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साक्षात्कार:जीवित कवियों के संसार में सबसे अलग-अविनाश मिश्र

उद्भ्रांत का काव्य हिंदी साहित्य में एक ऐसा आलोकवृत्त रहा है जिससे नज़रें मिलाने की कोशिश प्रायः आंखों को चौंधिया देती रही है। इस स्थिति में इस ओर से या तो आंखें मूंद ली गईं या ठीक से मिलाई नहीं गईं। नतीज़तन उद्भ्रांत के कवि के काव्य पर ग़लत फैसले, जल्दबाज़ी में दिए गए निष्कर्ष या उनके विपुल रचनात्मक संसार से बचने के लिए उन्हें हाशिए पर कर देने की मुख्यधारा में प्रभावी मठाधीशों की कुटिल कोशिशें एक ऐसा वातावरण बनाती आईं, जहाँ उद्भ्रांत पर वैसे बात नहीं हो सकी, जैसे कि उद्भ्रांत जैसे व्यक्तित्व के कृतित्व पर होनी चाहिए थी। इस वातावरण के लिए उत्तरदायी ग़ैर रचनात्मक तत्वों ने मिलकर, न केवल उद्भ्रांत के उचित मूल्यांकन को होने से रोके रखा, बल्कि एक ऐसा साहित्य समय भी निर्मित किया, जहाँ बहुत कम उम्र में, बहुत कम कविताएं लिखकर, बहुत सारे काव्येतर ऐफ़र्ट करके, बहुत सारे, बहुत ग़ैरज़रूरी कवियों ने, बहुत कुछ पा लिया!

निकृष्टता का स्वीकार समाज व संस्कृति के लिए कितना घातक है, यह बहस अपनी जगह है, लेकिन इस पर कोई बहस ही नहीं हो सकती कि उत्कृष्टता की उपेक्षा (जो प्रायः पूर्वग्रहग्रसित, राजनीतिप्रेरित और ‘परस्परलाभाकांक्षीसमूहउद्वेलित’ होती है) समाज व संस्कृति के लिए इंतहाई घातक है।

एक कवि बनने और बने रहने के लिए ज़रूरी है कि आप एक मनुष्य के रूप में नैतिक और सच्चे रहें। ये वे मूल्य हैं जिन्हें जीवन में अर्जित करने के लिए एक भाषा में बहुत कुछ खोना पड़ता है--जैसे सम्मान, न्याय, हक़ और मूल्यांकन। इस तथ्य के संख्यातीत उदाहरण समय और संसार में सदा से रहे आए हैं। फिलहाल इसके सामयिक उदाहरण के तौर पर हम उद्भ्रांत की तरफ देख सकते हैं। आधी सदी पहले छंदबद्ध काव्य से शुरुआत करने वाले वरिष्ठ काव्यकार उद्भ्रांत के अब तक करीब तीस काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन पर कई किताबें हैं, शोध प्रबंध हैं, उनकी कृतियों के खाते में अनूठे कीर्तिमान हैं। वे गीत-ग़ज़ल-नवगीतकार भी हैं और इससे अलग (यदि ऐसी कोई विभाजन रेखा होती हो तो) सामाजिक प्रतिबद्धता से संपन्न ‘बकरामण्डी’, ‘तवायफ़’, ‘चूहे’, ‘केंचुआ’, ‘कठपुतली’, ‘पतंग’, ‘स्वेटर बुनती स्त्री’, ‘रस्सी का खेल’, ‘प्रेत’, ‘सीता रसोई’, ‘वह मारा जाएगा’, ‘हँसो बतर्ज़ रघुवीर सहाय’ जैसी दर्जनों महत्त्वपूर्ण कविताओं वाले अपने विराट मुक्तकाव्य संसार के कारण निःसंदेह वे हिंदी कविता की मुख्यधारा के सबसे आकर्षक अप्रतिम हस्ताक्षर हैं। उन्होंने कवि सम्मेलनों के मंच से भी कविता पढ़ी है और इससे अलग (यदि ऐसी कोई विभाजन रेखा होती हो तो) बौद्धिक समझी जाने वाली गोष्ठियों में भी काव्यरसिकों और श्रोताओं को वास्तविक काव्य आस्वाद से वाकिफ़ कराया है। उद्भ्रांत के काव्यसंसार में परंपरा भी है और वर्तमान समय के प्रश्न भी।

काव्य की लगभग सभी विधाओं में रचने वाले उद्भ्रांत जीवित कवियों के संसार में इसलिए सबसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि उन्होंने सामयिक काव्य में एक प्रचलित स्थायी भाव के बरक़्स एक जोखिमपूर्ण काव्य विपर्यय चुना है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यहाँ यह कि उद्भ्रांत का यह चुनाव इस अर्थ में अत्यंत आकर्षक व प्रासंगिक लगता है, क्योंकि यहाँ समकालीनता से विरोध अथवा पलायन नहीं, अपितु समकालीनता में रहते हुए परंपरा की ओर लौटना दृश्य किया जा सकता है। उद्भ्रांत ने विराट परिकल्पनाओं, विराट योजनाओं, विराट धैर्य, अनथक अध्यवसाय व श्रम के साथ विपुल काव्य रचना की है। तमाम तरह के जीवन संघर्षों के बीच से गुज़रते हुए उद्भ्रांत हिंदी साहित्य के सौ वर्षों के ज्ञात इतिहास में एक और एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनके काव्य संसार में इतने महाकाव्य हैं कि ‘कायमनोवाक्य’ से इनके अनुशीलन में लगने के लिए एक समग्र जीवन चाहिए। और इस तरह यहाँ आकर यह महाकाव्यात्मकतापूर्ण काव्यव्यवहार उन्हें कालिदास, तुलसी, कबीर, मीर, ग़ालिब, शेक्सपियर और रवींद्रनाथ टैगोर की परंपरा से जोड़ता है। भारतीय पौराणिक मिथकों और देवी-देवताओं पर उद्भ्रांत का काम और दृष्टि हिंदी साहित्य में दुर्लभ ही नहीं, अप्राप्य भी है।

