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''दलित साहित्य ने दलित वर्ग को समर्थ बनाने का कार्य किया।''-मोहनदास नैमिशरणराय

‘साहित्य में सामाजिक न्याय की अवधारणा’ विषयक संगोष्ठी

जोधपुर22 जुलाई

राजस्थान साहित्य अकादमी एवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी (राजस्थान) के संयुक्त तत्वावधान में राष्ट्रीय संगोष्ठी 21 जुलाई, 2013 को सूचना केन्द्र, जोधपुर में आयोजित हुई। इस संबंध में जानकारी देते हुए अकादमी सचिव डॉ. प्रमोद भट्ट ने अवगत कराया कि ‘‘साहित्य में सामाजिक न्याय की अवधारणा’’ विषय पर  केन्द्रित गोष्ठी के उद्घाटन स़त्र के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार मोहनदास नैमिशरणराय थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष वेद व्यास द्वारा की गई। विशिष्ट अतिथि राजस्थान सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्ष आर.डी. जावा, प्रो. गोपाल भारद्वाज एवं  राजस्थानी भाषा अकादमी के अध्यक्ष श्याम महर्षि थे। कार्यक्रम के संयोजक चंदनमल नवल थे। अकादमी अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में ‘संवाद’ को विचार पुत्र बताया और साहित्य को राजनीति से आगे चलने वाली प्रक्रिया कहा। व्यास ने आगे कहा कि साहित्य के सारे निर्णय गुणवत्ता के आधार पर होने चाहिए, जाति आधार पर नहीं।

मुख्य अतिथि जाने माने साहित्यकार मोहनदास नैमिशरणराय ने कहा कि दलित साहित्य ने निश्चित रूप से दलित वर्ग को समर्थ बनाने का कार्य किया। उन्होंने कहा कि दलित साहित्यकार अपने आधार और अपनी जड़ों को लेकर साहित्य नहीं लिखेगा तो दलित साहित्य ही खत्म हो जाएगा। उन्होंने आगे कहा कि आरक्षण की बात तो होनी चाहिए, लेकिन यह जनसंख्या के अनुपात में होनी चाहिए।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि राजस्थानी भाषा अकादमी के अध्यक्ष श्याम महर्षि ने कहा कि 21वीं सदी में भी समाज का एक बड़ा हिस्सा उपेक्षित है। उन्होंने कहा कि दलितों की लड़ाई महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने जैसे मिलकर लड़ी, आज भी ऐसे संघर्ष की आवश्यकता है। विशिष्ट अतिथि आर. डी. जावा ने कहा कि साहित्य समाज का दर्पण है और उन्होंने समाज में आज भी घटित हो रही अमानवीय घटनाओं पर अनेक प्रश्न उठाए। प्रो. गोपाल भारद्वाज ने अपने विशिष्ट अतिथि के उद्बोधन में तीन शब्दों - साहित्य, समाज और न्याय को आधार बनाकर अपने विचार प्रकट किए।

संगोष्ठी के प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता मूर्धन्य साहित्यकार रमाकांत शर्मा ने की और उन्होंने कहा कि साहित्य में विमर्श के विकल्प खोजे जाने चाहिए। मुख्य वक्ता डॉ. अवतारलाल मीणा ने ‘साहित्य संस्कृति और सामाजिक न्याय’ की व्याख्या दार्शनिक रूप से की। चर्चा में सकूर अनवर ने वक्ता के रूप में मुक्तक, शेर और शायरी के माध्यम से सामाजिक न्याय की बात कहीं। संगोष्ठी के समापन सत्र के मुख्य अतिथि राजेन्द्र सिंह सोलंकी ने इस प्रकार की कि गोष्ठियों के आयोजन और प्रयासों का महत्व बताते हुए सराहना की।

कार्यक्रम के मुख्य वकता के रूप में प्रसिद्ध साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम एवं दुर्गाशंकर गहलोत ने साहित्य एवं सामाजिक न्याय के उभरते हुए पहलुओं पर प्रकाश डाला। सत्र के अध्यक्ष श्री भागीरथ ने ‘अप्पो दीप भवः’ अर्थात् ‘अपना उजाला स्वयं’ करने से अपनी बात प्रारंभ करते हुए कहा कि जब तक जाति है तब तक एक आदर्श समाज का सपना पूरा नहीं हो सकता।कार्यक्रम के अंत में राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री वेद व्यास ने संगोष्ठी का सार संक्षिप्त में प्रस्तुत करते हुए कहा कि भविष्य में भी इस प्रकार के आयोजन किए जाएंगे और उन्होंने दलित, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को अकादमी के स्तर पर हर संभव मदद का भरोसा दिया। संयोजक चंदनमल नवल ने धन्यवाद और आभार ज्ञापित किया। संगोष्ठी में देश के विभिन्न हिस्सों से लगभग 200 लागों ने भागीदारी की।

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