पाठक साथियो,
नमस्कार
नमस्कार
इन दोनों पत्रों को पढ़ने से पहले जान लें कि इन्हें 'अपनी माटी' और 'हंस' या राजेन्द्र यादव जी के बीच के संबंधों से जोड़कर नहीं देखा जाए साथ ही इसे 'अपनी माटी' और 'शैलेंद्र चौहान' के संबंधों के बारे में भी जोड़ कर नहीं ही देखा जाना चाहिए।-सम्पादक
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आदरणीय राजेंद्र जी,
अभिवादन !
मैं सदैव ही
आपके कुछ
विशेष तरह
के विचारों
का कटु
आलोचक रहा
हूँ। यद्दपि
मैं आपका,
वरिष्ठ लेखक
के नाते
पूरा सम्मान
करता हूँ पर मैं व्यक्तिपूजा
और चाटुकारिता
में विश्वास
नहीं रखता।
मुझे यह
देख कर
सुखद आश्चर्य
हुआ कि
इस बार
के हंस
में (जून
'१३) सम्पादकीय
से लेकर
अन्य सामग्री
तक स्त्रियों
की देहमुक्ति
को छोड़कर
उनके प्रति
एक गहरी
संवेदना और
सदाशयता के
साथ प्रस्तुत
हुए हैं।
इस हेतु
मैं आपको
बधाई देना
चाहूँगा। अपने
सम्पादकीय में स्त्रियों के प्रति
निर्दयता का
विश्लेषण करते
हुए आप
लिखते हैं-
'इस हिंसा
की जड़ें
उन परिवारों
में हैं
जिनकी बनावट
आज भी
सामंती है।'
यह सही
है मगर
यह पूरी
तरह वस्तुगत
विश्लेषण नहीं
है। क्या
आज समाज
के जिस
वर्ग और
चरित्र के
लोग ये
दुष्कृत्य कर रहे हैं वे
मात्र सामंती
परिवेश के
हैं या
इस क्रूर
और बेलगाम
आवारा पूँजी
की चकाचौंध
भी उसमें
है? दूसरा
क्या इस
देश की
राजनीतिक बनावट
भी इसके
लिए जिम्मेदार
नहीं है?
आजादी के
पैंसठ वर्षों
बाद में
इन राजनेताओं
ने समाज
को उन्नत,
जागरूक तथा
सम्वेदनशील बनाने के लिए क्या
रंचमात्र भी
प्रयत्न किये
हैं? उपनिवेशवाद
का सामंत
वाद से
बाकायदा गठजोड़
था। उसी
तरह
आज पूंजीवाद का भी उसके
साथ गठजोड़
है।
आज का समाज
शुद्ध सामंती
नहीं है
वह पूँजी
और उपभोग
वस्तुओं की
चकाचौंध का
भी मारा
हुआ है।वह
सिर्फ दौलत
बटोरने में
(कमाने में
नहीं) विश्वास
रखता है,
वह फिर
चाहे जैसे
भी हो।
यह सामंती
मूल्य नहीं
है। दौलत
बटोरने के
बाद ऐय्यासी
और एडवेंचर
उसके शौक
बन गए
हैं। विज्ञापन
उस पर
और आग
में घी
का काम
कर रहे
हैं।
घर में प्रयोग होने वाली
सामान्य वस्तुओं
से लेकर
खास किस्म
के प्रोडक्ट
को भी
आज स्त्री
विज्ञापनों के ज़रिए प्रोमोट किया
जा रहा है। साबुन,
शैम्पु, हैंडवाश,
बर्तन, फ़िनाइल,
डीओ, तेल,
विभिन्न तरह
के लोशन,
क्रीम, टॉयलेट
क्लीनर से
लेकर पुरुषों
के दैनंन्दिन
प्रयोग की
चीज़ों के
विज्ञापनों में भी सुंदर एवं
आकर्षक स्त्री
दिखाई देती
हैं। पुरुषों
के अंर्तवस्त्रों
या डीओड्रेंट्स
के विज्ञापनों
में तो
अधनंगी स्त्रियां
पुरुषों के
साथ एक
खास किस्म
के कामुक
जेस्चर में
प्रेज़ेंट की जाती हैं। इसका
उद्देश्य होता
है, स्त्रियों
के कामोत्तेजक
हाव-भाव
और सम्मोहक
अंदाज़ के
ज़रिए पुरुष
दर्शकों को
टारगेटेड विज्ञापन
के प्रति
आकर्षित करना
और उस
निश्चित ब्रांड
के प्रति
दर्शकों के
रुझान को
बढ़ाना जिससे
वे उसे
जल्द खरीदें।
यह देखा गया
है कि
खास किस्म
के विज्ञापनों
में भी
स्त्री-शरीर
के ज़रिए
विज्ञापनों को प्रमोट किया जाता
