विगत 15 फरवरी को मराठी दलित साहित्य के पुरोधा और दलित पैंथर आंदोलन के संस्थापक सदस्य चर्चित कवि नामदेव ढसाल ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वे लम्बे समय से बीमार थे, लेकिन निरन्तर सक्रिय भी थे।नामदेव ढसाल सिर्फ मराठी ही नहीं, बल्कि समूची भारतीय कविता के सबसे बड़े विद्रोही कवियों में से एक कहे जा सकते हैं और शायद विवादस्पद भी। उन्होंने अपनी धारदार भाषा, नग्न यथार्थवादी काव्य संवेदना और रेडिकल अम्बेडकरवादी राजनैतिक दर्शन के बल पर मराठी कविता के रूप व तेवर को पूरी तरह बदल डाला। दलित रचनाशीलता के इस विद्रोही तेवर ने अन्य भारतीय भाषाओं की कविता को भी गहरे तक प्रभावित किया। हिंदी में दलित साहित्य की उग्रता और परम्पराओं से विच्छेद के लिए नकार का पुरजोर स्वर मराठी दलित कविता से ही अर्जित की गयी है जिसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नामदेव ढसाल की उपस्थिति रही है।
नामदेव ढसाल का जन्म 15 फरवरी 1949 ई॰ को पुणे के एक गाँव पुर-कनेरसर में हुआ। उनका बचपन बम्बई के रेडलाइट एरिया गोलपीठा में बीता। गोलपीठा की गलियों में वे जिंदगी की नंगी सच्चाइयों को अपनी आँखों से देखा और उन्ही के बीच बड़े हुए। महाराष्ट्र की दलित जाति महार में पैदा होने और निर्धनता के कारण उपेक्षा के दंश को उन्होंने कई स्तरों पर झेला। यही उपेक्षा उनके रचनात्मक व राजनैतिक ऊर्जा का स्रेात बनीं। शायद यही वजह रही होगी कि उन्होंने अपने पहले कविता संग्रह का नाम ही रखा- गोलपीठा। इस संग्रह में संकलित‘गोलपीठा’ कविता ने उन दिनों मराठी साहित्य में भूचाल ला दिया था।
उनका जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा। फाइन आर्ट में एक वर्षीय डिप्लोमा करने के बाद जीवन-यापन के लिए टैक्सी ड्राइवर की नौकरी करनी पड़ी, अन्य कई छोटी-मोटी नौकरियाँ उन्होंने कीं।अम्बेडकरवादी विचारधारा में तो वे स्वाभाविक रूप से दीक्षित हुए ही डॉ॰लोहिया से भी वे प्रभावित हुए। लोहिया के समाजवादी विचार से मार्क्सवादतक यात्रा उन्होंने की।70 के दशक के शुरूआती वर्षों में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया (आरपीआई )नेतृत्व के विपथन व अवसरवाद से निराश होकर तथा नक्सलवादी आन्दोलन की ऊष्मा से प्रभावित होकर उन्होंने सुनील दिघे जैसे कुछेक मित्रों के साथ मिलकर दलित पैंथर आंदोलन की शुरूआत की। जिसका नामकरण अमेरिका के ब्लैक पैंथर आंदोलन की तर्ज पर किया गया। दलित पैंथर भारत में रेडिकल दलित आंदोलन का अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ाव है। इस आंदोलन ने दलित उत्पीड़न का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए सशस्त्र प्रतिरोध की रणनीति को अमल में लाया जो पूरे देष में चर्चा का विषय बना।
बाद के दिनों में नामदेव ढसाल खुद वैचारिक-राजनैतिक विभ्रम के शिकार हुए। रेडिकल अम्बेडकरवाद से मुँह मोड़कर उन्होंने जे.पी. के सम्पूर्ण क्रान्ति का समर्थन किया। यहाँ तक कि वे शिवसेना जैसे उग्र हिंदुत्ववादी संगठन के साथ चले गए। रेडिकल, वाम व लोकतांत्रिक दायरे के लिए उनका यह विपथन निश्चय ही स्वीकार्य नहीं रहा। अपनी पीढ़ी के बहुतेरे प्रगतिशील-जनवादी तथा अम्बेडकरवादी लेखकों-साहित्यकारों से उनका सम्बन्ध, विष्णु खरे के शब्दों में, ‘समस्यामूलक मित्रवत या भातृवत्’ रहा है।नामदेव का साहित्यिक व राजनीतिक सक्रियता लगभग साथ-साथ चलती हैं। राजनीतिक क्षेत्र में वे जितने विवादास्पद रहे उससे कहीं ज्यादा विवाद उन्होंने अपनी कविताओं से पैदा किए।