इस महाकाव्यात्मक पक्ष से इतर भी उद्भ्रांत ने एक ऐसे काव्य-संसार की सृष्टि की है, जिसके उजाले में यदि उद्भ्रांत के कृतित्व को परखा जाए तो भी वे एक बड़े व प्रखर कवि नज़र आते हैं। उद्भ्रांत के कृतित्व पर बात न किए जाने की एक बड़ी वज़ह यह भी है कि यह बहुत समय, श्रम व धैर्य की मांग करता है। यह कृतित्व अपने मूल स्वभाव में इतना अधिक विविधवर्णी है कि इससे बचने का एक ही तरीक़ा है कि या तो इस ओर से आंखें मूंद ली जाएं या ठीक से मिलाई ही न जाएं। लेकिन अब उद्भ्रांत के कृतित्व पर एक सही समझ बन रही है। धीरे-धीरे ही सही हिंदी की निर्मम, निष्ठुर और अमानवीय मुख्यधारा के कुछ सजग नुमाइंदे एक ऐसे कवि का मूल्य समझने लगे हैं जिसने छुपाने से ज़्यादा प्रकटीकरण को, जोड़-तोड़ की अपेक्षा साधना को, कपटता की जगह सरलता को अपने व्यक्तित्व व कृतित्व में बहुत बारीक़ी से बुन दिया।

उद्भ्रांत प्रिंट पत्रकारिता से इलैक्ट्रॉनिक पत्रकारिता की ओर आए। उन्होंने केवल 25 वर्ष की आयु में ‘युवा’ जैसी साहित्यिक पत्रिका निकाली। ‘युवा’ के केवल दो अंक हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन के ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं। वे दूरदर्शन के दिनों में अपनी तरह के प्रशासक रहे। उन्होंने इस ‘काजल की कोठरी’ में रहते हुए बेहतरीन काम किया और ‘बेदाग’ बाहर आए। उन्होंने कहानियां भी लिखी हैं, बच्चों के लिए भी लिखा है, राष्ट्रीय गीत भी लिखे हैं।

और अंत में इस जगह आकर यह कहा जा सकता है कि उद्भ्रांत को अब तक कुछ भी बहुत आसानी से नहीं मिला। संभवतः उन्होंने ऐसा चाहा भी नहीं। और यह इसलिए है क्योंकि बड़े रचनाधर्मी व्यक्तित्व ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं करते हैं, जिसकी शर्तें दूसरे तय करें।

पिछले दिनों कवि उद्भ्रांत के साथ मेरी बातचीत के कुछ अंश -

अविनाश मिश्र - इधर आपके कृतित्व पर काफी चर्चाएं हो रही हैं, एक के बाद एक आपकी किताबें आ रही हैं। इस सारी चर्चा को आप कैसे देखते हैं और क्या ‘मूल्यांकन’ के संदर्भ में यह सब कुछ आपको बहुत देर से हो रहा नहीं जान पड़ता है?

उद्भ्रांत - मूल्यांकन का सवाल थोड़ा अजीब है। यों तो लिखना शुरू करने के कुछ वर्षों बाद से ही मेरी चर्चा होने लगी थी बतौर गीतकार/नवगीतकार। इसी कारण बाद में शंभुनाथ जी द्वारा संपादित ‘नवगीत अर्द्धशती’ और ‘नवगीत सप्तक’ में उन्होंने मुझे शामिल किया था लेकिन मैं अन्य काव्यरूपों में भी काम कर रहा था। सातवें दशक में ही यों तो मेरी कविता को सभी बड़े कवियों का एप्रीसिएशन मिला। लेकिन वह गीतकार वाले रूप के लिए ही था। हमारे हिंदी साहित्य में आलोचकगण प्रायः रचनाकार को एक खांचे में कै़द कर देते हैं। नई कविता के सारे कवियों ने गीतों से ही शुरूआत की, लेकिन इस दौर की आलोचना ने गीत को महत्त्वपूर्ण नहीं माना। नई कविता के कवि एक-दूसरे की आलोचना लिखते थे। ऐसे में जो परिदृश्य सामने आया उसमें नई कविता का ही मूल्यांकन ज़्यादा हुआ। नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी और विजयदेव नारायण साही--ये तीनों आलोचक नई कविता और नई कहानी के प्रति आकर्षित थे। सातवाँ दशक एक तरह से इन्हीं सब प्रवृत्तियों का ऐक्सटेंशन था जिसमें अकविता, युयुत्सावादी कविता, ठोस कविता, भूखी पीढ़ी जैसे आन्दोलन जुड़े और उसकी समाप्ति के एक-दो वर्ष पहले अकविता के कुछ प्रमुख कवि जैसे धूमिल, कुमारेंद्र, जगूड़ी, सौमित्र मोहन, राजकमल ने पुरानी प्रवृत्तियों को छोड़कर प्रगतिशील चेतना वाली बिम्बवादी कविता में अपना स्वाभाविक विकास पाया। इन्हें लघु पत्रिका आंदोलन के ज़रिये प्रतिष्ठा मिली और इनकी कुछ अच्छी कविताओं ने आलोचकों को भी आकर्षित किया। मैं यद्यपि मुक्तछंद की कविताएं भी लिख रहा था, लेकिन नवगीतकार की स्थापित छवि के कारण मेरी वैसी कविताओं पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। मान लिया गया कि यह तो गीतकार है, कवि सम्मेलनों में जाता है, समकालीन यथार्थ की कविताएं इसके पास कहाँ होंगी! यद्यपि मेरे अनेक गीत यथार्थबोध के भी थे, मगर कह चुका हूँ कि गीत के प्रति उदासीनता का वातावरण घना हो चुका था। अभी पिछले दिनों मैंने कर्णसिंह चौहान की मुझ पर केन्द्रित एक टिप्पणी देखी जिसमें वे मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य पर तंज़ करते हुए लिखते हैं कि हिंदी में अगर किसी कवि की गीतकार की छवि बन गई तो उसे समकालीन विमर्शों से बाहर मान लिया जाता है! स्वाभाविक है कि मेरी कविता पर आलोचकों का ध्यान कम जाता। 1976 में जब ‘नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं’ संग्रह आया, तब पहली बार मेरी कविता पर लोगों का ध्यान उस तरह से गया। लगभग सभी महत्त्वपूर्ण लघु पत्रिकाओं में संग्रह की समीक्षाएं आईं और संपादकीय लेख लिखे गए। तब कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा कि चर्चा पाने के उद्देश्य से मैं गीत से शिफ़्ट कर गया हूँ, जबकि यह सही नहीं था, क्योंकि मैं सातवें दशक के दौरान भी गीत-लेखन के साथ समकालीन कविताओं की रचना भी कर रहा था। यद्यपि वे परिमाण में बहुत कम थीं, मगर उन्हीं का विकास ‘नाटकतंत्र’ के रूप में आठवें दशक में दिखा था। अभी जो मेरी चर्चा हो रही है तो इसका कारण यह लगता है कि इधर मेरा काम लगातार और बहुत ज़्यादा सामने आया है और लोग उस दबाव में हतप्रभ हो चर्चा के लिए मजबूर हुए हैं। मैंने समकालीन कविताएं भी जितनी लिखी है, उतनी शायद मुख्यधारा के किसी कवि ने नहीं लिखीं; लेकिन विभिन्न काव्यरूपों में काम करने की वज़ह से मेरे मूल्यांकन में दिक़्क़तें आती रही हैं।