है। मसलन्
मोटापा कम
करने या
कहें ‘स्लिम-फिट’ होने
के विज्ञापन
मुख्यतः स्त्री-केंद्रित होते
हैं। चाहे
यह विज्ञापन
मशीनों द्वारा
वज़न कम
करने का
हो या
रस और
फल-सेवन
के उपाय
सुझाने वाला
लेकिन हमेशा
स्त्री-शरीर
ही निशाने
पर रहता
है। इसमें
एक तरफ
ज़्यादा वज़न
वाली अधनंगी
(बिकिनी पहनी)
स्त्री पेश
की जाती
है तो
दूसरी तरफ
स्लिम-अधनंगी
स्त्री। एक
तरफ ज़्यादा
वज़न वाली
के खाने
का चार्ट
दिखाया जाता
है तो
दूसरी तरफ
कम वज़न
वाली का।
फिर दोनों
की तुलना
की जाती
है कि
किस तरह
कम वज़न
वाली स्त्री
मशीन के
प्रयोग से
या कम
सेवन कर
आकर्षक, कामुक
और सुंदर
लग रही
है, दूसरी
तरफ अधिक
वज़न वाली
स्त्री वीभत्स,
अ-कामुक
और कुत्सित
लग रही
है। इसलिए
फलां फलां
चीज़ सेवन
करें या
फलां मशीन
उपयोग में
लाएं ताकि
आप भी
आकर्षक और
कामुक दिख
सकें।
आजकल फेसबुक जैसे
सोशल मीडिया
साइट्स में
भी इस
तरह के
विज्ञापनों का खूब सर्कुलेशन हो
रहा है।
इस तरह
के विज्ञापनों
की
स्त्री को अपमानित करने और
वस्तु में
रुपांतरित करने में बड़ी भूमिका
है। मध्यवर्ग
की कुछ
स्त्रियां इन विज्ञापनों से प्रभावित
भी होती
हैं। वे
या तो
मशीन का
उपयोग करने
लगती हैं
या फिर
डाइटिंग के
नुस्खे अपनाती
हैं। इससे
स्पष्ट होता
है कि
विज्ञापन केवल
स्त्री-शरीर
ही नहीं
स्त्री-विचार
पर भी
हमला बोलता
है। वह
तयशुदा विचारों
को लोगों
के दिमाग
में थोपता
है और
इसमें खासकर
स्त्रियां निशाने पर होती हैं।
यह विज्ञापनों का
स्त्री-विरोधी
या पुरुषवादी
रवैया ही है जो स्त्री
की व्यक्तिगत
इच्छाओं और
आकांक्षाओं पर हमला करता है।
स्त्री के
शरीर को
केंद्र में
रखकर स्त्री
को स्लिम
होने के
लिए प्रोवोक
करना कायदे
से उसे
पुरुष - भोग
का शिकार
बनाना है।
स्त्री के
ज़ेहन में
यह बात
बैठाई
जाती है कि अगर
वह स्लिम
होगी तो
वह मर्दों
को आकर्षित
कर पाएगी।
स्त्रियों में विज्ञापनों के ज़रिए
यह भावना पैदा की जाती है कि वो
अपने फ़िगर
को आकर्षक
बना सकती
हैं।विज्ञापन स्त्रियों के उन्हीं रुपों
को प्रधानता
देता है
जो शरीर
के प्रदर्शन
से संबंध
रखता है,
उसकी बुद्धि
और मेधा
के विकास
से नहीं,
उसकी पढ़ाई
से नहीं,
उसकी सर्जनात्मकता
से नहीं,
उसकी अस्मिता
से नहीं। धीरे-धीरे स्त्री
अपनी स्वायत्त
इच्छाओं के
साथ-साथ
अपना स्वायत्त
व्यक्तित्व तक खो देती है
और हर
क्षण पुरुषों
की इच्छानुसार
परिचालित होती
रहती है।
अंततः स्त्री
‘व्यक्ति’ की बजाय पुरुषों के
लिए एक
मनोरंजक ‘वस्तु’
या ‘भोग्या’
बनकर रह
जाती है।
दूसरी तरफ
राजनीति
है, आप कृपया यह बताएं
कि कानून
व्यवस्था की
जिम्मेदारी किसकी है ? यदि अपराध
रुक नहीं
रहे हैं
तो उसके
लिए क्या
सिर्फ समाज
या अपराधी
जिम्मेदार हैं या व्यवस्था की
भी कोई
भूमिका है
? अपराधियों को खुली छूट किसने
दे रखी
है ? क्या
यह राजनीतिक
इच्छाशक्ति की कमी नहीं है
? क्या यह
प्रशासनिक संवेदनहीनता नहीं है ? पुलिस
किसके इशारों
पर प्रभावशील
अपराधियों को छोड़ देती है
उनके खिलाफ
शिकायत दर्ज
नहीं करती
?
