(कामरेड विमल अटल और कामरेड बलदेव शर्मा स्मृति व्याख्यान-2013)
नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच के तत्वावधान में "पहचान की
राजनीति और वर्ग संघर्ष" विषय पर
कामरेड विमल अटल और कामरेड बलदेव शर्मा स्मृति व्याख्यान का एक दिवसीय आयोजन
एन. डी. तिवारी सभागार, दिल्ली में
8 दिसम्बर 2013 को किया गया. कार्यक्रम की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका के
मुक्तिकामी नायक नेल्सन मंडेला, दलित साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजस्थाननी और
हिंदी के लोक कथाकार विजयदान देथा और 'हंस' के दिवंगत सम्पादक
एवं कथाकर राजेंद्र यादव को सामूहिक रूप
से श्रृद्धांजलि दी गई.
श्रृद्धांजलि से पहले कामरेड आनंद स्वरुप वर्मा ने नेल्सन
मंडेला के साथ अपने एक साक्षात्कार को साझा करते हुए नेल्सन मंडेला के क्रांतिकारी
जीवन और उनके राजनीतिक विचारों को सबके सामने रखा. उन्होंने बताया कि मंडेला
पूर्णत: कम्युनिष्ट समर्थक नहीं थे फिर भी उन्होंने मानना था कि 'दक्षिण अफ्रीकन
कम्युनिष्ट पार्टी' उनके नस्लभेद
विरोधी आंदोलन में उनका साथ दे सकती है। उन्होंने बताया कि सन 1960 जब एक शांतिपूर्ण
प्रदर्शन में अफ्रीकन सरकार ने गोलियां चलाई और उसमे 69 लोग मरे गए तो
मंडेला ने घोषणा कि राज्य की हिंसा का जवाब क्रांतिकारी हिंसा से ही दिया जा सकता
है। तब उन्होंने हथियारबंद तरीके से लड़ाई लड़ने का रास्ता अख्तियार करने कि घोषणा
कर दी. उन्होंने 'अफ्रीकन
नेशनल कांग्रेस'का एक हथियारबंद
लड़ाकू दस्ता तैयार किया, जिसे 'स्पीयर ऑफ़ दी नेशन'का नाम दिया गया. इसके
पहले उनमे हिंसा और अहिंसा के बीच द्वंद्व
चल रहा था. लेकिन यह भी सच है कि नाईजीरिया सरकार द्वारा केन सारो वीवा को फांसी
दिये जाने के मसले पर उन्होंने नाईजीरिया सरकार का विरोध नहीं किया । यह मडेला के
जीवन का एक दुखद प्रसंग है। इसके बाद कवि
आलोचक और सत्यवती कालेज दिल्ली में
हिन्दी साहित्य के एसोसिएट प्रोफेसर मुकेश मानस की आलोचना पुस्तक "दलित
साहित्य के बुनियादी सरोकार " का प्रो० लाल बहादुर वर्मा, प्रो० सरोज गिरि, कामरेड शिवमंगल
सिद्धांतकर, डॉ आनंद स्वरूप
वर्मा ने लोकार्पण किया।
स्मृति व्याख्यान के आरम्भ में मुकेश मानस ने कामरेड विमल अटल
और कामरेड बलदेव शर्मा का सक्षिप्त परिचय दिया। स्मृति व्याख्यान की प्रस्तावना
करते हुए कामरेड शिवमंगल सिद्धांतकर ने कहा कि
'पहचान की
राजीनीति और वर्ग संघर्ष'
विषय
को जिस गहराई से समझने की जरुरत थी उस गहराई से पहले के तमाम अध्येताओं ने नहीं समझा है. मै कहता हूँ कि पहचान की राजनीति भी वर्ग संघर्ष ही है. इसका इतिहास वर्ग संघर्ष
का इतिहास रहा है. हमें इन दोनों के मेल को स्थापित करना चाहिए। हमें अकादमिक लोगों
से इसके मेल के लिए उम्मीद नहीं करना
चाहिए।इस लिए हमने ऐसे लोगो को इस व्याख्यान के लिए आमन्त्रित किया जो परिवर्तन के
पार्टी चिंतित रहते हैं. जब कोई भी देश गुलाम होता है तो वह अपनी पहचान के लिए
छटपटाता है. इसे दुनिया भर के गुलाम देश अनुभव करते रहे हैं. भारत के सन्दर्भ में
मैं कहना चाहूंगा कि सन् 1498 में अंग्रेजों का
भारत आना भूमंडलीकरण का तीसरा चरण था.
