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अत्यंत गंभीर, यथार्थपरक और बहसतलब नाटक है। 'महाभोज'

  • पाखंड और लूट की सत्ता के खिलाफ एक वैचारिक संघर्ष है महाभोज
  • जनसंघर्षों से जुड़ने का संदेश दिया महाभोज ने
  • कालिदास रंगालय में हिरावल द्वारा महाभोज का दो दिवसीय मंचन आज संपन्न हुआ

बिहार की चर्चित नाट्य संस्था ‘हिरावल’ ने 24-25 सितंबर को पटना के कालिदास रंगालय में मन्नू भंडारी के बहुचर्चित नाटक ‘महाभोज’ का मंचन किया। तीन दशक से लगातार देश भर में मंचित किया जाने वाला यह नाटक आज के बिहार के राजनैतिक संदर्भ में बेहद प्रासंगिक लगा। जबकि इस नाटक के लिखे जाने से लेकर अब तक सत्ता के झंडों के कई रंग बदले हैं, लेकिन सत्ता के पाखंड, सामंती शक्तियों पर उसकी निर्भरता और उसके द्वारा नौकरशाही और मीडिया का अपने निहित स्वार्थ में इस्तेमाल की हकीकत के लिहाज से नाटक का मुख्यमंत्री दा साहब आज भी बेहद जाना-पहचाना चरित्र लगता है। एक ओर वह वोट के लिए खेत मजदूरों और दलितों के विकास के लिए योजनाओं की घोषणाएं करता है, तो दूसरी ओर वह उनका दमन-उत्पीड़न करने वाली सामंती शक्तियों का हितैषी बना रहता है। पक्ष-विपक्ष की शासकवर्गीय पार्टियों का गरीब-मेहनतकश वर्ग के साथ सिर्फ चुनावी फायदे और नुकसान का रिश्ता दिखता है, कोई उनकी जिंदगी को बुनियादी तौर पर बदलना नहीं चाहता, दोनों सामंती शक्तियों के प्रतिनिधि जोरावर सिंह को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं। 

मन्नू भंडारी लिखित इस नाटक की पहली प्रस्तुति आज से तीस साल पहले एनएसडी के रंगमंडल की ओर से दिल्ली में की गई थी। हिरावल ने आज से दस साल पहले भी इस नाटक का मंचन किया था। वैचारिक तौर पर यह अत्यंत गंभीर, यथार्थपरक और बहसतलब नाटक है।राजनीति के लिए तो मानो आज भी एक प्रभावशाली आईना है। महाभोज में बिसू नामक एक खेत मजदूर की हत्या का प्रसंग है, जो खेत मजदूरों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक कर रहा था और आगजनी के जरिए जला कर मार दिए गए गरीबों-दलितों को हत्यारों को सजा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा था। उसकी हत्या के बाद नाटक में मुख्यमंत्री दा साहब और विपक्षी पार्टी के सुकुल जी उपचुनाव में दलितों को अपने-अपने पक्ष में संगठित करने की हरसंभव कोशिश करते हैं। इस कोशिश में सत्ता मीडिया और नौकरशाही का खुलकर इस्तेमाल करती है। हत्या के जिस सच को लेकर बीसू के दोस्त बिंदा और रिसर्चर महेश संघर्ष करते हैं, दा साहब के इशारे पर उस सच को ही पलट दिया जाता है और बिंदा को ही हत्यारा साबित कर दिया जाता है। अपने हक अधिकार के लिए आंदोलन करने वालों को ही गुनाहगार साबित करके जेल में डाल देने की कई घटनाओं से नाटक के इस प्रसंग का प्रत्यक्ष संबंध जुड़ जाता है। 

थानेदार, अखबार का संपादक, डीआइजी और पक्ष-विपक्ष के नेता- सबके गरीब विरोधी चरित्र को नाटक ने बड़ी कुशलता से पर्दाफाश किया। मौजूदा तंत्र समाज के आखिरी आदमी के प्रति कितना निर्मम है, इसे इस नाट्य प्रस्तुति ने बडे़ कारगर तरीके से पेश किया। अपने साथी बीसू के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा बिंदा कहता है- 

‘कुछ नहीं करेगी यहां की पुलिस। कोई कुछ नहीं करेगा। ...अखबार वालों के पास गए, छापना तो दूर, बात तक नहीं की। आगजनी का कइसा ब्यौरा छापा था....अब जाने कउन सांप सूंघ गया है! सब के सब बिक गए हैं।’‘ 

गांव में कास्ट और क्लास विषय पर रिसर्च करने पहुंचे महेश शर्मा से बहस करते हुए वह दो टूक पूछता है- 

‘जरा बताओ, कउन मिटाएगा अमीर-गरीब का ई भेद? तुम तो डेढ़ महीने से हियां साईकिल पे घूम-घूमके अउर किताबें पढ़-पढ़के गांव जानि रहे हो।.... थीसस लिखोगे गांव पे। ...अइसे जाना जाता है गांव? अरे गांव जानना है तो जुड़ो हियां के लोगों के साथ.... सामिल होओ उनके दुख-दरद में! लिखो कि सरकारी रेट पे मजूरी मांगने-भर से जिंदा आदमियों को भून के राख बना दिया। अउर जब इस जुलुम के खिलाफ किसी ने आवाज उठाये की कोसिस की तो मार दिया उसे......’’