अविनाश मिश्र - ‘समकालीन कविता’ से क्या आशय है? क्या गीत समकालीन कविता में नहीं आता?

उद्भ्रांत - देखिए ‘समकालीन कविता’ पद अब उस कविता के लिए रूढ़ हो गया है जो छंदमुक्त है। गीत और नवगीत में जीवन की जटिलताएं पूरी तरह व्यक्त नहीं हो सकतीं। इसके लिए गीत और नवगीत के बंधनों या उनके अनुशासन को छोड़ना पड़ता है। इसी तरह प्रेम की रागात्मक अनुभूति पर जितनी अच्छी और दीर्घजीवी कविता छंद में संभव होगी, उतनी छंदमुक्त कविता में नहीं हो सकती।

अविनाश मिश्र - नरेश सक्सेना ने अभी हाल ही में दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि आपने बहुत लिखा है, मगर शायद ही किसी ने आपको ढंग से पढ़ा है और आपको इस बात का दुख और शिकायत दोनों हैं, इस पर क्या कहेंगे? 

उद्भ्रांत - यह उनका अनुमान है जो यही बता रहा है कि साठ के दशक वाली एक ही पीढ़ी के होने के बावजूद स्वयं उन्होंने ही मुझे ठीक ढँग से नहीं पढ़ा या वैसी ज़रूरत महसूस नहीं की। मुझे ठीक ढंग से पढ़ने वाले लोग कम हैं और समग्र रूप से पढ़ने वाले नहीं के बराबर। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं किसी ग्रुप को बिलांग नहीं करता हूँ। जिन्होंने मुझ पर यह टिप्पणी की है, उनके या उन जैसे कुछ अन्य लोगों के अपने-अपने ग्रुप हैं। उनका काम कम है, इसलिए उन्हें पढ़ने में अधिक समय नहीं लगता और उछालने में भी। कम काम होने के कारण ही उन्हें ग्रुप बनाने की ज़रूरत पड़ती है ताकि योजनाबद्ध ढँग से उनका नगाड़ा बज सके। उनके काम की गुणात्मकता का ढिंढोरा पीटा जा सके। पहले भी कहा है कि मैंने कई काव्यरूपों में काम किया--और उन सभी में परिमाण भी अधिक रहा। हाँ, यह सही है कि काम अधिक होने के कारण भी मूल्यांकन में बाधा आती है। शायद यह भी एक कारण है मेरे लेखक को लेकर बनी नासमझी का। मेरे काम पर जिस तरह से ध्यान दिया जाना चाहिए था, उस तरह से नहीं दिया गया यह सही है। लेकिन मैं इसे दुख के रूप में नहीं लेता हूँ; क्योंकि मैं हिंदी साहित्य की राजनीति से अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ।

अविनाश मिश्र - क्या आप स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं? 

उद्भ्रांत -यह सच है कि मुझे किनारे कर देने की कोशिशें हिंदी की मुख्यधारा में बराबर होती रही हैं। लेकिन सतत् रचनाकर्म के कारण ये क़ामयाब नहीं हो सकीं, इसलिए मैं तो स्वयं को उपेक्षित महसूस नहीं करता। मैं मानता हूँ कि जब आप अपने समाज को सचेत दृष्टि से देखते हुए, कविता के लिए जो अपेक्षित साधना है उसे करते हुए, अपना काम लगातार जारी रखते हैं तभी ऐसा श्रेष्ठ और सार्थक रचनाकर्म हो पाता है जिसकी उपेक्षा कोई नहीं कर सकता। और अगर कोई अपनी कुंठाओं से प्रेरित हो ऐसा करने का जोखि़म उठाता है तो समय के कूड़ेदान का अंधकूप उसे निगल लेता है। समझदार आलोचक इस सत्य को जानते हैं। मेरी किताब ‘काली मीनार को ढहाते हुए’ से सम्बंधित विचारगोष्ठी में डॉ. शिवकुमार मिश्र ने एक बात कही थी। उसे आप भी सुन लीजिये कि ‘एक सार्थक रचना को अगर हम इग्नोर करते हैं तो खु़द बेनक़ाब होते हैं।’

अविनाश मिश्र - आपकी प्रेरणा का स्रोत क्या है? 
उद्भ्रांत - प्रेरणा का कोई एक स्रोत नहीं होता। कम से कम मेरे लिए। विश्व के शीर्ष रचनाकार--जो कालजयी हैं-- और जिन्होंने भौतिक ऐषणाओं से अपने आत्म को कभी प्रभावित नहीं होने दिया, उनके और भारतीय भाषाओं सहित हिन्दी के भी ऐसे तमाम महान साहित्यकारों से मुझे अनवरत प्रेरणा मिलती रही है।

अविनाश मिश्र - हिन्दी में पुरस्कारों की राजनीति पर क्या कहेंगे?