उसने दुनिया को बांटकर लूटने का काम किया।
आधुनिक भारतीय सन्दर्भ में पहचानकी राजीनीति के सवाल को ह्म जम्मू कश्मीर, झारखण्ड और
पूर्वोत्त्र भारत के इलाकों को देख सकते हैं. बोडोलैंड, गोरखालैंड आदि में पहचान
की राजनीति का संघर्ष वर्ग सघर्ष की
राजनीति का ही संघर्ष है. 'दिल्ली
दरबार' द्वारा
कश्मीर की पहचान को नेस्तनाबूद करने की साजिश को कश्मीरी साम्राज्यवादी प्रयास की
तरह ही देखते हैं. इसकी पहचान मैं आतंरिक साम्राज्यवाद के रूप में करता हूँ. जाति, राष्ट्र और
उपराष्ट्र के जो संघर्ष हुए हैं वो वर्ग संघर्ष ही रहे हैं.पहचान की
राजनीति और वर्ग संघर्ष की राजनीति को सत्ता से जोड़कर परिवर्तन की दिशा
में आगे बढ़ने से यदि सत्ता परिवर्तन होता है तो यही वर्ग संघर्ष की राजनीति होगी। पहचान की तमाम लड़ाइयों - महिला, समलैंगिकों,दलित, अल्पसंख्यकों , आदिवासी आदि की लड़ाइयों को उत्तर आधुनिकता के खांचे में डाल
दिया जाता है जिससे मैं असहमत हूँ. यौनिकता का सवाल भी वर्ग संघर्ष का ही सवाल है.
मुख्य वक्ता प्रो०
लाल बहादुर वर्मा ने अपना लम्बा वक्तव्य देते हुए कहा कि न ही मैं पहचान की
राजनीती का समर्थक हूँ और न ही मैं वर्ग
संघर्ष की राजनीति में सक्रिय हूँ. मैं एक सामान्य प्रबुद्ध जनता हूँ और जनता का
पक्ष रखने के लिए और दिल्ली के बुद्धिजीवियों का पक्ष जानने के लिए ऐसी संगोष्ठियों
में शामिल हो जाता हूँ. उन्होंने कहा कि
मुझे लगता है कि 'पहचान' अलग चीज है और'पहचान की राजनीति' अलग चीज है. पहचान मेरी नजरों में एक सांस्कृतिक श्रेणी
है और वर्ग आर्थिक-राजनीतिक श्रेणी है.वर्ग की धारणा19वीं शताब्दी में
पेश हुई.पहचान किसी न किसी रूप में पहले से रही है.पहचान शायद तब शुरु हुई होगी जब
मानव केंद्रिकता आई तब एक प्रकार की राजनीति शुरू हुई. मानव को प्रकृति से अलग रखकर
मानवहित को सर्वोच्च मानकर राज्य का गठन हुआ. मानव केंद्रिकता के बढ़ने के कारण
प्रदूषण आज की समस्या है. इस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या धरती के अस्तित्व का
प्रश्न है। आधुनिक युग में नेशन स्टेट में अपने आप में स्टेट की एक बड़ी पहचान के
रूप में सामने आई जो कि आज खुद एक बड़ा सवाल है। पहचान का राजनीतिकरण आधुनिक कल में
शुरू हुआ.आदमी की विभिन्न राजनीतिक पहचानों का राजनीतिकरण होना अवश्यंभावी हुआ.
इसमें मनुष्य के लाभ भी बढ़ते गए और वंचना भी। यह बात स्वयंसिद्ध थी कि आदमी कि कोई
निश्चित पहचान तो है नहीं। इसलिए यह एक विवादित मसला है। राजनीति, वर्ग और पहचान अपने
आप में विवादित श्रेणियाँ है.सबसे विवादित पहचान तो यही है कि सत्ता से रूबरू आदमी
की पह्चान क्या है। मतलब सारा प्रश्न सत्ता का है. अगर हम पहचान की बात करना चाहते
हैं तो देखें कि पहचान कैसे तय होती है. ज्यादातर हम उन पहचानों को मानते हैं जो
आरोपित हैं. जिसे विद्वान या सत्ताधारी
हमें दे देते हैं। ऐसी स्थिति में पहचान की राजनीति करने वाले उस पहचान में शामिल हों जो वो
चाहते हैं या जो आरोपित है उसमे शामिल
हों. मैं यह भी मानता हूँ कि पहचान का सवाल निजता का सवाल है.इसकी स्वायत्ता कितनी
है कि मुझे जो पहचान आपने दी है मैं उसका इस्तेमाल करूँ? अगर वर्ग की बात
करते हैं तो वर्ग में किस वर्ग की बात करते हैं? जिसकी कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में बात हुई है? क्या वर्ग उस समय
सार्वभौमिक श्रेणी थी ? मार्क्स ने
जिस सर्वहारा को चिन्हित किया वो तो पूरे यूरोप में था। जर्मनी में भी नहीं था.
