(झीलों की नगरी
उदयपुर में दो दिवसीय फ़िल्मोत्सव संपन्न)
14 सितंबर, उदयपुर। द
ग्रुप, जन संस्कृति मंच और उदयपुर फ़िल्म सोसायटी के सयुंक्त
तत्वावधान में आज आरएनटी मेडिकल कॉलेज के सभागार में प्रतिरोध का सिनेमा के पहले
उदयपुर फ़िल्म उत्सव का आगाज हुआ। फिल्मोत्सव का आगाज ‘उदयपुर
फ़िल्म सोसायटी’ की प्रग्न्या, संगम और पंखुड़ी के
गाये ‘तू ज़िंदा है, तू ज़िंदगी की जीत
पे यकीन कर’ गाने के साथ हुआ। उद्घाटन सत्र में उदयपुर फ़िल्म उत्सव
के संयोजक शैलेंद्र प्रताप सिंह ने सभी मेहमानों का स्वागत करते हुए प्रतिरोध के
सिनेमा और उदयपुर फ़िल्म उत्सव के बारे में अपनी बात रखी और सभागार में मौजूद
दर्शकों को बताया कि प्रतिरोध की ये फिल्में बड़े गहरे सवाल की माफिक है जिन्हें
देखने और उन पर चर्चा करने की जरूरत है। इन्होने आगे बताया कि उदयपुर के लोगों के
सहयोग की बदोलत ही आज इस फिल्मोत्सव का आयोजन संभव हो सका है। साथ ही इन्होने यह
भी कहा कि हमें सवाल पैदा करने वाले सिनेमा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इस सत्र
में ‘दाएँ या बाएँ’ की निर्देशक बेला
नेगी ने प्रतिरोध का सिनेमा के साथ अपने जुड़ाव और अनुभव पर बात करते हुए बताया कि
प्रतिरोध के सिनेमा में उनकी फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान पाँच सौ से सात सौ
दर्शकों की उपस्थिति रही है, जबकि मुंबई और दिल्ली जगहों पर उनकी
फ़िल्म वितरकों के षडयंत्रों के कारण महज एक शो में चली है, इसके कारण
उन्हें अपेक्षानुरूप दर्शक भी नहीं मिले। इस मायने से प्रतिरोध का सिनेमा मुख्य
धारा के सिनेमा से बहुत आगे है और यह अपनी सार्थकता भी रखता है। इनके अनुसार व्यावसायिक
सफलता को ही असली सफलता का पर्याय मानना एक बड़ी गलतफहमी है।
इसी
सत्र में आगे द ग्रुप, जसम के राष्ट्रीय संजय जोशी ने प्रतिरोध के
सिनेमा को परिभाषित करते हुए कहा कि यह जनता का सिनेमा है, यह जनता
द्वारा चलाया जाता है और इसमें जनता के संघर्ष की कहानी है। इन्होने अपनी बात को
आगे बढ़ाते कहा कि हमें इस सिनेमा के विकास के लिए निरंतर सहयोग करने की जरूरत है
ताकि अगली बार इसके फिल्मोत्सव के आयोजन और बेहतर ढंग से किए जा सके और सिनेमा के
जरिये तमाम काला माध्यमों को समेटकर कुछ सार्थक किया जा सकता है। उद्घाटन सत्र में उदयपुर फ़िल्म सोसायटी की
चंद्रा भण्डारी ने सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद द्वारा बिमल राय की विख्यात फ़िल्म
‘दो बीघा जमीन’ के कथानक से प्रेरित यादगार चित्र
पर आधारित चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा बनाए गए दो पोस्टरों का लोकार्पण किया और
इसके बाद फ़िल्मकार सूर्य शंकर दाश और बेला नेगी द्वारा इस दो दिवसीय फ़िल्मोत्सव की
स्मारिका का विमोचन किया गया।
उद्घाटन
