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दखल ग्वालियर का आयोजन


स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज
‘खुली बहस’
मुख्य वक्ता –
प्रोफ़ेसर सविता सिंह,
अध्यक्ष,
स्त्री अध्ययन विभाग, इग्नू, दिल्ली

अध्यक्षता
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा, 
इतिहासकार व संस्कृतिकर्मी
दिन – 
2 सितम्बर, रविवार दिन में ग्यारह बजे से
स्थान–कला वीथिका, पड़ाव



बात ग्वालियर से शुरू करते हैं. दो घटनाएं हुईं पिछले दिनों. पहली घटना में कुछ गुंडों ने एक मासूम छात्रा को कोचिंग के बाहर से अपहृत कर लिया और फिर दुराचार करने के बाद सडक पर फेंक कर भाग गए. दूसरी घटना में माँ-बाप ने अपनी दुधमुंही बच्ची को अपनाने से यह कहकर मना कर दिया कि ‘हमें तो लड़का हुआ था’. बच्ची दो दिनों में मर गयी. बाद में डी एन ए टेस्ट से पता चला कि बच्ची उन्हीं की थी. और इन घटनाओं के बीच भ्रूण हत्या, भेदभाव, दहेज़ ह्त्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ जैसी तमाम घटनाओं की एक लम्बी श्रृंखला है जिससे देश का कोई कोना अछूता नहीं. ये घटनाएं समाज के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण का आइना हैं. अनचाही औलादों की तरह जन्मीं और फिर बचपन से ही डरते-सहमते दोयम दर्जे के नागरिक की तरह किसी न किसी पुरुष की छाया में जीती हुई उसके सुख-सुविधाओं के प्रबंध में जीवन भर खटती हुई औरत एक मुकम्मल इंसान बन ही नहीं पाती.

आज जब पढ़-लिख कर वह समाज में अपनी जगह बनाने की लड़ाई लड़ रही है तो भी उसे लगातार उठी हुई उँगलियों के बीच वैसे रहना होता है जैसे बत्तीस दांतों के बीच जीभ. जरा सा फिसली और चोट सहने को मजबूर. आज भी पुरुष समाज उसकी सारी गतिविधियों को नियंत्रित करना चाहता है और उसकी कोई भी गलती उसके लिए जानलेवा बन सकती है, यहाँ तक कि किसी के प्रेम प्रस्ताव का ठुकराना भी. गुवाहाटी में सरेराह उस मासूम लड़की के साथ जो हुआ, वह हमारे समाज की मानसिकता को दिखाता है. तेज़ाब फेंकने, तंदूर में जलाने, अपहरण और बलात्कार, सरेआम बेइज्जती जैसी ये तमाम घटनाएं बता रही हैं कि सामाजिक-आर्थिक प्रगति और स्त्रियों की पढ़ाई-लिखाई व रोजगार में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद समाज का रवैया उनके प्रति और हिंसक हुआ है.

विडंबना यह कि औरतों के प्रति होने वाले अत्याचार के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. बलात्कार इकलौता ऐसा अपराध है जिसमें अपराधी शान से घूमता है और पीड़िता का जीवन नरक हो जाता है. समाज के नेतृत्वकर्ताओं से लेकर पुलिस प्रशासन के अधिकारी और बड़े-बूढ़े तक लड़कियों को ‘ढंग के कपड़े’ पहनने की सलाह देते हुए यह कभी नहीं सोचते कि चार-पांच साल की बच्चियों और गाँव-देहात की गरीब औरतों पर फिर क्यों अत्याचार होता है? ज़ाहिर है, इसके कारण कहीं और हैं? शायद हमारी मानसिकता और सामाजिक बुनावट में, शायद हमारे राजनीतिक ढाँचे में, शायद गैरबराबरी वाली हमारी बुनियाद में.

आइये खुल कर बात करते हैं इस पर कि भविष्य में इन्हें रोका जा सके...छोटा सा सही, पर कदम तो उठाना ही पड़ेगा...आइये कि हम अपनी बच्चियों को एक सुरक्षित और खुशहाल भविष्य देने की दिशा में कदम उठा सकें



अशोक कुमार पाण्डेय 
  • जन्म:-चौबीस जनवरी,उन्नीस सौ पिचहत्तर 
  • (लेखक,कवि और अनुवादक के साथ ही प्रखर कामरेडी छवी के धनी.)
  • भाषा में पकड़:-हिंदी,भोजपुरी,गुजराती और अंग्रेज़ी 
  • वर्तमान में ग्वालियर,मध्य प्रदेश में निवास 
  • उनके ब्लॉग:http://naidakhal.blogspot.com/
  • http://asuvidha.blogspot.com
सदस्य संयोजन समिति,कविता समय 

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