बलराज साहनी स्मृति
8 वां राष्ट्रीय
नाट्य समारोह
रायगढ़ इप्टा का
नाटक ‘बकासुर’
समारोह की
अंतिम प्रस्तुति
थी। प्रकाश
व्यवस्था को
दुरूस्त करने
में कुछ
समय लग
रहा था।
इससे पहले
कि नाटक
प्रारंभ होता
तेज बारिश
की आशंका
के साथ
बूंदा-बांदी
शुरू हो
गयी, लेकिन
नाटक देखने
की ललक
में लोग
कुर्सियों पर जमे रहे। हिंदी
पट्टी में
जहाँ नाटकों
के दर्शकों
की कमी
का रोना
रोया जाता
हो वहाँ
भीषण गर्मियों
में पंखों
के बगैर
पूरे तीन
दिनों तक
सभागार का
खचाखच भरा
रहना यह
संकेत देता
है कि
नाटक मंडली
केवल कलाकर्म
के प्रति
नहीं बल्कि
सरोकारों के
लिये भी
प्रतिबद्ध हो तो उसके समक्ष खाली कुर्सियों का
वह संकट
उत्पन्न नहीं
हो सकता
जो शहरी
थियेटर में
आम प्रवृत्ति
है। समारोह
की सफलता
का अंदाजा
इस बात
से लगाया
जा सकता
है कि
‘‘ऑल्टरनेटिव लिविंग थियेटर’’, कोलकाता द्वारा
नाटक ‘‘घर
वापसी का
गीत’’ के
मंचन के
बाद सुविख्यात
निर्देशक व
रंगकर्मी प्रोबीर
गुहा ने
दर्शकों को
संबोधित करते
हुए कहा
कि ‘‘ आप
लोग धन्य
हैं जो
देर रात
तक इतनी
शांति से
बैठकर इतना
गंभीर नाटक
देख रहे
हैं।’’
नाट्य संस्था ‘इप्टा’
व ‘सामाजिक
संस्था ‘विकल्प’
द्वारा आयोजित
बलराज साहनी
स्मृति 8 वें
राष्ट्रीय नाट्य समारोह का समापन
रायगढ़ ‘इप्टा’
के नाटक
‘बकासुर’ के
मंचन के
साथ हुआ।
लोक व
आधुनिक शैली
के मिश्रण
के साथ
तकनीक के
विवेकपूर्ण इस्तेमाल ने इस उद्देश्यपूर्ण
नाटक को
अत्यंत रोचक
भी बना
दिया। मूलतः
मराठी में
यह नाटक
‘निर्भय बनो
आंदोलन’ के
लिये रत्नाकर
मटकरी द्वारा
लिखा गया
था। महाभारत
की एक
कथा भीम-बकासुर युद्ध
के एक
प्रसंग को
लेकर इसे
वर्तमान परिस्थितियों
में देखने
की कोशिश
की गयी
व इसमें
पंडवानी का
प्रयोग करते
हुए लोक
शैली के
तत्वों का
रोचक इस्तेमाल
किया गया।
नाटक का
छत्तीसगढ़ी में अनुवाद उषा आठले
ने किया
है तथा
निर्देशन व
प्रकाश अजय
आठले का
था।
इससे पूर्व
भिलाई इप्टा
द्वारा स्वर्गीय
शरीफ अहमद
के नाटक
‘‘मंथन’’ का
मंचन किया,
जिसमें केवल
दो ही
पात्र थे
जो पाप
व पुण्य
को अपने-अपने ढंग
से परिभाषित
करते हैं।
अस्तित्ववाद से लेकर सदियों से
समाज में
उपस्थित जटिल
समस्याओं व
विसंगतियों पर ये पात्र आपसी
संवाद के
जरिये गहन
‘मंथन’ करते
हैं और
दर्शक के
जेहन में
कुछ गंभीर
सवाल छोड़
जाते हैं।
‘मंथन’ साथी
शरीफ अहमद
की रंगयात्रा
का भी
मंथन है।
शरीफ ने
नाटक लेखन
की शुरूआत
‘परिंदे’ नाटक
से की
और यह
यात्रा आगे
चलकर ‘समर’,
‘परत दर
परत‘ व
‘पंचलैट’ से
होती हुई
और ‘मंथन’
पर आकर
असमय थम
गयी। शरीफ
भाई अपने
इस नाटक
में संवादों
की सरलता
के साथ
पूरे दृश्य
की जीवंत
उपस्थिति दर्ज
कराते हैं।
पात्रों के
आपसी संवाद
के बीच
सदियों से
समाज में
उपस्थित जटिल
समस्याओं को
रेखांकित करते
हुए दर्शकों
के मानस
पटल पर
अंकित करते
हैं..क्या?
क्यों? और
कब तक?