अपराधियों के साथ
गैर जिम्मेदार
प्रशासनिक अधिकारियों, नेताओं और सचिव
स्तर के
अधिकारियों को उनकी अक्षमता के
लिए सजा
क्यों नहीं
दी जाती
? क्यों अपराधों
पर उन्नत
सूचना तकनीक
द्वारा निगरानी
नहीं रखी
जाती ? क्यों
हो हल्ला
और शोरशराबा
होने पर
ही सरकार
और प्रशासन
की नींद
खुलती है
? इन प्रश्नों
पर भी
जन हित
में विचार
आवश्यक है.
भारतीय नागरिक
कदम कदम
पर अपमानित
होता है
क्या इसी
लोकतंत्र के
लिए हमने
स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी,
इतने बलिदान
दिए थे
?
अब एक बात
और न्याय
व्यवस्था जो
राजनितिक और
व्यवसायिक मामलों में अपनी अति
सक्रियता के
लिए जानी
जाने लगी
है उसकी
बानगी देखें-
सोनी सोढ़ी के केस में।सोढ़ी
ने सुप्रीम
कोर्ट के
सामने ये
इल्ज़ाम लगाया
है कि
पुलिस हिरासत
में उनके
साथ बलात्कार
किया गया
और उनके
गुप्तांगों में पत्थर की टुकड़ियां
घुसेड़ी गईं
।ऐसे सभी
लोग जो
इन स्थितियों
से गुजरे
हैं वे
सभी पीड़ित
न्याय मिलने
का इंतज़ार
कर रहे
हैं। उधर
मीडिया की
भूमिका आग
में घी
डालने के
समान रही है, टीआरपी बढ़ाने
के लिये
टीवी चैनल
किसी भी
घटना को
कलर फुल
एवं सनसनीखेज बना देते है और
उसे चौबीसों घंटे धुनते रहते हैं । आसाम
में एक
लड़की को
एक प्रभावशाली
मीडिया मालिक
के इशारे
पर
सरे आम बेईज्ज़त किया जाना
इसका भयानकतम
उदहारण है।
सूचना व
संवाद की
तमाम साधन
संपन्नता के
बाजवूद हम
अपनी जनचेतना
को बुध्दि
संपन्न या
उर्जा संपन्न
नहीं मान
सकते क्योंकि
आज हमारा
समाज नायक
विहीन है।
तमाम विकृतियों,
विसंगतियों एवं कमजोरी के बाजवूद
हमारे बीच
चेतना के
सकारात्मक स्वर भी मुखरित होते
रहे हैं।
असंगठित मजदूर
व किसान
अपनी बात
कहे तो
किससे कहे?
जन जब
दम तोड़ता
नजर आये,
जब जीवन
के आदर्श
अपना मूल्य
खोने लग
जायें, भारतीय
संस्कृति का वर्तमान जब
त्रिशंकु की
भूमिका में
हो तब जनांदोलनों
की भूमिका
महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
खैर यह तो
रहीं सम्प्रति
स्थितियां परन्तु मूल प्रश्न यह
है कि
क्या व्यवस्था
परिवर्तन के
वगैर अपराध
रोके जा
सकते हैं
और सामाजिक
जीवन में
गुणवत्ता आ
सकती है?
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