Featured

अखड़ा तृतीय महासम्मेलन में 7-8 सितंबर 2013 को रांची



प्रिय संगी साथी,

जोहार.


सिनगी-कैली दई, फूलो-झानो, माकी मुण्डा और देवमनी भगत की वीरांगना धरती और रघुनाथ मुर्मू, प्यारा केरकेट्टा, लको बोदरा, आयता उराँव, श्रीनिवास पानुरी, धनीराम बख्शी, पीटर शांति नवरंगी, रामदयाल मुण्डा, खंभीला असुर जैसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूतों की मातृभूमि झारखंड में 7-8 सितम्बर 2013 को शहीद स्मृति केन्द्रीय पुस्तकालय सभागार (राँची विश्वविद्यालय), राँची में आयोजित झारखंडी भाषा सहित्य संस्कृति अखड़ा के तृतीय महासम्मेलन में आपको और आपके सभी संगी-संबंधियों को न्योता है.
झारखंडी अस्मिता, भाषाई पहचान और जल, जंगल, जमीन पर पुरखौती अधिकार की बहाली का सवाल अभी तक बेदखल है. दोहन, लूट और उत्पीड़न का सिलसिला जारी है. शासक वर्ग और क्रांतिकारी वामपंथ के बीच के युद्ध तथा अन्य जनसंघर्षों में, जिसमें कि हमारी भी भागीदारी है, आदिवासी-देशज जीवन-संस्कृति के सवाल महज ‘आर्थिक’ बनकर रह गये हैं. हमें भी अर्थकेन्द्रित समाज समझा व बनाया जा रहा है. जबकि आदिवासी-देशज समाज प्रकृति व समष्टि केन्द्रित समाज-समुदाय है. सरकार और बहुसंख्यक समाज हमें मुख्यधारा में लाने को बेताब है, तो संघर्षशील संगी-साथी हमें अपनी-अपनी विचारधारा में खींच लाने का पूरा यत्न कर रहे हैं. कोई भी यह समझने-मानने को तैयार नहीं है कि आदिवासी-देशज भी एक धारा है. समृद्ध जीवनदर्शन है. जो आदिकाल से ही स्वतंत्र और एक समानांतर जीवनधारा है. इस देश में शासक वर्गों के साथ युद्धरत सभी परिवर्तनकामी व्यक्तियों, विचारों, संगठनों और राजनीतिक शक्तियों को हम अपना स्वाभाविक संगी मानते हैं. उनके साथ एकता चाहते हैं. लेकिन यह एकता तभी संभव है जब वे हमारी सांस्कृतिक स्वायत्तता और जीवनमूल्यों की रक्षा में हमारे साथ खड़े होंगे.

इसीलिए इस बार के अखड़ा महासम्मेलन की केन्द्रिय थीम है - जीवन के लिए भाषा और भाषा के लिए जीवन. आइए, आदिवासी-देशज अस्मिता, संस्कृति, परंपरा, ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और जीवनमूल्यों की रीढ़ ‘भाषा’ के पक्ष में एकजुट हों. भाषा के पक्ष में खड़े होने का अर्थ है जीवन के लिए खड़ा होना. अपने सभी संसाधनों पर पुरखौती हक-हकूक का दावा करना. हमें याद रखना है कि कोई भी युद्ध औपनिवेशिक भाषा और हथियारों से नहीं लड़ी जाती. संसाधनों पर पुरखौती अधिकारों की आवाज मातृभाषा के बिना हमेशा कमजोर बनी रहेगी. मातृभाषा ही मुक्ति की भाषा है.

इसलिए, आइए सवाल करें - 

* 13 वर्षों बाद भी मातृभाषा की पढ़ाई प्राथमिक स्तर पर क्यों नहीं शुरू की गई?
* JPSC में सामान्य की उम्र सीमा 45 तो ST/SC की उम्र क्यों नहीं बढ़ायी?
* 2011 अक्टूबर में झारखंड की नौ भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के बाद भी अब तक भाषा-साहित्य अकादमी का गठन क्यों नहीं किया?
* जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा के शिक्षकों की नियुक्ति क्यों टाली जा रही है?
* प्राथमिक शिक्षक पात्रता परीक्षा (JAC) में स्थानीय भाषा की अनिवार्यता एवं JPSC में जनजातीय व क्षेत्रीय भाषाओं को गैर जरूरी क्यों किया गया?
* भाषायी पुस्तकों का प्रकाशन क्यों, जबकि स्कूलों में न पढ़ाई है न शिक्षक की बहाली?
* केन्द्रीय आदिवासी विश्वविद्यालय क्यों नहीं बना?
* अपने ही गृह राज्य के जिलों में झारखंडी भाषाओं का परिसीमन क्यों?
* आदिम आदिवासियों के भाषायी, सांस्कृतिक व साहित्यिक विकास की उपेक्षा क्यों?

संगी, लगातार के सांस्कृतिक व आर्थिक दमन, लूट, शोषण और अत्याचार से त्रास्त झारखंडी समुदायों की सहनशक्ति पराकाष्ठा पर है. जल, जंगल, जमीन की लूट तो रोकनी ही है, पर इसी के साथ हमें रोकनी होगी सांस्कृतिक, बौद्धिक, आर्थिक संपदा का हनन.

आइए, जीवन के लिए भाषा और भाषा के लिए जीवन के हुंकार और सृजन से झारखंडी संघर्ष व असहमतियों को बुलंद करें. अखड़ा के तीसरे महासम्मेलन को सफल बनाएँ.

महासम्मेलन स्थल है -
शहीद स्मृति केन्द्रिय पुस्तकालय सभागार
(सेंट्रल लायब्रेरी हॉल), मोरहाबादी, रांची विश्वविद्यालय, रांची (झारखण्ड)

महासम्मेलन संबंधी ताजा सूचना के लिए फेसबुक देखें -


Comments