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कनाट प्लेस में ‘चाँद के जुलाहे’





दिनांक 06-04-2013 की शाम,नयी दिल्ली के कनाट प्लेस मेंचाँद के जुलाहेशीर्षक से एक काव्य -गोष्ठी का आयोजन किया गया।गाँव व शहरको केन्द्र में रखकर हिंदी व अंग्रेजी में कविताएं पढी गयी।पुरानी व नयी पीढी के कवि/कवियित्रियों ने अपनी कविताओं में गाँव व शहर के वातावरण को जीवंत कर दिया । ‘रति अग्निहोत्री’ के कुशल संचालन व श्री ‘त्रिपुरारी शर्मा’ के संयोजन के अंतर्गत 20 से अधिक रचनाकारों ने अपनी कविताएं प्रस्तुत की।‘इन्दु सिंह’ ने अपनी कविता में गांव के भोले-भाले लोगों के निश्छल प्रेमको अभिव्यक्ति दी,तो ‘कनुप्रिया’ ने शहर की कठोरता व निर्ममता को कविता का विषय बनाया।‘पूनम माटिया’ की चिंता है कि मशीनीकरण के इस दौर में कहीं आदमी अपनी आदमियत  खोकर,रोबोट में न बदल जाये।आईने के सामने देर तक  खडे रहते हुए महिलाओं को तो अक्सर देखा है,लेकिन आज की युवा पीढी भी आईने पर फिदा है।’मयंक मिश्रा’ की कविता की पंक्तियां थीदेर तक देखता रहता हँ-खुद को आईने में। भाई ‘रवि ठाकुर’ की कविता का शीर्षक था-’गाँव का दिन’। उनकी इस कविता में गांव की प्रात:काल की बेला का एक दृश्य देखिये-

गांव अभी सोकर जगा था
डाली पर पंछी बैठे थे
नाली पर बच्चे बैठे थे।

शहरों में जगह की बहुत कमी है। वे अपना शौक कैसे पूरा करें,जिन्हें पेड.-पौधों से प्रेम है।‘खुशबु’ ने बालकानी में जगह देखी और वहीं पर अपने गमले सजा दिये।‘विकास राणा’ की चिंता है कि आने वाले समय में चलता-फिरता आदमी दीवार सा रह जायेगाआनंद’ने अपने गांव के ठंडे पानी के तालाब के किस्से अपनी कविता के माध्यम से सभी को सुनाए।’कृष्ण कान्त’जब कई वर्षों के बाद अपने गांव लौटे तो पुरानी स्मृतियों में खो गये। गांव से शहर की ओर पलायन करते समय मन में गम और खुशी दोनों ही तरह के भाव होते हैं।अनुपमा गर्ग की कविता की इन पंक्तियों का शायद यही भाव है-

’चला था मैं गांव से
आज मन हस रहा है
रो रहा है’

रति अग्निहोत्री पहुंच गयी मुरादाबाद की पीतलनगरी। अपनी कविता में उन्होंने पीतलनगरी के कामगारों के दर्द को बडी मार्मिकता से व्यक्त किया। काव्य गोष्ठी के अंतिम दौर में, अपनी कविता-‘यहां भी कभी गांव था’ लेकर पहुंचे विनोद पाराशर ने,शहरीकरण के प्रभाव में आ रहे गांवों के दर्द को अभिव्यक्ति दी।जिन अन्य कवि/कवियित्रियों ने इस अवसर पर अपनी रचनाएं पढीं,वे थे-मुदिता,प्रकृति,स्वाति चावला,आकांक्षा,अलसर,अरुण व शारिक असीम।

रपट:विनोद पराशर 

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आभार माणिक जी।