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''पुरस्कारों के लिए नहीं, जनता के लिए कविता लिखने, पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाना होगा।'' : विष्णुचंद्र शर्मा

'कवि' के पुनर्प्रकाशित अंक का लोकार्पण 
इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा क्यों नहीं रह सकता : चंद्रभूषण का कविता पाठ 
आज के समय में कविता की भूमिका पर बातचीत और चंद्रभूषण का कविता पाठ 

‘बिना राजनीति के आप परिवर्तन नहीं कर सकते। जो अपनी राजनीति को जानते हैं, वही खतरे को भी जानते हैं। आज कवियों के भीतर जो मध्यवर्ग है, वह कहां ले जा रहा है और उनके भीतर की काव्य चेतना उन्हें कहां ले गई है, इस पर विचार करना जरूरी है। पुरस्कारों के लिए नहीं, जनता के लिए कविता लिखने, पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाना होगा।’ वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णुचंद्र शर्मा ने 31 अगस्त को गांधी शांति प्रतिष्ठान में कविता समूह (जसम) और ‘कवि’ पत्रिका की ओर से ‘आज के समय में कविता की भूमिका’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में यह कहा। विष्णुचंद्र शर्मा ने बताया कि किस तरह 1957 में जब ‘कवि’ पत्रिका उनके संपादन में निकली, तो तमाम भारतीय भाषाओं और जनभाषाओं के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का सहयोग उन्हें मिला। उन्होंने कहा कि आज के समय में कवियों के भीतर जो हताशा और खालीपन है, उससे मुक्ति तभी मिलेगी, जब कवियों का देश के विभिन्न इलाकों में चल रहे संघर्षों से संवेदनात्मक रिश्ता बनेगा। उन्होंने कहा कि काव्यशास्त्र का संघर्ष जनता की जिंदगी के संघर्ष से अलग नहीं हो सकता।

संगोष्ठी के शुरू में कथाकार महेश दर्पण ने ‘कवि’ पत्रिका के इतिहास के बारे में बताया कि उसका पहला अंक जनवरी 1957 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें विशिष्ट कवि के रूप में त्रिलोचन की कविताओं को छापा गया था। मुक्तिबोध, नामवर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, प्रभाकर माचवे, शेखर जोशी, नलिन विलोचन शर्मा, रामदरश मिश्र, दुष्यंत कुमार सरीखे उस दौर के कई रचनाकारों की कविताएं कवि में प्रकाशित हुईं। लोर्का, मायकोवस्की, पुश्किन, वाल्ट ह्विटमैन जैसे विश्वप्रसिद्ध कवियों की कविताएं प्रकाशित करने के साथ ही ‘कवि’ ने पाठकों के काव्यात्मक बोध को उन्नत बनाने वाले कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक लेख भी प्रकाशित किए। उन्होंने कहा कि आज जब विचार के लिए बाजार में जगह नहीं है तो तब बाजार से लड़ते हुए ही कविता का विकास संभव है।

वर्षों बाद प्रकाशित ‘कवि’ पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण करते हुए वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि ‘कवि’ पत्रिका में किस तरह एक आदमी जो उसका संपादक, प्रूफ रीडर, हॉकर- सब कुछ था, इसे याद किया जाना चाहिए। लघु पत्रिका की बात करने वाले लोग पता नहीं क्यों, ‘कवि’ का नाम भूल जाते हैं, जबकि आज जिस तरह की व्यस्तताएं, कंसर्न और चिंताएं हम देख रहे हैं, उसकी तुलना में उस काम को देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिसका इतिहास और अतीत नहीं होता, उसका वर्तमान और भविष्य भी नहीं होता। प्रेरणा लेने की जरूरत उन्हें ही पड़ती है, जो कुछ काम करना चाहते हैं।

