति के जीवन संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीके से दिखाते हैं. फिल्म कई जगह ईराक-ईरान को बांटने वाली सीमा रेखा पर भी सवाल उठाती है. पीपुल्स च्वायस अवार्ड सहित दर्जनों इंटरनेशनल पुरस्कारों से नवाजी गयी इस फिल्म में ईरान के नामचीन कलाकारों ने काम किया है.
फिल्मोत्सव का समापन बनारस फिल्म सोसायटी से जुड़े युवा कलाकारों के जनगीतों की प्रस्तुति के द्वारा हुआ. जनगीतों में साहिर लुधियानवी का ‘ये किसका लहू है ये कौन मरा’, गोरख पांडे का ‘समाजवाद का गीत’ व शलभ श्रीराम सिंह का ‘इंकलाबी गीत’ शामिल रहा. समापन के मौके पर गाजीपुर से पोस्टर प्रदर्शनी लेकर आये संभावना कला मंच, इंटरनेशनल हिन्दू स्कूल व फोटो एक्जीबिसन के प्रस्तुतकर्ता को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. अंतिम में चौथे बनारस फिल्मोत्सव के वादे और सोसायटी के सदस्यों के परिचय से महोत्सव संपन्न हुआ. दूसरे दिन का संचालन दिव्यांशु श्रीवास्तव ने किया.
मीडिया टीम ,
तीसरा बनारस फ़िल्मोत्सव ,
प्रतिरोध का सिनेमा
9415659631, 9452499029
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