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महान कथाकार अमरकांत को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि

17 फरवरी को सुबह 9. 30 बजे हिंदी के महान कथाकार अमरकांत ने जिंदगी की अंतिम सांसें लीं। वे 88 साल के थे। एफ-6, पंचपुष्प अपार्टमेंट, अशोक नगर, इलाहाबाद स्थित उनके आवास पर शोक व्यक्त करने वाले साहित्यकारों और आम नागरिकों का तांता लगा रहा। आज दोपहर बाद उन्हें अंतिम विदाई दी गई।अमरकांत अपनी सादगी, सहजता और आत्मीय-स्नेहिल व्यवहार के लिए हमेशा याद आएंगे। अभावों, बीमारियों और उपेक्षाओं के बावजूद उनके व्यक्तित्व की सरलता हमेशा बनी रही और उन्होंने अपने आत्मसम्मान से कभी समझौता नहीं किया। 

अमरकांत स्वांतत्र्योत्तर भारत के जटिल यथार्थ और बहुविध द्वंद्वों से घिरे समाज के जीवन व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले कथाकार रहे हैं। प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी कथा-परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया और नई कहानी आंदोलन के दौर में भी वे उन्हीं साहित्यिक मूल्यों के साथ रहे। जो लोग प्रेमचंद से छुटकारा पाने को ही हिंदी कहानी की अग्रगति और नयेपन की पहचान बता रहे थे, अमरकांत उनके साथ नहीं थे। जीवन जगत से ली गई नवीन उपमाएं, जनपदीय मुहावरे, खरी चलती हुई जुबान, कथन-भंगिमा, गहन सामाजिक संवेदनशीलता और गहरी मनोवैज्ञानिक समझ उनकी रचनाओं की खासियत रही है। उनकी रचनाओं की सीधी सपाट बुनावट के भीतर गहरे अर्थसंदर्भ, समाज और देश की दशा-दिशा और उसके भविष्य के अत्यंत यथार्थपरक मूल्यांकन और संकेत मिलते हैं। इसके साथ-साथ समाज और दुनिया को आगे ले जानेवाली बातों और भाव-संरचनाओं का गहरा विवेक भी उनकी रचनाओं में घुलामिला नजर आता है।

‘जिंदगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र मिलन और अन्य कहानियां’, ‘दुख-सुख कथा’, ‘कुहासा’, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’, ‘कलाप्रेमी’, जांच और बच्चे’ अमरकांत के प्रमुख कहानी संग्रह हैं। अगर उनकी सारी कहानियों को छोड़ भी दिया जाए, तो सिर्फ ‘दोपहर का भोजन’, ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘जिंदगी और जांेक’ और ‘हत्यारे’ जैसी कहानियां ही उन्हें दुनिया के किसी भी महान कथाकार के समकक्ष खडा करने में समर्थ हैं। अमरकांत ने ‘सूखा पत्ता’, ‘आकाश पक्षी’, ‘विदा की रात’, ‘लहरें’, ‘कंटीली राह के फूल’, ‘सुन्नर पांडे की पतोहू’, ‘काले उजले दिन’, ‘बीच की दीवार’, ‘ग्राम सेविका’, ‘इन्हीं हथियारों से’ इत्यादि उपन्यासों की भी रचना की। 

आलोचक रविभूषण ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘‘जिंदगी और जोंक’ का रजुआ ‘कफन’ के घीसू-माधो का सगा-संबंधी दिखाई पड़ता है। रजुआ की जिंदगी पशु की है। स्वतंत्र भारत का वह पात्र भारत की स्वतंत्रता पर प्रश्न-चिह्न है।’’ रजुआ, मुनरी, मूस, सकलदीप बाबू, ‘इन्हीं हथियारों से’ की बाल-वेश्या ढेला, सुन्नर पांडे की पतोह, बऊरईया कोदो खानेवाला गदहा जैसे अनगिनत अविस्मरणीय और विश्वसनीय किरदारों के जरिए अमरकांत ने हमारे समाज की हजारहा विडंबनाओं को जिस तरह मूर्त किया है वह हिंदी कथा-साहित्य की बेमिसाल उपलब्धि है। खासकर भारतीय मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग की खामियों और खूबियों को उन्होंने बड़े ही विश्वसनीय तरीके से अपनी रचनाओं में दर्ज किया है। यही वह वर्ग है जो प्रशासनतंत्र, नौकरशाही और शासकवर्गीय राजनीति की अगली कतार में रहता रहा है, इसकी संवेदनहीनता, मक्कारी, अवसरवाद और मूल्यहीनता किसी जनविरोधी व्यवस्था के लिए किस कदर मददगार हो सकती है, साठ के दशक में लिखी गई अमरकांत की कहानी ‘हत्यारे’ में इसके बड़े स्पष्ट संकेत देती है। अभी दिसंबर 2013 में ही जनसंस्कृति मंच, कथा समूह के पहले कथामंच आयोजन में इस कहानी पर काफी विस्तार से चर्चा हुई थी। आज जिस तरह एक हत्यारे का देश में भावी प्रधानमंत्री के तौर पर गुणगान चल रहा है और उसे मध्यवर्ग का नायक बनाया जा रहा है, उसके संदर्भ से देखें तो यह कहानी मानो ऐसे हत्यारों के निर्माण की प्रक्रिया की शिनाख्त करती है। गौर करने की बात यह है कि अमरकांत इस चिंतित करने वाले यथार्थ के समक्ष वैचारिक-सैद्धांतिक रूप से समर्पण करने वाले लेखक नहीं हैं। विचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर उनका जीवन एक प्रतिबद्ध प्रगतिशील लेखक का जीवन था। 1942 के आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए उनके उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ का एक अदना सा पात्र कहना है- ‘‘बड़ी-बड़ी बातें, बड़े-बड़े सिद्धांत सिर्फ व्यवहार से ही सार्थक और सहज हो सकते हैं, जिसके बिना जीवन से ही रस खींचकर गढ़े हुए सिद्धांत जीवन से अलग होकर बौने और नाकाम हो जाते हैं।’’ अमरकांत का जीवन और रचनाकर्म खुद इसकी तस्दीक करता है।  