उद्भ्रांत - हिन्दी में पुरस्कारों की वज़ह से, जो प्रायः संगठनप्रेरित या राजनीतिप्रेरित होते हैं, कम प्रतिभाशाली रचनाकारों का अधिमूल्यन होता है और वास्तविक रूप से योग्य लोगों का अवमूल्यन। मेरी तीन-चार कविताएं पुरस्कारों की राजनीति पर ही लिखी गई हैं जिन्हें पढ़ा होता तो आप यह सवाल ही न करते। वे पर्याप्त लोकप्रिय और चर्चित भी रहीं। ‘दुष्चक्र में कविता’, ‘शीर्षस्थ’, ‘मारामारी’ ऐसी ही कविताएं हैं। मेरा मानना है कि छोटा से छोटा और बड़े से बड़ा कोई पुरस्कार राजनीति या जोड़तोड़ से रहित नहीं होता। सिर्फ़ आपको उस समय और उस संस्था के समीकरण में स्वयं को फ़िट करने की कला आनी चाहिए। अपवादस्वरूप कभी-कभी समय और संस्था किसी को अपने समीकरण में फिट करने का स्वयं प्रयास करते हैं-रचनाकार के विराट क़द की लगातार उपेक्षा से उत्पन्न शर्मिन्दगी से बचने के लिए। यशपाल को ‘मेरी तेरी उसकी बात’ पर, नागर जी को ‘अमृत और विष’ पर, नागार्जुन को मैथिली कविता के लिए, दिनकर को कवि नहीं विचारक के रूप में, कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी को दिये गए पुरस्कार इसी कोटि में आते हैं। अभी आपसे बात करते हुए कुछ वर्ष पूर्व लिखी अपनी दो पंक्तियां याद आ रही हैं जो निराला जैसे महान कवि के प्रति भी ऐसी आपराधिक भूल करने वाली संस्थाओं और उन पर काबिज़ मठाधीशों के लिए आईना हैं-‘‘मेरे पास कविता का सूरज है। मुझे अकादेमी की टॉर्च की ज़रूरत नहीं।’’ फ़िलहाल इससे अधिक और क्या कहा जाए!

अविनाश मिश्र - वामपंथी रुझान रखने के बावजूद आपने हिन्दू देवी-देवताओं, मिथकों पर और ‘गीता’ के काव्यानुवाद जैसे कार्य किए हैं। ऐसा क्यों?

उद्भ्रांत - मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि हमारे समाज में जो प्रचलित मिथक हज़ारों साल से चले आ रहे हैं, अभी भी जीवित व प्रासंगिक हैं। दुनियाँ इसीलिए उनसे प्रेरित और प्रभावित होती है। समकालीन समस्याओं के उत्स और उनके समाधान की तलाश में अगर आप उन्हें भी ध्यान में रखें तो आपकी बात की सम्प्रेषणीयता बढ़ती है और उसका प्रभाव भी। हमारे यहाँ राम, शिव और कृष्ण के जो सार्वकालिक मिथक हैं, इनकी पड़ताल करने की चुनौती एक रचनाकार को क्यों नहीं स्वीकारनी चाहिए? उन्हें ज्यों का त्यों व्यक्त करना फ़िजूल है। जब तक इन्हें समकालीन चेतना और सवालों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इन्हें रिप्रोड्यूस करने का कोई मतलब नहीं है। उनके मूलस्वरूप को तो हम अपने क्लासिक्स में देख ही सकते हैं। उस ऊँचाई तक जा पाना भी हमारे लिए संभव नहीं, क्योंकि न हमारे पास उतनी मेधा है, न उम्र। मिथकों के महत्त्व को हमारे सभी बड़े चिंतकों रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद, गांधी, राधाकृष्णन, नेहरू और लोहिया ने स्वीकारा है। ‘भारत में यदि कभी साम्यवाद सफल होगा तो उसमें धर्म और अध्यात्म के तत्व ज़रूर मौजूद होंगे’, यह बात जब मैं सी.पी.आई. का कार्ड होल्डर था तब भी कहता था। हिचकिचाहट के साथ कुछ लोग अब इसे मानने लगे हैं। मैंने भारतीय मिथकों को वर्तमान की कसौटी पर कसा है। यही कारण है कि बड़े वामपंथी आलोचक भी मेरे इस काम पर बात कर रहे हैं। वैसे आप जानते हैं कि मैंने सिर्फ़ मिथकों पर ही कार्य किया हो, ऐसा नहीं है। मेरी कविता-यात्रा समकालीन जीवन की चिंताओं से भरी है और उसमें जीवन का हर पहलू आया है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, भूमंडलीकरण, मनुष्य का नैतिक अधःपतन, बाज़ार का आधिपत्य। एक बात और समझ लें। मेरी कविताओं में एक ओर अगर हिंदू धर्म की कुरीतियों, पाखंडों, अंधविश्वासों और विसंगतियों पर निर्मम प्रहार हुआ है तो दूसरी ओर वहाँ तीन तलाक़ जैसी कुप्रथा पर ‘तलाक़! तलाक़!’’ और बक़रीद के शुभ अवसर पर कु़र्बानी के लिए मूक, बेबस बकरों की ख़रीदफ़रोख़्त जैसे नाज़ुक विषय पर ‘बकरामंडी’ जैसी कविताएं भी हैं जो समूचे हिंदी काव्य संसार में आपको अन्यत्र नहीं मिलेंगी। दिक़्क़त यह है कि किसी कवि को पूरी तरह जाने-समझे बग़ैर हम उसके बारे में निर्णय देने लगते हैं। हम सब कुछ जल्दी में तय करते हैं। हमारी आलोचना इसी हड़बड़ी का शिकार है।