अपनी कविताओं में उन्होंने धर्म, आस्था, आजादी, लोकतंत्र जैसे वर्चस्वशाली विचार व संस्थाओं की हिप्पोक्रेसी के खिलाफ अपनी घृणा और आक्रोश को पूरी शिद्दत और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त किया। महाराष्ट्र के सबसे गरीब आदमी के घृणा व नकार की भाषा को उन्होंने मराठी दलित कविता की सर्वमान्य भाषा में तब्दील कर दिया। जैसा कि विष्णु खरे कहते हैं-“उसने गैर-दलित साहित्यिक प्रतिष्ठानों का विवश किया कि उसके जैसी कविता को ही समसामयिक मराठी मुख्यधारा मान लिया जाए। उन्होंने मराठी दलित कविता को अमानवीय जाति-व्यवस्था के खिलाफ याचना व आत्मदया के भाव से बाहर निकालकर कविता को जाति-व्यवस्था के खिलाफ प्रहार के हथियार में तब्दील कर दिया।
उन्होंने साहित्य के सर्वथा पवित्र क्षेत्र से हमेशा से अपवंचित कर दिए गए गंदगी के प्रतीकों, नग्न और जुगुप्साजनक बिंबों-फैंटसियों को कविता में इस्तेमाल किया क्योंकि वही समाज के एक बडे हिस्से का सच है। उन्होंने विद्रोह के किसी कृत्रिम-बनावटी सौन्दर्यबोध से काम नहीं चलाया, बल्कि हाशिए की सच्चाई को समाज की आँखों में ऊँगली डालकर दिखाने का प्रयत्न किया, इस तरह वे कविता को साहित्य के निषिद्ध क्षेत्र में ले आए। इसने कविता के क्षेत्र में व्यापक तोड़-फोड़ मचायी जिससे बाद की कविता ने बहुत कुछ सकारात्मक तत्व ग्रहण किया।
अपनी कविता ‘मेरी प्रिय कविता’ में वे कहते हैं-
“मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप
फिर मेरी कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से
आदमी के साथ ऊंगली पकड़ कर,
मुट्ठी भर लोगों के सांस्कृतिक एकाधिपत्य से किया
मैंन जिन्दगी भर द्वेष
द्वेष किया मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,
नहीं रंगे मैंने चित्र जिन्दगी के।
सामान्य मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,
प्रेम करता रहा मैं, पशुओं से, कीड़ों और चीटियों से भी,
मैंने अनुभव किए हैं, सभी संक्रामक और छुतही रोग-बिमारियां
चकमा देने वाली हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियंत्रण में
सत्य-असत्य के संघर्ष में खो नहीं दिया मैंने खुद को
मेरी भीतरी आवाज, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच के शब्द
मैंने जीने को रंगों से नहीं, संवेदनाओं के कैनवस पर रंगा है।”
उनके कुल ग्यारह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- गोलपीठा-1972, मूर्खम्हातान्याने डोंगर हलवले-1975, आमच्या इतिहासतील एक अपरिहार्य पात्र: प्रियदर्शिनी-1976, तुही यत्ता कंची-1981, ढोल-1983, गांडू बगीचा-1986, या सत्तेत जीव रमत नाही, मी मारले सूर्याच्या रथाचे घोडे सात, तुझे वोट धरून चाललो आहे, इसके अलावा उन्होंने उपन्यास, नाटक जैसे विधाओं में लेखन किया। वे पद्मश्री सम्मान से भी नवाजे गए, अन्य कई पुरस्कार भी उन्हें मिले।
नामदेव ढसाल उत्तर अम्बेडकर समय के उन दलित बुद्धिजीवियों में शुमार हैं जिन्होंने दलित चेतना को नए संदर्भों में देखा-परखा और एक स्तर तक उसका नेतृत्व भी किया। बाद के दिनों का उनका राजनैतिक विपथन उनके भीतर के बेचैन अनास्था की अभिव्यक्ति है या ‘अपना पुराना क्षितिज लांघने की उनकी कोशिश’ इसका विश्लेषण भविष्य में होना ही चाहिए।हम उनकी स्मृति को सलाम करते हैं।
सुधीर सुमन, सह सचिव, जसम द्वारा जारी
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