मानव मुक्ति के संघर्षों के प्रति अमरकांत की आस्था कभी कम नहीं हुई। ‘इन्ही हथियारों से’ का ही एक पात्र सुरंजन शास्त्री अपने भाषण में कहता है- ‘‘आप इसे आजादी की आंधी कहिए, गांधी की आंधी कहिए, बुढ़िया आंधी काहिए, महा आंधी काहिए, मनुष्य के इतिहास की यह सुपरिचित आंधी है .हाँ, यह प्राचीनतम आँधी है। मानव इतिहास में यह अक्सर आई है। जहां गुलामी है, जहां जुल्म है, अन्याय है, तानाशाही है, वहां बार-बार  है। मुक्ति की आँधी है यह। यह कभी फ्रांस में आयी, कभी रूस में. अन्य देशों में भी वह आ चुकी है. 1857 में भी हमारे देश में आयी थी.......आगे बढिए, आजादी की महा-आँधी आने का गंगा हुलसकर स्वागत कर रही है, तरंगित हो रही है और चिरैय्या ढोल बजा रही है-क्योंकि यह गुलामी को मिटाकर आजाद, शोषणहीन समाज बनाने का संकल्प लेकर आ रही है।’’ उपन्यास में तो यह पंक्तियाँ एक खास सन्दर्भ में हैं, लेकिन अमरकांत के कथाकार ने सारी उत्तरवादी और अन्तवादी घोषणाओं के तुमुल में इतिहास की मुक्ति की आँधियों में यकीन कभी नहीं खोया। चर्चा, आयोजन, प्रायोजन से दूर रहे अमरकांत को बीमारी, पत्रकार जीवन की अनिश्चितताएं, पैसे की तंगी और उनके रचनाकार की साहित्य-प्रतिष्ठान द्वारा उपेक्षा तोड़ न सकी। 16 की उम्र में पढ़ाई छोड़ 1942 के ‘भारत छोडो आन्दोलन’ में कूद पड़ने वाले अमरकांत ने संघर्ष की राह कभी छोड़ी ही नहीं।

अमरकांत जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के भगमलपुर नामक गांव में 01 जुलाई 1925 को हुआ था। भारत छोड़ो आंदोलन समाप्त होने के बाद उन्होंने बलिया से इंटर किया और बीए के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गए। उन्होंने आगरा से लेखन और पत्रकारिता के अपने सफर की शुरुआत की थी। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली ‘मनोरमा’ के संपादन से वे लंबे समय तक जुड़े रहे। ‘सैनिक’ और ‘माया’ में भी उन्होंने कार्य किया। लगभग चालीस वर्षों तक कई पत्रिकाओं में लेखन और संपादन करने के पश्चात कई वर्षों से स्वतंत्र रूप से लेखन और ‘बहाव’ नामक अपनी पत्रिका का संपादन कर रहे थे। ‘कुछ यादें और बातें’ और ‘दोस्ती’ नाम से उनकी संस्मरणों की भी दो पुस्तके प्रकाशित हैं। अमरकांत हिंदी के उन गिने चुने कथाकारों में से हैं, जिन्हांेने बच्चों के लिए भी साहित्य की रचना की। ऐसी पुस्तकों में ‘दो हिम्मती बच्चे’, ‘बानर सेना’, ‘नेउर भाई’, ‘खूंटा में दाल है’, ‘सुग्गी चाची का गांव’, ‘झगरू लाल का फैसला’, ‘बाबू का फैसला’, ‘एक स्त्री का सफर’ आदि प्रमुख हैं। 

‘इन्हीं हथियारों से’ उपन्यास के लिए अमरकांत जी को 2007 में साहित्य अकादमी और समग्र लेखन के लिए 2009 में ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। व्यास सम्मान, पहल सम्मान, जन संस्कृति सम्मान, यशपाल पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार समेत कई पुरस्कार और सम्मान उन्हें मिले। उनके छोटे बेटे अरविंद और बहू रीता की बहुत बड़ी भूमिका रही कि उन्होंने अपनी स्वतंत्र जिंदगी छोड़कर हिंदी समाज के इतने अप्रतिम कथाकार को हमारे बीच लंबे समय तक भौतिक रूप से बनाए और बचाए रखा। अमरकांत जी अपने साहित्य और साहित्य व विचार के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता के कारण हमारे लिए हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। उन्हें जन संस्कृति मंच की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि। 

जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी

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