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वरिष्ठ गीतकवि एवं आलोचक वीरेंद्र आस्तिक हुए सम्मानित


मुरादाबाद
"हम तो एक किनारे भर हैं / सागर पास चला आता है"- इन व्यंजनापूर्ण पंक्तियों के रचनाकार है वरिष्ठ गीतकवि एवं आलोचक  वीरेंद्र आस्तिक।  आस्तिक जी पिछले ४० वर्षों से गीत एवं समीक्षा लेखन कर रहे हैं । आपका जन्म कानपुर (उ.प्र.) जनपद के एक गाँव रूरवाहार में 15 जुलाई 1947 को हुआ। अब तक आपके पांच गीत-नवगीत संग्रह- परछाईं के पाँव, आनंद ! तेरी हार है, तारीख़ों के हस्ताक्षर, आकाश तो जीने नहीं देता, दिन क्या बुरे थे प्रकाशित हो चुके हैं। धार पर हम (एक और दो) आपके द्वारा संपादित कृतियाँ है। आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं से गुजरने पर लगता है जैसे आज़ादी के बाद के भारत का इतिहास सामने रख दिया गया हो, साथ ही सुनाई पड़तीं हैं वे आहटें भी जो भविष्य के गर्त में छुपी हुईं हैं। 


इस द्रष्टि से उनके गीत भारतीय आम जन और मन को बड़ी साफगोई से प्रतिबिंबित करते हैं, जिसमें नए-नए बिम्बों की झलक भी है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी। और यह व्यंजना जहां एक ओर लोकभाषा के सुन्दर शब्दों से अलंकृत है तो दूसरी ओर इसमें मिल जाते है विदेशी भाषाओं के कुछ चिर-परिचित शब्द भी। शब्दों का ऐसा विविध प्रयोग भावक को अतिरिक्त रस से भर देता है। आस्तिक जी को अखिल भारतीय साहित्य कला मंच,  मुरादाबाद (उ.प्र.) ने 'स्व. मधुरताज स्मृति साहित्य-अलंकार-सम्मान- २०१२' से सम्मानित किया है।  इस अवसर पर उन्होंने कहा- 


"प्रतिवर्ष हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाता है जोकि अब एक कर्मकांड में बदल चुका है। क्योंकि उस दिन हम जो भी संकल्प लेते है उसे दूसरे दिन ही भूल जाते हैं। अब हिन्दी दिवस पर न कोई विशेष सक्रियता दिखाई पड़ती है और न ही उसके प्रति कोई प्रतिबद्धता या जवाबदेही। योजनाएँ सिर्फ कागज़ तक ही सीमित रह जाती हैं।  

हिन्दी का विकास पिछले दो सौ वर्षों से हो रहा है; प्राकृत भाषा के बाद अपभ्रंस काल से हो रहा है। आज हिन्दी भाषा एक जरूरत के रूप में पूरे विश्व में बोली तथा लिखी-पढी जा रही है। सिद्धांत को व्यवहार से ही परखा जा सकता है। हिन्दी ने अपने व्यवहार से सिद्धांत को बहुत पीछे छोड़ दिया है सिद्धांत टूट चूका है किन्तु संवैधानिक स्तर पर हिन्दी भाषा को बार-बार घेरने का प्रयास किया जा रहा है ताकि वह राष्ट्रभाषा न बन सके। दरअसल हिन्दी भाषा के मामले में आज हम वहीं खड़े हैं जहां से चले थे। ऐसी स्थिति में हमारे पास अब एक ही विकल्प बचता है।  राष्ट्रभाषा के समर्थन में जिस दिन हिन्दी जाति की करोड़ों-करोड़ों जनता आन्दोलन पर उतर आयेगी, संसद के सामने धरना देगी और आमरण अनशन पर बैठेगी, उसी दिन सच मानिए हिन्दी राष्ट्रभाषा घोषित हो जायेगी।"  इस अवसर पर आस्तिक जी ने अपने मधुर कंठ से एक नवगीत भी पढ़ा।
 
अवनीश सिंह चौहान 

सम्पादक: पूर्वाभास 

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