सत्र के मुख्य वक्ता प्रख्यात दस्तावेजी फ़िल्मकार सूर्य शंकर दाश ने सरकार,
न्यायपालिका, कॉर्पोरेट और मुख्यधारा मीडिया की मिलीभगत को उदाहरण
सहित प्रस्तुत करते हुए उड़ीसा में जल, जंगल, जमीन की
लूट में शामिल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काले कारनामों के बारे में दर्शकों को
बताया। सूर्य शंकर दाश ने कहा कि ये कंपनियाँ दोहरा चरित्र धारण किए हुए हैं, एक तरफ
अपनी अच्छी छवि बनाने के लिए यह फ़िल्म मेकिंग प्रशिक्षण और विभिन्न फ़िल्म उत्सवों
को प्रायोजित करती हैं तो दूसरी ओर आदिवासी लोगों के संसाधनों को अपने कब्जे में
करने के कुचक्र रचती हैं। उन्होने कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा सूचनाओं को अपने कब्जे
में करने तथा उन्हें जनता के सामने अनुकूलित बनाकर पेश करने की रणनीति को उजागर
किया। उन्होने एक फ़िल्मकार की असल भूमिका को रेखांकित किया जो अपने केमरे द्वारा
इस कॉर्पोरेट मीडिया के कुचक्र को ध्वस्त करता हैं।
इस
सत्र के आखिर में वरिष्ठ आलोचक और उदयपुर फ़िल्म सोसायटी के नवल किशोर ने सभी का
शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि अन्याय के प्रति विरोध में आवाज उठाना भी एक वैचारिक
आंदोलन की शुरुआत है।
‘जय भीम
कॉमरेड’ से हुआ नई बहस का जन्म
आज
उदयपुर फ़िल्म उत्सव की पहली शाम भारत के शीर्ष दस्तावेजी फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन की
बहुचर्चित फ़िल्म ‘जय भीम कॉमरेड’ को
दर्शकों ने बड़ी संख्या में देखा और पसंद किया। फ़िल्म के पश्चात निर्देशक आनंद
पटवर्धन के दर्शकों के साथ संवाद का सत्र भी लंबा,
विचारोत्तेजक और ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर नई बहस को जन्म देने वाला रहा ‘प्रतिरोध
का सिनेमा’ थीम पर केन्द्रित इस फ़िल्मोत्सव में मुख्य रूप से देश –
विदेश की ऐसी बहुचर्चित नई-पुरानी फ़िल्मों को दिखाया जा रहा है जो जन सिनेमा के
आदर्श को लेकर प्रतिबद्ध फ़िल्मकारों द्वारा बनाई गईं और जिन्हें दुनिया भर में
दर्शकों ने देखा और सराहा है।
फ़िल्म
‘जय भीम कॉमरेड’ जो आनंद पटवर्धन के 14 वर्ष के अथक
प्रयासों के बाद प्रदर्शित हुई, इस फ़िल्म में जातिवाद में जकड़े
भारतीय समाज, धार्मिक अंधविश्वास, धर्म पर
आधारित राजनीति, कार्यपालिका व न्यायपालिका का दलितों के प्रति दोहरा
व्यवहार, अपने निजी स्वार्थों के कारण दिन-ब-दिन रंग बदलते
राजनेता और दलित अत्याचार व उनके आंदोलन को बड़े ही गंभीरता से दिखाया गया है।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करती पटवर्धन की यह फ़िल्म कई चौंकाने
वाले आंकड़े हमारे सामने लाती है। जैसा फ़िल्म में बताया गया है कि देश में प्रतिदिन
2 दलितों की हत्या होती है और इनके ऊपर होने वाले अत्याचारों के मामलों में पुलिस
