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इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के तेरह साल


4 नवम्बर पर विशेष 
इरोम शर्मिला के संघर्ष के तेरह साल 
शहीद भगत सिंह का जज़्बा, गांधी जी की राह

कौशल किशोर

देश में दीपावली मनाई जा रही है। रोशनी की जा रही है। दीप जल रहे हैं। मोमबत्तियां जलाई जा रही हैं। ऐसे में हमसे बहुत दूर उत्तर पूर्व के राज्य मणिपुर में मानवाधिकार कार्यकर्ता, कवयित्री इरोम चानू शर्मिला इस लोकतंत्र के अंधेरे से संघर्ष कर रही है, अपने संघर्ष की मशाल जलाए हुए है। वह न सिर्फ हमारे ‘लोकतंत्र’ की नौकरशाही और सैनिक तंत्र का मुकाबला कर रही हैं बल्कि अपनी मृत्यु से भी पंजे लड़ा रही हैं। क्या हम इस दीवाली में अपने घरों, कस्बों और शहर में दीप जलाकर उनके साथ नहीं खड़े हो सकते हैं ? वह आज संघर्ष की जिस कठिन राह पर हैं, हमारे लिए जरूरी है कि हम उनके साथ अपनी एकजुटता जाहिर करें, उन्हें यह संदेश दें कि वह अकेली नहीं हैं। इस साल चार नवम्बर को उनकी भूख हड़ताल के तेरह साल पूरे हो गये। इतनी लम्बी भूख हड़ताल का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। 

इरोम शर्मिला ने जब भूख हड़ताल की शुरुआत की थी, वे 28 साल की युवा थीं। कुछ लोगों को लगा था कि यह कदम एक युवा द्वारा भावुकता में उठाया गया है। लेकिन समय के साथ इरोम शर्मिला के इस संघर्ष की सच्चाई लोगों के सामने आती गई। आज वह एकतालीस साल की हो चुकी हैं। तमाम अवरोधों और मुश्किलों के बावजूद उनकी भूख हड़ताल आज भी जारी है। भले ही इन वर्षों में इरोम शर्मिला का कृषकाय शरीर और जर्जर व कमजोर हुआ हो पर कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करने वाली उनकी आन्तरिक ताकत और इच्छा.शक्ति बढ़ी है। इसीलिए इसे मात्र भावुकता नहीं कहा जा सकता है बल्कि यह पूर्वोत्तर भारत खासतौर से मणिपुर के ठोस यथार्थ की आँच में पका उनका विचार व दृढ इच्छा शक्ति है जिसके मूल में दमन और परतंत्रता के विरुद्ध दमितो.उत्पीड़ितों द्वारा स्वतंत्रता की दावेदारी है। इरोम शर्मिला  के संघर्ष में हमें इसी दावेदारी की अभिव्यक्ति मिलती है। इसके अन्तर में स्वतंत्रता की छटपटाहट और अदम्य साहस से लबरेज मौत को धता बता देने वाली ताकत है। इसीलिए आज इरोम शर्मिला इस्पात की तरह न झुकने, न टूटने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ के रूप में जानी जाती हैं।

बात दो नवम्बर 2000 की है। मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मिला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाई गईं। इसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये। मारे गये लोगों में 62 वर्षीया वृद्ध महिला लेसंगबम इबेतोमी तथा बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि शामिल थीं। यह सब इरोम शर्मिला को आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, दमन ढ़ाया हो पर इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था। इस घटना के बाद इरोम के लिए शान्ति रैली निकाल कर सत्ता  की कार्रवाइयों का विरोध अपर्याप्त या अप्रासंगिक लगने लगा। लिहाजा उन्होंने एलान किया कि अब यह सब बर्दाश्त के बाहर है। यह तो निहत्थी जनता के विरुद्ध सत्ता  का युद्ध है। उन्होंने माँग की कि मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम ;आफ्सपाद्ध हटाया जाय। इस एक सूत्री माँग को लेकर उन्होंने नैतिक युद्ध छेड़ दिया। तीन नवम्बर की रात में आखिर बार अन्न ग्रहण किया और चार नवम्बर की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी।

इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार ने इरोम शर्मिला को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जा रहा है। इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले एक दशक से ज्यादा समय से चल रहा है। उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मिला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हे रिहा करने का नाटक किया जाता है। फिर उन्हें गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत के नाम पर उसी सीलन भरे वार्ड में भेज दिया जाता है और जीवन बचाने के नाम पर नाक से तरल पदार्थ देने का सिलसिला चलाया जाता है। 

दरअसल, इरोम शर्मिला जिस ‘आफ्सपा’ को हटाये जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं, उस कानून के प्रावधानों के तहत सेना को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके अन्तर्गत वह सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। यही नहीं, यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए मंजूरी न दे। देखा गया है कि जिन राज्यों में ‘आफ्सपा’ लागू है, वहाँ नागरिक प्रशासन दूसरे पायदान पर पहुँच गया है तथा सरकारों का सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भरता बढ़ी है। इन राज्यों में जनतंत्र शिथिल हुआ है और सैन्यीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई है, जन आन्दोलनों को दमन का सामना करना पड़ा है तथा नागरिकों में अलगाव की भावना बढ़ी है। हालत यह है कि आज देश के पाचवें हिस्से में ‘आफ्सपा’ लागू है।