सिर्फ पेरिस कम्यून एक उदहारण है उसका। आज वर्ग की स्थिति उस रूढ़ रूप में नहीं है
जिस रूप में मार्क्स ने उसे समझा था। मैं इतिहास का विदयार्थी होने के नाते कहता
हूँ कि एक गत्यात्मकता होती है जो इतिहास और समाज को चलाती है. हमें समय, विचार की गतिकी और
रूप तथा अंतर्वस्तु को समझने की जरूरत है.जब हम पह्चान की राजनीति की बात कर रहे
होते हैं तो हमारी एक विचारधारा होती है.
मार्क्सवाद के विविध रूपों में से किसी एक रूप की तरफ झुके होते हैं
हम यदि खम जनपक्षधर
है तो हमारी विश्वदृष्टि होगी। कैसी होगी वो विश्वदृष्टि? पहचान की राजनीति
करने वाले बिना उनका हित जाने उन्ही
का नुकसान कर रहे होते हैं जिनकी पहचान की वो राजनीति कर रहे होते हैं.
दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों का
हित जाने बगैर उनकी पहचान की राजनीति करना उनका नुकसान करना है. मैं कहता हूँ कि जब ये सवाल राजसत्ता के सवाल बनते
हैं तो समझ नहीं आते हैं. ये सवाल संस्कृति और नैतिकता के भी है.जब हम कहते हैं कि
क्या पहचानोंकी भी अलग नैतिकता होगी तो हमें देशकाल को समझकर फौरी हितों और
दूरगामी हितों का ध्यान रखना चाहिए। वर्त्तमान
में हमारे आंदोलन और राजनीति स्थायी हितों को नकार रहे हैं. हम जैसे लोगों को तात्कालिकता की बीमारी से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। हमारी विचारधारा तो तात्कालिकता से निर्णीत
नहीं थी. पहले नेशन -स्टेट सर्वोच्च श्रेणी था. आज नेशन-स्टेट ऊपर और नीचे दोनों
जगह से चैलेंज्ड है.आज कैपिटलिज्म यह मान चुका है कि नेशनलिज्म मात्र से उसका काम
नहीं चलने वाला है. अपने देश में नागालैंड और कश्मीर में राष्ट्र-राज्य के मौजूदा रूप को स्वीकार करने की स्थिति नहीं
है. आज परंपरागत पहचानों से न पहचानने का डर
है. वर्ग की हमें नई परिभाषा करनी पड़
रही है. सार्त्र कहा करता था कि चीजों को उनके नाम से पुकारो। अगर हम ये जान
लेंगे तो परिवर्तन कर पाएंगे। तमाम उलझनों का सामना करने के बाद कोई सरल समीकरण
दीखता है जो आगे चलाकर फिर उलझ जाने वाला होता है.अंत में उन्होंने कहा कि पह्चान
की एक स्पष्टता चाहिए और उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही देखा समझा जाना चाहिए।
व्याख्यान की अगली
कड़ी में डॉ सरोज गिरि ने अपनी बात रखते हुए कहा कि पहचान की राजीनति पहाड़ जैसी है जिससे
हम पार नहीं पा रहे हैं. पहचान की राजनीति करने वाले पहचानों के अंदर ही घूम रहे हैं और
हम मार्क्सवादी भी उनसे इससे पार नहीं पा रहे
है, ये बड़ा
मुश्किल काम है. पहचान को विस्तृत
फलक में देखना चाहिए। आइडेंटिटी फिक्स नहीं है वह गतिशील है.