इस मौके पर विष्णुचंद्र शर्मा के कविता संग्रह ‘यात्रा में कविताएं’ तथा यात्रा-वृत्तांत ‘मन का देश, सब कुछ हुआ विदेश’ का भी लोकार्पण हुआ। वरिष्ठ कवि अजीत कुमार ने हिंदी में अच्छे कविता संचयन की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वालों की कविताओं का संचयन आना चाहिए तथा हरेक को अपनी रुचि के अनुरूप संचयन निकालना चाहिए। 
आलोचक बृजेश ने कहा कि आज की कविता पर निराला, प्रयोगवाद, नक्सलबाड़ी, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का प्रभाव है। आज की कविता पर बात करते हुए हमें ‘विचारधारा’ के लोकेशन पर ध्यान देना होगा, इस पर भी गौर करना होगा कि किस चीज का निगेशन किया जा रहा है और क्यों किया जा रहा है। अपने तीखे आलोचनात्मक वक्तव्य में आज की कविता के बड़े हिस्से की भूमिका के प्रति बृजेश ने अपना असंतोष जाहिर किया। 
कवि संजय कुंदन ने कहा कि जब से कविता पर बातचीत ज्यादा होने लगी है, तब अच्छी कविताएं नजर आनी बंद हो गई हैं। हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर हैं, जहां जनता जितना सत्ता से निराश है उतना ही विपक्ष से भी निराश है। कविता ही आज का विपक्ष और वैकल्पिक मीडिया है और हाशिए की आवाजों को सामने लाने का माध्यम भी है। बाजार और मीडिया दोनों कविता और आम आदमी के दुश्मन हैं।कवयित्री सविता सिंह ने कहा कि आज का दौर स्त्रीवादी कविता का दौर है. हमें कविता पर बातचीत करते वक्त देखना होगा कि जो भी कविताएं स्त्रीवाद के नाम पर लिखी जा रही हैं, उन पर पितृसत्तात्मक मूल्यों का प्रभाव कितना है और कितना उससे टकराव है। उन्होंने कहा कि बहुत सारे सत्य विमर्शों के जरिए भी पैदा किए जाते हैं।

जेएनयू में शोधार्थी शेफालिका ने कहा कि निराशा के भीतर से जो प्रतिरोध फूट रहे हैं, उसको सामने लाने वाली ऐसी कविताएं कम हैं, जो लोगों की आवाज बन जाएं। रमाकांत विद्रोही जैसे कवि ही इसके अपवाद हैं। वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा कि जब अराजकता को ही कवियों की नई पीढ़ी क्रांतिकारिता समझती थी, उस दौर में भी वह मुक्तिबोध को ही सबसे बड़ा कवि मानती थी। ‘कवि’ पत्रिका ने जिन कवियों को प्रकाशित किया, उनमें कई कविता आज भी प्रगतिशील-जनवादी कविता धारा के सर्वाधिक पसंद किए जाने वाले कवि हैं। इब्बार रब्बी ने कहा कि कविता एक किस्म की भूमिगत कार्रवाई है।आयोजन के दूसरे सत्र में चंद्रभूषण ने ‘खुशी का समय’, ‘मायामृग’, ‘मेरा देवता’, ‘पैसे का क्या है’, ‘आय लव आलू-करेला’, ‘स्टेशन पर रात’, ‘शांति प्रस्ताव’ आदि कविताएं सुनाई। ‘कवि’ के पुनर्प्रकाशित अंक में चंद्रभूषण की कविताएं प्रकाशित की गई हैं। जिनके बारे में 'कवि' के इस अंक में कवि-आलोचक आर. चेतनक्रांति ने लिखा है कि  'वे काव्य प्रचलनों, लोकप्रिय भंगिमाओं और सिद्ध मुहावरों से बाहर एक संकोची जगह पर खड़े होकर कवि होते है; और कविता को बाहर खड़ी दुनिया से ज्यादा अपने भीतर आ बसी दुनिया से संवाद के रूप में करते हैं."

 ‘शांति प्रस्ताव’ कविता की ये पंक्तियां आज के काव्य परिदृश्य में उनकी कविता के मायने को इस तरह रखती है-

इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता
इस पर इतना टंटा क्यों है
बस, इतनी सी बात के लिए
लड़ता रहता हूं।

मेरी कविता की उड़ान भी 
इससे ज्यादा नहीं है 
मेरी फ़िक्र में क्यों घुलते हो 
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना. 

गोष्ठी का संचालन  कविता समूह (जसम) के संयोजक आशुतोष कुमार ने किया। इस मौके पर कवि राम कुमार कृषक, विवेकानंद, रंजीत वर्मा, भारतेंदु मिश्र, कुमार मुकुल, संजय जोशी, कृष्ण सिंह, यशवंत, मार्तंड प्रगल्लभ, इरेंद्र, दिनेश, निर्भय, रामनिवास आदि भी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन महेश दर्पण ने किया।

सुधीर सुमन द्वरा जारी 

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