इस नाटक ने बुद्धिजीवियों और नागरिकों को जनसंघर्षों से जुड़ने का संदेश भी दिया। महेश शर्मा एसपी सक्सेना से कहता है- ‘‘लेकिन हमें परमिशन नहीं है सर कि हम गांव की समस्याओं और लोगों के साथ इनवॉल्व हों। फेलोशिप की पहली शर्त होती है यह। यह सारी की सारी एजुकेशन अज्ञान में रखना चाहती है हमको...नहीं चाहती कि हम अपने आसपास की असलियत को जानें, उससे जुड़ें। फार्म में भरकर देना होता है हमको कि हम सिर्फ देखेंगे... तटस्थ होकर। जो कुछ गलत है, उस पर रिएक्ट नहीं करेंगे... खून नहीं खौलने देंगे अपना। ...क्या मतलब है ऐसी एजुकेशन का।’’ नाटक के अंत में जब बीसू के दोस्त बिंदा को पुलिस यातना दे रही है और तंत्र से जुड़े सारे लोग मौजमस्ती में व्यस्त हैं, तब वह सवाल करता है कि क्या इन हालात में बिना इन्वाल्व हुए रह सकता है कोई? और इसी विंदु पर बुनियादी संघर्षा के साथ जुड़ाव की जरूरत के संदेश के साथ नाटक का अंत होता है।  

बिंदा की पत्नी रुक्मा की भूमिका में दिव्या गौतम ने पुलिसिया आतंक से परेशान आम मेहनतकश स्त्री का बेहद जीवंत अभिनय किया। थानेदार, दा साहब, जमुना बहन, जोरावर, लखन, बिंदा, सुकुल बाबू, एसपी, डीआईजी, संपादक दत्ता व सहायक संपादक की भूमिकाओं में क्रमशः राम कुमार, अभिषेक शर्मा, समता राय, नीतीश, कुंदन, अभिनव, प्रमोद यादव, अंकुर राय, राजेश कमल, सुधीर सुमन और संतोष झा ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया। महेश, हीरा, नरोत्तम, जगेसर, काशी, पांडे जी, बीसू, लठैत और मोहन सिंह की भूमिका मृत्युंजय, राजन, हिमांशु, राहुल रौशन, विक्रांत चौहान, मुरारी, अमित मेहता, चैतन्य कुमार और रौशन ने निभाई। ग्रामीण समेत अन्य भूमिकाओं में अविनाश कुमार, रतन, सूर्यप्रकाश, रतन और रुनझुन थे। नाटक का निर्देशन संतोष झा ने किया। सहनिर्देशक सुमन कुमार थे। प्रकाश परिकल्पना विज्येंद्र टांक तथा मंच परिकल्पना अभिषेक शर्मा की थी। उद्घोषक डीपी सोनी थे। नेपथ्य की अन्य भूमिकाओं और जिम्मेवारियों में विनय राज और युसूफ अली थे। इस अवसर पर शहर के कई महत्वपूर्ण रंगकर्मी, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी मौजूद थे। 

किसी सरकारी मदद के बिना और एनजीओ या कारपोरेट्स की फंडिंग के बगैर भी सिर्फ जनसहयोग के बल पर भी तीस-तीस पात्रों वाले मंचीय नाटक का प्रदर्शन संभव है, पटना में जसम की गीत-नाट्य इकाई हिरावल ने ‘महाभोज’ के दो दिवसीय मंचन के जरिए इसका उदाहरण पेश किया। जहां पुरस्कारों और प्रलोभनों के जरिए संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों और साहित्यकार-बुद्धिजीवियों को खरीद लेने और वैचारिक तौर पर लूट की सत्ता में उन्हें साझीदार बना देने का सिलसिला जारी है, वहीं हिरावल ने अपनी वैचारिक स्वतंत्रता और स्वाभिमान को बनाए रखने और संस्कृतिकर्मियों की सामूहिकता को ताकतवर बनाने की कोशिश की है। रंगकर्म की दुनिया में इस वैचारिक संघर्ष ने एक प्रतिबद्ध दर्शक वर्ग का भी निर्माण किया है, ‘महाभोज’ के मंचन के दोनों दिन दर्शकों की अच्छी खासी मौजूदगी ने जिसका जबर्दस्त तरीके से अहसास कराया। कमाल यह कि इतने गंभीर और पात्रबहुल इस नाटक को हिरावल के कलाकारों ने महज 27 दिनों में तैयार किया!

सुधीर सुमन
सदस्य,
राष्ट्रीय  कार्यकारिणी,
जन संस्कृति मंच 
यू-90, शकरपुर, दिल्ली-110092
s.suman1971@gmail.com
मो. 09868990959



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