जैसे मजदूर सिर्फ मजदूर वर्ग नहीं वो कुछ और भी है. अभी कुछ दिन पहले महिला
उत्पीड़न के मामले में तरुण तेजपाल का केस देखें। उसमे महिला पत्रकार पहले पुलिस में
जाकर शिकायत नहीं करना चाहती थी. जब ये तय हो गया कि अब तरुण तेजपाल पकड़ा जायगा
तब बाद में वह पुलिस के पास गई. उसने एक वक्तव्य दया जो
फेमिनिज्म से सम्बंधित है. उसमे वह फीमेल बॉडी की बात करती है. अपनी बॉडी और डिजायर के अधिकार को डिफेंड करती है. अब यहाँ बॉडी भी पहचान है.
आगे कहती है कि क्या मेरे साथ बलात्कार
हुआ?मैं
ऐसा नहीं मानती हूँ. लेकिन कानून
कहता है कि जो तेजपाल ने किया वह बलात्कार जैसा है. इसलिए मैं उसको बलात्कार ही मानूंगी। वो यह भी कहती है कि
यह कानून प्रगतिशील है. अब यहाँ कानून भी पहचान ही है. यहाँ देखिये कि इस कानून
में महिला के पीछे पूरी मीडिया, कानून और पुलिस घूम रही थी कि आओ हम आपके साथ हैं. आपको न्याय
मिलेगा। लेकिन सोनी सूरी के मामले में यह कानून, पुलिस और मीडिया चुप हो जाता है. यह एक खास
तरह का फेमिनिज्म है. महिलाओं का अपने शरीर पर हक़ हो यह कहाँ बहुत रेडिकल बात है. ऐसी
पहचान कि राजनीति में पहचान को जिस तरह से डिफाइन किया जाता है उसमे एक राज है.
पहचान की राजनीति और वर्ग संघर्ष अलग-अलग नहीं हैं. वर्ग संघर्ष यहीं छुपा
हुआ है. डेमोक्रेसीदावा करने से चलती है.
इसी को वर्चस्व कहते हैं. दावा करके वर्चस्व कायम रखेंगे। पहचान के अंदर जो वर्ग
है उसको अदृश्य करने के लिए महिला अधिकार एजेंसी को आगे लाया जाता है. इसलिए तहलका
की महिला पत्रकार को लगता है कि यह प्रगतिशील कानून सबके लिए है. सोनी सूरी की
पहचान वह नहीं हो सकती है जैसी तहलका की पत्रकार के साथ है. यहाँ वर्ग संघर्ष है
लेकिन दीखता नहीं है. मैं वर्ग संघर्ष को पहचान की राजीनीति के अंदर ही देखूंगा।
आजकल लोग वर्ग को भी पहचान ही कह देते हैं. हमें वर्ग संघर्ष की यूनिकनेस को
पहचानना होगा। वर्ग संघर्ष का मतलब बाकि संघर्ष के साथ जो संघर्ष चल रहा है वो
उसकी ऊर्जा है.
प्रगतिशील कानून और अधिकारों के साथ तनाव है. हम देखते हैं कि
महिलाओं के अंदर भी वर्ग है. इसको कानून अदृश्य करा रहा है. दलित आंदोलन में भी
कुछ ऐसा ही चल रहा है. दलितों के सामूहिक संहार के मामलों में हम देखते हैं कि
पुलिस, और जमींदार
ऊंची जाति वाले के वर्चस्व को संरक्षण
देते हैं वहीँ दूसरी तरफ उसी संरचना में एस.पी., डी.एस.पी. एम. पी०/ एम. एल. ए. दलित होते
हैं और उनकी आँखों के सामने दलितों का संहार होता है. यहाँ वर्ग विभाजन को लेकर
दलितों में तनाव है. यह वर्ग संघर्ष है. दलितों के पक्ष में कानून आने से वह उच्च
मध्य वर्ग का सृजन भी करत है और उसको संरक्षण भी देता है. इसलिए ये चिल्ला चिल्ला
कर बोलते हैं की पहचान ही प्रमुख है. क्यूंकि जब हम पहचान को संरक्षण दे रहे होते
हैं तो वर्ग को संरक्षण दे रहे होते हैं. अंत में कहता हूँ कि जब तक पूंजीवाद है
तब तक वर्ग संघर्ष है.
व्याख्यान के बाद इंडियन काउंसिल आफ ट्रेड यूनियन के सद्स्य
कामरेड नरेंदर ने धन्यवाद् ज्ञापन किया। कार्यक्रम का संचालन अंशु शर्मा ने किया।
कार्यक्रम में बड़ी तादात में प्रबुद्ध और सुधी श्रोताजन मौजूद थे।
रिपोर्ट प्रस्तुति : अरुण कुमार प्रियम
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