की भूमिका भी सवालों के घेरे में नजर आती है। फ़िल्म के पहले भाग में जहां दलित
आंदोलन के मजबूत पक्ष को दिखाया गया है तो दूसरे भाग में दलित नेताओं के उनके
बुनियादी राजनैतिक मूल्यों में हो रहे पतन और बाबासाहब डॉ. अंबेडकर को अपने
राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए उपयोग करने वाले राजनैतिक दलों को प्रमुखता
से दिखाया गया है।
फ़िल्म
में दलित युवाओं के सांस्कृतिक दल ‘कबीर कला मंच’ का अचानक
दलित आंदोलन में प्रमुखता से उभर कर आना और उनकी दलित आंदोलन में बढ़ती भूमिका के
कारण पुलिस द्वारा उनको नक्सलवादी घोषित कर उनको झूठे मुकदमों में फंसाना और आखिर
में इस दल का मजबूरन भूमिगत होना साफ जाहीर करता है कि किस तरह सत्ता अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर रही है, यह लोकतंत्र की
सार्थकता पर बहुत बड़ा सवाल हैं।
इससे
पूर्व फ़िल्मोत्सव में मालेगांव के लोगों द्वारा फ़िल्म बनाने की उनकी कोशिशों और
उनके सिनेमा प्रेम पर आधारित फैज़ा अहमद खान की फ़िल्म ‘मालेगांव
का सुपरमैन’दिखाई गई। इस फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान उदयपुर के सिने-प्रेमियों
ने बहुत ही हल्के-फुल्के माहौल में फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया को जाना और इसके बाद
हुई चर्चा में कुछ लोगों ने खुद की फ़िल्म बनाने की मंशा जताई। ‘मालेगांव
का सुपरमैन’ मालेगांव के ऐसे युवाओं का दस्तावेज़ है जो फ़िल्मों के
प्रति दीवानगी रखने के साथ-साथ अपनी खुद की फिल्में भी बनाते है। फैज़ा अहमद खान की
यह फ़िल्म हमें यह बताती है कि वर्तमान समय में फ़िल्म बनाना आसान काम हो गया है।
सीमित संसाधनों के बावजूद लोग कैसे सुपरमैन की कहानी को अपने अंदाज में दिखाते हैं, यही मुख्य
बात ‘मालेगांव के सुपरमैन’ से दर्शक
जानते है।
‘मालेगांव
का सुपरमैन’ के बाद लघु फ़िल्मों के जरिये उदयपुर के लोगों ने विश्व
सिनेमा को देखा। इसमें बर्ट हांस्त्रा की फ़िल्म ग्लास, गीतांजलि
राव की प्रिंटेड रेनबो, आशीष पाण्डेय की केबिन मैन, रॉबर्ट
जॉर्जियो एनरिको की द अकरैंस एट द ऑउल क्रीक ब्रिज, क्लौड
जतरा और नॉर्मन मैक्लेरेन की चेरी टेल, नॉर्मन मैक्लेरेन
की नेबर्स, ऋत्विक घटक की उस्ताद अल्लाउद्दीन खान और बीजू टोप्पो
और मेघनाथ की गाड़ी लोहारदगा मेल जैसी फ़िल्में दिखाई गईं। फ़िल्मों के प्रदर्शन के
बाद फीडबेक के दौरान उदयपुर के लोगों ने उदयपुर फ़िल्म सोसायटी की इस पहल की सराहना
की और भविष्य में इस तरह के आयोजनों में सहयोग का वायदा भी किया।
प्रतिरोध का
सिनेमा हर उम्र वर्ग के लिए
15
सितंबर, उदयपुर फ़िल्मोत्सव के दूसरे दिन का पहला सत्र नन्हें दोस्तों के नाम रहा।
इसमें उदयपुर शहर के विभिन्न स्कूलों के बच्चों ने जन्नत के बच्चे, रेड बेलून और
सामान की कहानी जैसी फिल्में देखी। इस तरह के फ़िल्मोत्सवों में बच्चों की उपस्थिति