इसी का चरम रूप हमे मणिपुर जैसे पूर्वोतर राज्य में देखने को मिलता है जहाँ ‘आफ्सपा’ शासन के 55 वर्षों में बीस हजार से ज्यादा नागरिकों को अपनी जानें गंवानी पड़ी है। इसी की देन एक तरफ अपमान, बलात्कार, गिरफ्तारी व हत्या है तो दूसरी तरफ तीव्र घृणा, आत्मदाह, आत्महत्या, असन्तोष व आक्रोश का विस्फोट है। इस संदर्भ में 2004 में मणिपुर की महिलाओं द्वारा किये संघर्ष की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। उनके आक्रोश और चेतना का विस्फोट हमें देखने को मिला जब असम राइफल्स के जवानों द्वारा  थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’। इरोम शर्मिला इसी यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति हैं।

इरोम शर्मिला कोई आतंकवादी नहीं है। उसके प्रतिरोध का रास्ता शांतिपूर्ण व अहिंसक है। यही कारण है कि दुनिया में शांति व मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को इरोम शर्मिला के संघर्ष ने आकर्षित किया है। इस संघर्ष को सम्मानित किया गया है। 2005 में इरोम को नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। वहीं, 2007 में मानवाधिकारों के लिए ग्वांजु सम्मान, 2010 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर शांति पुरस्कार जैसे अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भले ही इरोम शर्मिला के संघर्ष को सम्मानित किया जा रहा हो लेकिन भारतीय राज्य उन्हें कोई स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं है। उसकी नजर में वह कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं बल्कि अपराधी है। 

हालत तो यह है कि उन्हें सामान्य बंदियों की सुविधाओं और अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया है। पिछले साल अक्टूबर में उन्हें जब अदालत में पेश किया गया था, इरोम ने प्रेस कांफ्रेंस करने की इजाजत चाही थी लेकिन इरोम को अपनी बात प्रेस को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं दी गई। वह ऐसी कैदी है जिससे मिलने जुलने की इजाजत भी नहीं है। उसे अकेलेपन में जीने के लिए बाध्य किया जा रहा है। बीते सप्ताह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यीय दल ने मणिपुर का दौरा किया। इस दल ने मणिपुर सरकार की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की है कि वह इरोम को जिन्दा रखने के लिए जरूरी न्यूट्रिशियन नाक के रास्ते पहुंचा रही है लेकिन उसे अधिकारों से वंचित किये हुए है। उन्होंने राज्य सरकार के इस व्यवहार को अमानवीय और कानून विरुद्ध माना है। इसीलिए उन्होंने कहा कि इरोम के वो सारी स्वतंत्रता दी जाय जो किसी भी आंदोलनकारी को न्यायिक हिरासत में दी जाती है। 

हमारी आजादी के संघर्ष के दो बड़े नायक रहे हैं - शहीद भगत सिंह और गांधी। इन दोनों नायकों की जो छवियां रही हैं, उसकी अनूठी एकता हमें इरोम शर्मिला के व्यक्तित्व और उनके आंदोलन में देखने को मिलती है।  जहां इरोम शर्मिला के अन्दर अपने उद्देश्य के लिए शहीद भगत सिंह सा आत्मोत्सर्ग का जज़्बा मिलता है, वहीं उनके आंदोलन की प्रेरणा गांधी हैं। यह प्रतिरोध संघर्ष की ऐसी राह है जिसमें रक्त का एक बूंद भी नहीं बहता लेकिन इसकी मारक क्षमता असीमित है। यह शांति के लिए अहिंसा का ऐसा मार्ग है जहां राज्य और उसकी शक्तियां लगातार बेनकाब हो रही हैं, वे आतंक व हिंसा का पर्याय बनती जा रही हैं। 

हकीकत तो यह है कि इरोम शर्मिला का यह संघर्ष हमारे लोकतंत्र के खंडित चेहरे को सामने लाता है। यह राज्य व्यवस्था से लेकर हमारी न्याय व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। इस साल मार्च में जब दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में इरोम को पेश किया गया, बार बार न्यायालय द्वारा इस बात पर जोर दिया जाता रहा कि वह अपने जीवन को खत्म करना चाहती है, वह आत्महत्या की राह पर है। इस अदालत में दिया उसका बयान गौरतलब है। उसने जोर देकर कहा कि मैं सामाजिक कार्यकर्ता हूं और मैं आत्महत्या के विरुद्ध हूं। मैं जिन्दगी से बेहद प्यार करती हूं। मैं शांति और इंसाफ चाहती हूं। मेरा आंदोलन अहिंसात्मक है तथा आफ्सफा को खत्म करने के लिए है। आफ्सफा जैसे कानून को खत्म कर दिया जाय, मैं अपना आंदोलन समाप्त कर दूंगी। इरोम अपनी इस भावना को अपनी कविता में भी अभिव्यक्त करती है: ‘कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो/मैं और किसी राह पर नहीं जाऊँगी/ ३ण्ण्काँटों की बेड़ियाँ खोल दो/होने दो मुझे अंधियार का उजाला’।


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