अविनाश मिश्र - डॉ. नामवर सिंह के ‘प्रतिभा का विस्फोट’ जैसे वाक्य और रवीन्द्रनाथ टैगौर से आपकी तुलना को आपके कुछ विरोधियों ने हँसी में उड़ा दिया। क्या स्वयं आपको ‘प्रतिभा का विस्फोट’ जैसा वाक्य और रवीन्द्रनाथ टैगोर से आपकी तुलना नामवर जी द्वारा जल्दबाज़ी या अतिरेक में दी गई फ़िजूलबयानी जैसी नहीं लगती? 

उद्भ्रांत - रवीन्द्रनाथ टैगोर से तुलना का कोई आधार नहीं है। हाँ, वर्ष 1999 में जब कुछ वर्षों से कविता न लिख पाने के कारण मैं बहुत उद्विग्न था, तब नामवर जी ने मुझसे कहा था कि आगे कभी कविता का आपके भीतर विस्फोट होगा। फिर वर्ष 2004 से 2007 तक की अवधि में मैंने जो और जितना काम किया, वह अब काफ़ी कुछ सामने आ चुका है। शायद एक तड़प, एक बेचैनी तो मुझमें थी ही। उसे उन्होंने एक चौंकाने वाला पद दे दिया। इससे यह ज़रूर हुआ कि मेरे प्रति ठंडी मुद्रा अख़्तियार करने वाले लोग भी परेशान हुए और सोचने को मजबूर हुए कि यह कवि जो आधी सदी से चुपचाप लगातार काम कर रहा है, उस पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया। हो सकता है कि अब कुछ लोग मेरे काम को देखने-परखने-जाँचने की कोशिश करें। तभी तो पता चलेगा कि मेरे इस पहाड़ जैसे काम की कोई सार्थकता है या नहीं? जहाँ तक नामवर जी के संदर्भित कथन की बात है, मैं उसे नामवर जी के मेरे प्रति स्नेह और सद्भाव के रूप में ग्रहण करता हूँ, इससे अधिक नहीं।

अविनाश मिश्र - आपके इधर कुछ एकल काव्यपाठ भी काफ़ी चर्चित रहे। आप किसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मानते हैं-- श्रोता को या पाठक को? 

उद्भ्रांत - दोनों को। मगर मेरे पैमाने के अनुसार उन्हें संवेदनशील और विभिन्न काव्यरूपों की भिन्न अपेक्षाओं के अनुकूल प्रपोर्शनेटली प्रबुद्ध भी होना चाहिए। यह भी ध्यान रखिये कि कवि की रचना सबसे पहले तो आत्मानंद के लिए ही होती है। मगर उसके बाद उसके अवचेतन में रचना की सार्थकता, उसकी सामाजिक सोद्देश्यता और उसमें योगदान को लेकर अन्तर्मंथन चलता है जिसका सही उत्तर एक सजग पाठक या श्रोता से मिली प्रतिक्रिया ही दे सकती है। इसे जानने के लिए ही वह काव्यगोष्ठी या कविसम्मेलन में जाता है, अपनी रचना या किताब को किसी अच्छी पत्रिका में या किसी प्रकाशक से प्रकाशित कराना चाहता है। एक भावप्रवण सजग पाठक या श्रोता की मनोनुकूल प्रतिक्रिया उसके आत्मानंद का विस्तार करती है, जबकि वस्तुनिष्ठ आलोचना उसे--यदि वह एक सावधान कवि है तो--आत्मालोचन या आत्म-परिष्कार के अवसर सुलभ कराती है।

अविनाश मिश्र - इस बीच लिखे गए आपके संस्मरण भी बेहद सराहे गए। इस विधा में आगे किन साहित्यकारों पर लिखने का इरादा है? 

उद्भ्रांत - संस्मरण तो मैं सातवें दशक से ही लिख रहा हूँ। ‘तुम्हारी स्मृति अच्छी है और तुम्हें संस्मरणों पर काम करना चाहिए’, ऐसा मेरे तमाम मित्र कहते रहे हैं। अपने प्रारंभिक वर्षों में ही मुझे हिन्दी के शीर्षस्थ रचनाकारों का गहन सान्निध्य मिला है। पंत, महादेवी, अश्क, दिनकर, भगवतीचरण वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, जैनेन्द्र, विष्णु प्रभाकर, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कंडेय, ठाकुरप्रसाद सिंह, धूमिल जैसे बहुत से नाम हैं जिन पर संस्मरण लिखना चाहता हूँ। फ़िलहाल मेरी प्राथमिकता में गुज़र गये कीर्ति-स्तम्भ हैं। अपने समकालीनों पर बाद में काम करूँगा। 

अविनाश मिश्र - लेकिन अभी-अभी ‘पाखी’ के ‘ज्ञानरंजन-केंद्रित विशेषांक’ में आपका संस्मरणात्मक लेख ज्ञानरंजन पर आया है।

उद्भ्रांत - लेकिन वह संस्मरण नहीं है। वहाँ ज्ञानरंजन के कथाकार को फ़ोकस में रखा गया है। एक अलग शैली में। स्मृति का हल्का संस्पर्श देते हुए। उसे सम्पादक के बड़े दबाव के कारण जल्दी में दो दिन में लिखा गया था। अवचेतन में यह बात भी रही होगी कि ज्ञानरंजन से दीर्घकालीन सम्बंधों के चलते उनके सम्मान के अवसर पर जारी विशेषांक के लिए लिखने से उसमें एक बूँद योगदान मेरा भी हो जाएगा। वैसे मैं कहानी का कोई आधिकारिक आलोचक नहीं हूँ और इस रूप में उसे आप मेरा पहला आलेख मान सकते हैं।

अविनाश मिश्र - तो आपकी नज़र में एक संस्मरण के लिए क्या बात ज़रूरी होनी चाहिए?