जाहीर करती हैं कि यह सिनेमा सबकी बात करता है। इसके बाद ‘नया भारतीय दस्तावेजी
सिनेमा’ के अंतर्गत रीना मोहन की पहली भारतीय फ़िल्म अभिनेत्री कमला बाई के जीवन पर
बनी दस्तावेजी फ़िल्म ‘कमला बाई’ दिखाई गई। यह फ़िल्म पुरुष प्रधान समाज की वर्जनाओं
को तोड़कर अभिनय की दुनियाँ में कदम रखने वाली कमला बाई के साहस और जज़्बे को दिखाती
हैं। दोपहर में ‘नया सिनेमा’ सत्र के अंतर्गत बेला नेगी द्वारा निर्देशित ‘दाएँ या
बाएँ’ का प्रदर्शन हुआ। उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति को दिखाती यह फ़िल्म वैश्वीकरण
पर गहरा व्यंग्य करती है, साथ ही विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर बढ़ रही बाजारवादी
संस्कृति को हमारे सामने नग्न करती हैं। इस फ़िल्म के बाद बेला नेगी दर्शकों के साथ
हुई बातचीत में बताया कि वर्तमान दौर में विकास प्रक्रिया ने हमारे सामने कोई
विकल्प नहीं छोड़ा हैं। हमें ऐसा विकास भ्रमित करता हैं। बेला नेगी की इस फ़िल्म को
उदयपुर के दर्शकों से भरपूर सराहना मिली।
इसके
बाद उड़ीसा से आए फ़िल्मकार और एक्टिविस्ट सूर्य शंकर दाश ने अपनी लघु दस्तावेजी
फ़िल्मों के माध्यम से उड़ीसा में वेदांता कंपनी के विरुद्ध चल रही आदिवासियों की
लड़ाई और संघर्ष को दिखाया और बताया कि किस तरह आदिवासियों के संसाधनों को विकास के
बहाने सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर रही हैं। पूँजीपतियों द्वारा
संचालित दमनचक्र में उनका सहयोग कर रही पुलिस कितने बर्बर तरीके से जन-संघर्ष को
दबाने की कोशिश करती है और मीडिया जो जनता के मुद्दों के प्रति सजग होने का दिखावा
करता है कैसे अपने निजी हितों को आमजन की ज़िंदगी की कीमत पर पूरा करता हैं। सूर्य
शंकर दाश की दस्तावेजी फ़िल्मों के बाद उन पर चर्चा भी हुई जिसमें यह बात निकल कर
आई कि कॉर्पोरेट जगत, मीडिया और सरकार का गठजोड़ सूचनाओं को अपनी स्वार्थपूर्ति के
लिए उपयोग कर जनता को भ्रमित रखते हैं।
फ़िल्मोत्सव का समापन बलराज साहनी अभिनीत
एम.एस. सथ्यु की फ़िल्म ‘गर्म हवा’ दिखाने के साथ हुआ। विभाजन के बाद अल्पसंख्यक
वर्ग के साथ हो रहे दोहरे व्यवहार को उजागर करती यह फ़िल्म बलराज साहनी की सर्वश्रैष्ठ
फ़िल्मों में गिनी जाती हैं। अपने ही मुल्क में पराये घोषित हो चुके अल्पसंख्यक
वर्ग की पीड़ा को इस फ़िल्म में महसूस किया जा सकता हैं और इसी परिपेक्ष्य में ‘गर्म
हवा’ आज भी अपनी प्रासंगिकता रखती हैं। इस फ़िल्म के बाद पहले उदयपुर फ़िल्मोत्सव का
इस उम्मीद के साथ समापन हुआ कि अब प्रतिमाह एक फ़िल्म का प्रदर्शन किया जायेगा और
उस पर चर्चा की जाएगी।
सुधीन्द्र कुमार
कॉमिक्स एक्टिविस्ट
और
सदस्य,
जसम,
उदयपुर
फ़िल्म सोसायटी
संपर्क:
+91-9782366557,
sudhindra.jaipal@gmail.com
|
Comments