'' परिवर्तन के प्रति हम उन्मुक्त नहीं हो पा रहे हैं और खुलेपन का अभाव नई सदी की सबसे बड़ी चुनौती है।''- प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल
उदयपुर।
डॉ नवीन नंदवाना की संपादित पुस्तक का विमोचन करते हुए अतिथि |
23 जनवरी।
हिन्दी के विख्यात आलोचक और साहित्यकार प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि परिवर्तन के प्रति हम उन्मुक्त नहीं हो पा रहे हैं और खुलेपन का अभाव नई सदी की सबसे बड़ी चुनौती है। प्रो. अग्रवाल मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने सभी मानवीय कलाओं और अभिव्यक्तियों में साहित्य को सबसे ज्यादा मानवीय बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि साहित्य का माध्यम भाषा है और भाषा प्रत्येक मनुष्य के पास होती है। उन्होंने कहा कि लोक-लाज का भय समाज के व्यवहार को नियमित करता है। आज का मनुष्य आत्ममुग्ध होता जा रहा है। आत्ममुग्धता का सुख बहुत घातक है। परिवर्तनों की गति अत्यंत तीव्र है। सूचना प्रोद्यौगिकी के कारण दूरियाँ कम हुई है लेकिन इसने भाषा को उसके वास्तविक अर्थों से दूर कर दिया है। उन्होंने भाषा के स्वरुप में परिवर्तन को नई सदी की प्रमुख चुनौतियों में से एक बताया। उन्होंने प्राचीन युनान के सुकरात के मुकदमे का उदाहरण देकर बताया कि प्राचीन यूनान के नैतिक पतन का मापदण्ड भी शब्दों का अर्थ भ्रष्ट हो जाना ही था। उन्होंने फुकोयामा और काल्विनो की पुस्तकों के हवाले से कहा कि मनुष्य यदि भाषा और साहित्य के संस्कारों से दूर होता गया तो वह शीघ्रता से पशुता के नजदीक पहुँच जाएगा। उन्होंने कहा कि लोकप्रिय होना किसी भी रचना के साहित्यिक होने का प्रमाण नहीं है। चेतन भगत और अमिताभ घोष की परस्पर विपरीत मानकों के आधार पर लिखी गई रचनाएँ हैं। उन्होंने नई सदी के मूल्यांकन के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकन शैली के अंधानुकरण करने की आलोचना की। उन्होंने आधुनिक समाज में मनुष्य के लिए साहित्य की महत्ता को रेखांकित किया और कहा कि साहित्य मनुष्य के एकांत का रुपक है।
संगोष्ठी के द्वितीय आधार सत्र में डॉ. हेतु भारद्वाज ने कहा कि आज के समय में वस्तुओं का महत्व बढ़ गया है। नयी सामाजिक संरचना में आर्थिक जगत का हस्तक्षेप बढ़ गया है। उन्होंने सभ्यता के इतिहास और मानवीय मूल्यों के संदर्भ में नई शताब्दी को बहुत चुनौतीपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन के दौर में जो पाश्चात्यीकरण की प्रवृत्ति शुरु हुई वह आज तक जारी है। इस अंधानुकरण में हमने स्वयं को लगातार दोयम दर्जै पर रखा और पश्चिम की नकल करते रहे। इस नकल में हमने अपने सभी वांछनीय जीवन मूल्य भी खो दिए।
सत्र के अन्य वक्ता साहित्यकार और विचारक सी.पी. देवल ने कहा कि हमें भाषा की दुर्दशा के विषय में विचार करने की आवश्यकता है। उन्होंने चिंता जताई कि यह समय हमें अपनी जड़ों से दूर ले जा रहा है। आज यह बड़ी चुनौती है कि मनुष्य अपने अतीत और इतिहास से काट दिया गया है। सब कुछ समकालीन सा है। उसकी खुशी में उत्सवप्रियता के अंशों पर बाजार ने कब्जा जमा लिया है। संगोष्ठी में डॉ नवीन नंदवाना के संपादन में प्रकाशित आलोचना की पुस्तक ’’ समकालीन कविता: विविध संदर्भ’’ और विभाग के डॉ. आशीष सिसोदिया के रिसर्च जर्नल ’नव सृजन’ का विमोचन किया गया ।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में प्रो. शरद श्रीवास्तव ने कहा कि आज के दौर में भाषाओं की परिधियाँ समाप्त हो गई है न केवल उत्तर भारत में बल्कि दक्षिण भारत की भाषाओं में भी अंग्रेजी के शब्दों की संख्या बढ़ती जा रही है। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज का मनुष्य अपने कार्य और उद्देश्य तक ही केन्द्रित हो गया है। परिवर्तन के इस दौर में मानविकी विषयों और अनुशासन को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस अवसर पर फैकल्टी चैयरमैन प्रो. मीना गौड़ ने कहा कि साहित्य के सामने तो हर युग में चुनौतियाँ रही है। लेकिन मानवता को निराश होने की आवश्यकता नहीं है युग की स्थितियाँ स्वयं में उस युग की चुनौतियों का सामना करने वाले रचनाकारों को तैयार कर देती है। उन्होंने कहा की इतिहास गवाह है कि यदि साहित्य ने चुनौतियों को नहीं स्वीकार किया होता तो फ्रांस की क्रांति नहीं होती और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन और नवजागरण में भी बंकिमचन्द्र, प्रेमचंद और सुब्रहमण्यम आदि रचनाकारों का योगदान अविस्मरणीय है। संगोष्ठी के अंतिम सत्र में काव्य-पाठ का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मंजु चतुर्वेदी, ज्योति पुंज, भगवतीलाल व्यास और किशन दाधीच ने समकालीन युगबोध से सम्पन्न कविताओं का पाठ किया।
संगोष्ठी के संचालक डॉ नवीन नंदवाना ने बताया कि संगोष्ठी के दूसरे दिन शुक्रवार को विख्यात रचनाकारों मनीषा कुलश्रेष्ठ, डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर और डॉ. दुष्यंत का रचना पाठ आयोजित किया जाएगा। इसके साथ ही तकनीकी सत्रों में विषय विशेषज्ञ वक्तव्य देंगे और देशभर से आए शोधार्थी पत्र-वाचन करेंगे।
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