उद्भ्रांत - ज़रूरी है कि जिस पर संस्मरण लिखा जा रहा है उसके कृतित्व और व्यक्तित्व के पहलुओं पर बात की जाए, न कि उसके बहाने आत्म-मुग्धता में बहकर खुद को प्रोजेक्ट किया जाए।

अविनाश मिश्र - आत्मकथा कब लिखेंगे?

उद्भ्रांत - आत्मकथा लिखने का मेरा विचार है ज़रूर, लेकिन उससे पहले संस्मरण सम्बंधी काम पूरा करूँगा। उसके बाद मध्यवर्ग के जीवन को लेकर एक उपन्यास लिखने की भी इच्छा है। फिर आत्मकथा। मुझे लगता है कि जीवन में बहुत सारी स्मृतियां जो आपको परेशान करती हैं उनसे मुक्त होने के लिए आत्मकथा एक बेहतर माध्यम है--अगर वह पूरी ईमानदारी से लिखी जाए।

अविनाश मिश्र - डायरी लिखते हैं आप?

उद्भ्रांत - विद्यार्थी जीवन में पाँच-छह महीने डायरी लिखी। वह कोई साहित्यिक डायरी नहीं थी। दैनंदिन घटनाओं और मन पर पड़ने वाले उनके प्रभावों के अंकन ही उसमें प्रमुख थे। पता नहीं आज वह कहाँ है। फिर उस तरफ़ ध्यान नहीं गया।

अविनाश मिश्र - तब तो आपकी आत्मकथा पूरी तरह स्मृतियों पर ही आधारित होगी?

उद्भ्रांत - स्पष्ट है।

अविनाश मिश्र - आपकी किताबों में भूमिकाएं एक अनिवार्यता की तरह नज़र आती हैं। क्या इन्हें आप रचना और पाठकीय आस्वाद के बीच बाधा के रूप में नहीं देखते हैं?

उद्भ्रांत - आप शायद उन आठ-दस लम्बी भूमिकाओं की बात कर रहे हैं जो विगत डेढ़ दशक की अवधि में प्रकाशित पुस्तकों में आईं। बीसवीं सदी में प्रकाशित मेरी किताबों में अधिकतम दो-चार पृष्ठों की ही भूमिकाएं थीं। दिल्ली आने के बाद जो किताबें आईं उनमें भी कुछ तो बड़ी संक्षिप्त हैं। ‘हँसो बतर्ज़ रघुवीर सहाय’ और ‘इस्तरी’ की तो क्रमशः पाँच और सात वाक्यों की ही हैं। सूचनापरक। खै़र, अब आप जिन लम्बी भूमिकाओं को बाधक मानते हैं या किसी भी लेखकीय भूमिका को रचना और पाठकीय आस्वाद के बीच बाधा मानते हैं तो यह आपका दृष्टिकोण है। मैं उन्हें इस रूप में नहीं देखता। एक रचनाकार के द्वारा लिखी गई अपनी किताब की भूमिका उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि, रचना प्रक्रिया और उसकी आलोचकीय दृष्टि को भी व्यक्त करती है। मेरी लम्बी भूमिकाओं को आलोचकों ने महत्त्वपूर्ण माना। लेकिन यदि किसी पाठक को लगता है कि भूमिका गै़रज़रूरी है तो उसे भूमिका को छोड़कर रचना की ओर बढ़ जाने का पूरा अधिकार है। ऐसे कुछ पाठक मिले हैं जिन्होंने भूमिकाएं न पढ़कर केवल टेक्स्ट पढ़ा। कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने पहले टेक्स्ट पढ़ा, फिर भूमिकाएं। मगर तीसरी कोटि के सबसे अधिक पाठक हैं जो पहले भूमिका पढ़ते हैं, फिर टेक्स्ट। उन्हें लगता है कि मेरा विचारक जिस तरह उनमें अपने आत्मकथात्मक प्रसंगों को खोलता और जीवनसंघर्ष के साथ अपने समय व समाज को बिम्बित करता है, उससे उन्हें कविता के आस्वाद में ज़्यादा मदद मिलती है। यहाँ आपको यह भी जोड़ना चाहिए कि हिन्दी के बड़े आलोचक शिवकुमार मिश्र ने मेरी भूमिकाओं के संदर्भ में ही कहा था कि इन्हें एकत्र करके पुस्तकाकार प्रकाशित करवा दूँ, तो यह एक महत्त्वपूर्ण काम होगा। उनका यही कथन पिछले दिनों प्रकाशित ‘सृजन की भूमि’ नामक पुस्तक का आधार बना और आप देख ही रहे हैं कि इस पुस्तक की भी अच्छी चर्चा होने लगी है। जैसा आप सोच रहे हैं वैसा होता, तो पाठक इस किताब को ख़ारिज करने में देर नहीं लगाते!

अविनाश मिश्र - नाटकीयता आपके काव्य में कई जगह प्रभावी रूप में आती है। ‘नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं’ नाम से आपका एक काव्य संग्रह भी है और ‘ब्लैकहोल’ जैसा चर्चित काव्यनाटक भी आपने लिखा है। काव्य के प्रसंग में नाटकीयता को कैसे देखते हैं?

उद्भ्रांत - देखिए, ऐसा है कि कविता अपनी ऊँचाई पर स्वाभाविक नाटकीयता लेकर आती है। इसी तरह जब नाटक अपनी सर्वोच्च स्थिति में होता है तब उसमें कविता की अन्तर्धारा का प्रवाह दर्शक के दिलों में कल-कल निनाद कर रहा होता है। नाटक विधा के प्रति आकर्षण मुझमें प्रारंभ से था, इसे मैंने ‘ब्लैकहोल’ की भूमिका में कहा भी है।

अविनाश मिश्र - ‘ब्लैकहोल’ के बाद कोई और नाटक लिखने की योजना है?

उद्भ्रांत - ‘ब्लैकहोल’ मैंने कोई योजना बनाकर नहीं लिखा था। ‘कश्मीर हमारा है’--कभी इस शीर्षक से एक फुललैंग्थ प्ले लिखना चाहता था। यह वर्ष 1965 के आसपास की बात थी जब भारत-पाकिस्तान का युद्ध हुआ, लेकिन बात बनी नहीं। सिर्फ़ दो-तीन दृश्य ही लिखे जा सके। अभी इस तरह का कोई इरादा नहीं है। आगे कुछ हो जाए तो कह नहीं सकता।

अविनाश मिश्र - कम लिखने वाले कम क्यों लिखते हैं? हालांकि यह सवाल मुझे आपसे नहीं करना चाहिए, मगर फिर भी मैं चाहता हूँ कि आप इसका जवाब दें?

उद्भ्रांत - वाक़ई आपको यह सवाल मुझसे नहीं करना चाहिए। मुझसे तो आपका यह पूछना सटीक होता कि ज़्यादा लिखने वाले ज़्यादा क्यों लिखते हैं! मगर जब आपने पूछ ही लिया है तो अपना विचार इस संदर्भ में बता सकता हूँ कि कम लिखने का अर्थ है कि आपमें फ़ायर कम है। जिसमें अधिक आग होगी वही काम भी अधिक कर सकेगा। यह गुलेरी का समय नहीं है कि तीन कहानियां लिखकर आप महान हो जाएं। बहुत अच्छा लिखने का कोई फ़ार्मूला नहीं है कि उसे अपनाकर आपने दो बहुत अच्छी कविताएं लिख दीं और महान हो गए! ज़रूरी है अनवरत लिखना। उसी अनवरत लेखन के बीच से ही कालजयी रचनाएं आती हैं। अगर बतौर रचनाकार आप यह नहीं कर सकते तब तो चर्चित होने का एक ही मान्यता प्राप्त फ़ार्मूला है कि आप कोई शॉर्टकट अपनाएं और किसी ताक़तवर ग्रुप को ज्वॉइन कर लें। इसके बाद और कुछ हो न हो, आपको साहित्य अकादेमी पुरस्कार तो ज़रूर मिल जाएगा और आप कबीर, सूर, तुलसी से लेकर आधुनिक युग के निराला और मुक्तिबोध से भी अधिक महान कवियों की सूची में अपना नाम शुमार करा लेंगे!

अविनाश मिश्र - हिन्दी में बहुत सारे कवि/लेखक आपका नाम लेने से बचते हैं?

उद्भ्रांत - पता नहीं किन लोगों की बात आप कर रहे हैं? और जिनकी कर रहे हैं उन्हीं से आपने यह क्यों नहीं पूछा कि आप उद्भ्रांत का नाम लेने से क्यों बचते हैं? मुझे लगता है कि आप सामान्य बातचीत में नहीं, समकालीन कवियों द्वारा लिखी जा रही आलोचना में मेरे काम पर तवज्जो न दिये जाने का संदर्भ ले रहे हैं। असल में मुझे लेकर बहुत सारे भ्रम हिंदी जगत में व्याप्त हैं। किसी के लिए मैं सिर्फ़ गीतकार हूँ जोकि वस्तुतः मैं सातवें दशक में था। शायद, सातवें दशक में दो-चार अच्छे गीत लिख, गद्य कविता के अपेक्षाकृत आसान रास्ते को पकड़ और थोड़ा लिखकर प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले मेरी ही पीढ़ी के कवि, दैवप्रदत्त आयु-वार्धक्य के चलते स्वयं को वरिष्ठ मानते हुए साथ रखने में संकोच करते होंगे। समकालीन रचनाकारों में वैसे भी इतना ईर्ष्या-द्वेष है कि वे दूसरे समकालीन की चर्चा करने की उदात्त भावना नहीं रखते। उन्हें लगता है कि ऐसा कर वे छोटे हो जाएंगे! अभी जिन संदर्भित कवि की बात आप कर रहे थे, उनकी टिप्पणी के मूल में यही भाव हो सकता है। सातवें दशक में मेरी छंदमुक्त समकालीन कविताएं परिमाण में कम होने और नवगीत आंदोलन में मेरी अधिक चर्चा के कारण पृष्ठभूमि में चली गईं। आठवें दशक के मध्य में आये ‘नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं’ ने पहले पहल समकालीन कवि के रूप में पहचान दी। इस कारण गीत से वास्ता न रखने वाले आठवें दशक के हमउम्र कवि मुझे अपनी पीढ़ी का समझने लगे! उन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं--जो बाद में पुरस्कारादि की तिकड़मों से प्रतिष्ठित हुए--उनका अहंकार किसी वरिष्ठ कवि की चर्चा क्यों करेगा? जबकि इस तथ्य को सभी जानते हैं कि वरिष्ठता रचनाकर्म की होती है--आयु की नहीं! चूँकि मैंने अकादेमी पुरस्कार की दौड़ से स्वयं को अलग रखा, इसलिए ऐसे लोग स्वयं को श्रेष्ठ मानने के मुग़ालते में भी रहे। समकालीन आलोचना पर भी इन्हीं का दबदबा रहा। तो अगर ऐसे या इनसे सम्बंधित लोग मेरा नाम लेने से घबराते हैं तो इसमें ताज्जुब की क्या बात? लेकिन इस सबके बावजूद कुछ वरिष्ठ और प्रतिष्ठित आलोचकों ने मेरे काम पर इधर दृष्टि डाली है और मुझ पर केन्द्रित कई आलोचना-पुस्तकें भी आईं हैं। अब ये सब भीतर ही भीतर बहुत हैरान-परेशान हैं। ऐसे लोगों के साथ मेरी कभी कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। पता नहीं वे ऐसा क्यों करते रहे? आप जानते हैं कि इन लोगों के द्वारा किसी का नाम लेने न लेने से उसका कुछ नहीं बनता-बिगड़ता। अंततः आपका काम ही आपको बनायेगा। 15 वर्ष पहले अशोक वाजपेयी की उपस्थिति में नामवर जी ने कहा था--‘‘उद्भ्रांत जी को मेरे या अशोक वाजपेयी के प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं है।’’ हिंदी का सबसे बड़ा आलोचक यह कह रहा है और आप पता नहीं किन जुगनुओं की बात कर रहे हैं!

अविनाश मिश्र - अच्छा, आप ही क्या किसी अपने प्रिय कवि का नाम बता सकेंगे जो अभी सदेह हमारे बीच उपस्थित है?

उद्भ्रांत - तत्काल तो मुझे केदारनाथ सिंह और कुँवरनारायण के नाम ध्यान में आते हैं। ये दोनों दो अलग तरह के कवि हैं मगर मुझे प्रिय हैं।

अविनाश मिश्र - इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?

उद्भ्रांत - अभी ओम थानवी की ‘मुअनजोदड़ो’ खत्म की है। मुझे यह किताब पसंद आई। इसके अलावा इतनी सारी पत्रिकाएं आती हैं और जो महत्त्वपूर्ण पत्रिका नहीं आती, उसे खरीदने में गुरेज़ नहीं करता। ऐसे में पढ़ने के लिए इतना कुछ हो जाता है कि योजनाबद्ध ढंग से पढ़ना नहीं हो पाता। फिर बीच-बीच में जब भी मन करता है, मेरे निजी पुस्तकालय में उपलब्ध क्लैसिक्स मुझे आकर्षित करते हैं और उनमें डूब जाता हूँ।

अविनाश मिश्र - आपकी काव्य पंक्तियां हैं--‘कविता लिखने वाले मेरे दोस्तो! मुझे माफ़ करना। मैं इस बीच। कोई कविता नहीं लिख सका...।’ वह कौन-सा समय था, जब आप कविता नहीं लिख सके?

उद्भ्रांत - आठवें दशक के शुरू में जब मुझ पर नक्सलवादी प्रभाव पड़ा। तब लगा कि कविता करने का कोई अर्थ नहीं है। ऐक्टिविस्ट होना अधिक ज़रूरी लगता था। ‘नाटकतंत्र’ की कविताएं उसी दौर की हैं। ‘अपने को काटते हुए’, ‘कविता के विरुद्ध’ ये कविताएं कविता लिखने के खिलाफ़ थीं। उस समय मैंने पहली बार कविता के लिए ‘काठ की बंदूक’ का मुहावरा इस्तेमाल किया था। लेकिन बाद में भी कई बार ऐसा हुआ कि कविता लिखना स्थगित होता रहा। जब आपातकाल लगा, पूरे 19 महीने तक मैंने कोई कविता नहीं लिखी। संवेदना जैसे कुंद हो गई थी। भीतर से कविता उठी ही नहीं। आपातकाल की समाप्ति के कोई महीने भर बाद मैंने ‘जमाने बाद की कविता’ लिखी, जिसे तीन अन्य कविताओं के साथ सुधीर सक्सेना ने ‘अभी’ के प्रवेशांक में ‘विशिष्ट कवि’ स्तम्भ में सोमदत्त की टिप्पणी और कवि-वक्तव्य के साथ प्रकाशित किया था। अपने वक्तव्य में मैंने उस लम्बी अवधि में कविता न लिख पाने की स्थिति का विश्लेषण किया था। उसी कविता से ये पंक्तियां आपने उठाई हैं। इन सभी कविताओं को मेरे संग्रहों ‘क्या शब्द कम ताक़तवर है’ और ‘काली मीनार को ढहाते हुए’ में देखा जा सकता है। मगर यही नहीं, मेरी अब तक की कविता यात्रा में अन्य-अन्य कारणों से लम्बे अंतरालों के लिए कम से कम चार बार कविता लिखना स्थगित रहा है। इधर पिछले तीन, साढ़े तीन सालों से कविता फिर पास नहीं आ रही। जो किताबें प्रकाशित हुई हैं, सब पहले की हैं।

अविनाश मिश्र - और अंत में एक सवाल और--आप अपने आलोचक से क्या चाहेंगे?

उद्भ्रांत - मेरी कोई विशेष माँग नहीं है। मैं बस यह चाहता हूँ कि किसी भी रचनाकार पर बात करने से पहले उसे समग्र रूप से पढ़ा जाए। मेरे काम की पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर संजीदगी, ईमानदारी और विवेकपूर्ण पड़ताल हो। इसके बाद यदि किसी आलोचक को लगता है कि मैं कमज़ोर या साधारण कवि हूँ और अपनी बात को वह विश्वसनीय तर्कों से पुष्ट करता है, तो विश्वास करें कि मुझसे अधिक खुशी किसी को नहीं होगी। लेकिन यदि वह मेरे रचना-कर्म में बिना समग्ररूपेण उतरे, अपने मनोनुकूल रंग में आविष्ट हो कोई राय क़ायम करता है, तब वह न तो अपने आलोचकीय दायित्व के प्रति और न ही कवि के प्रति नैतिक व न्यायपूर्ण रह पायेगा। और निश्चय ही ऐसे आलोचक को वक़्त बहुत जल्द इतिहास के श्मसान में दफ़ना देगा।


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ऐमिटी विश्वविद्यालय के निकट, 
गोमती नगर, लखनऊ
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-‘जनपथ’ (आरा),जून, 2013 से साभार

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