दो पात्रों
के इस
नाटक में
केवट के
रूप में
संजीव मुखर्जी
व पंडित
की भूमिका
में राजेश
श्रीवास्तव ने बेहतरीन अदाकारी की।
निर्देशन त्रिलोक
तिवारी का
था व
सह-निर्देशक
थे अशफाक
खान व रणदीप
अधिकारी।
‘‘मुझे लगता है
कि भाग्य
और भगवान
किसी बहुत
ही चालाक
व्यक्ति के
मन की
उपज है।
उसने दुनिया
को अपने
ढंग से
चलाने के
लिये ही
इन शब्दों
को जन्म
दिया है।
लेकिन तभी
मन के
किसी कोने
से आवाज
आती है
कि कोई
तो है
जो सबको
देख रहा
है, सबके
कर्मो का
हिसाब -किताब
कर रहा
है। उससे
कुछ भी
छिपा नहीं
है।’’ समारोह के
दूसरे दिन
हरिशंकर परसाई
की रचनाओं
पर आधारित
अरूण पाण्डेय
के कोलाज
‘निठल्ले की
डायरी’ को
दर्शकों ने
बेहद पसंद
किया। नाटक
देखते हुए
परसाई जी
का रचना
संसार ‘फ्लैशबैक’
की तरह
परत दर
परत खुलता
चला जाता
है और
लगता है
कि नाटक
के केंद्रीय
पात्र अपने
ही मोहल्ले
के ‘कक्काजी’
हैं जो
हर जरूरी-गैर जरूरी
बात पर
अपनी राय
देना आवश्यक
समझते हैं।
नाटक की
प्रस्तुति बेहद चुस्त व कसी
हुई थी
तथा यह
समारोह के
सबसे उम्दा
नाटकों में
से एक
था। नाटक
की परिकल्पना
व निर्देशन
अरूण पाण्डेय
का है।
इस नाटक के
पश्चात मेजबान
इकाई ‘इप्टा’
डोंगरगढ़ ने
भारतेंदु के
कालजयी नाटक
‘‘अंधेर नगरी,
चौपट राजा’’
पर आधारित
एक प्रस्तुति
छत्तीसगढ़ी में दी। संगीतप्रधान नाटक
होने के
कारण यह
प्रस्तुति वैसे ही काफी सरस
थी और
छतीसगढ़ी बोली
में देशज
तत्वों के
सम्मिलन के
साथ इसका
आनंद दूना
हो गया,
पर कलाकारों
की देहभाषा
आयोजन की
व्यस्तता व
थकान की
चुगली कर
रही थी।
नाटक का
निर्देशन किया
था राधेश्याम
तराने ने
व संगीत
निर्देशन मनोज
गुप्ता का
था।
समारोह के प्रथम
दिन दो
नाटकों का
मंचन किया
गया। भिलाई
इप्टा का
नाटक फांसी
के बाद
जहां हास्य
व व्यंग्य
के बेजोड़
शिल्प में
एक कारखाने
के बेकार
हो गये
कामगार की
दस्तान बयान
करता है।
नाटक सिर्फ
एक घटना
को लेकर
आगे बढता
है। ईश्वर
प्रसाद ने
अपनी बीबी
का खून
किया है।
अदालत उसे
दोषी मानती
है, लेकिन
नाटककार और
निर्देशक उसे
खूनी नहीं
मानते और
यह सवाल
अंततः दर्शक
के पाले
में डाल
दिया जाता
है, जिसकी
पूरी सहानुभूति
हालात के
मद्देनजर ईश्वर
प्रसाद के
साथ होती
है। नाटक
हँसते-हँसाते
हुए भी
कुछ बेहद
गंभीर सवाल
छोड़ जाता
है। निर्देशन
पंकज सुधीर
मिश्र का
था और
संगीत दिया
था भारत
भूषण परगनिहा
व सुनील
मिश्रा ने।
भूमिकायें मणिमय मुखर्जी , राजेश श्रीवास्तव, अशफाक
खान , रणदीप
अधिकारी संदीप
कृष्ण गोखले, मनोज जोशी, अत्ताउर
रहमान, श्याम वानखेड़े,
जगनाथ साहू
व शेलेश कोडापे
की थीं।
नाटक ‘‘घर
वापसी का
गीत’’ गांवों
के उन
असंख्य लोगों
की कहानी
है जो
आजादी के
इतने सालों
बाद भी
विस्थापन के
लिये व
शहरों की
ओर पलायन
के लिये
अभिशप्त हैं।
नाट्य परिकल्पना
व निर्देशन
प्रोबीर गुहा
का था।सहायक
निर्देशक तपन दास का
था। संगीत
व प्रकाश
था शुभादीप
गुहा का
व भूमिकायें
थीं तपन,
पन्ना, अफ्तर,
अवि, शिल्पी,
प्रतीक, तनिमा,
मोहन, अरूण,
साग्निक, अरूप
व अन्य
की।
"दो देशों के
विभाजन के
साथ केवल
स्वतंत्रता नहीं आती है,बल्कि
वह हाशिये
पर पड़े
करोड़ों लोगों
के लिये
बेघर हो
जाने का
पैगाम भी
लेकर आती
है। इसके
पीछे बहुत
से कारण
हो सकते
हैं - सांप्रदायिक
दंगे, भय,
असुरक्षित भविष्य, बेरोजगारी व अंततः
भूमंडलीकरण के साथ औद्योगीकरण। बेशुमार
लोग शहरों
की ओर
भागने लगते
हैं। वे
मनुष्यों की
तरह दिखते
तो हैं
पर कभी
भी सामान्य
मनुष्य की
तरह जी
नहीं पाते। अपनी जड़ों से
उखड़े व
बिखरे इन
लोगों का
भटकाव कभी
खत्म नहीं
होता। वे
एक नये
पते के
लिये, एक
नयी नियति
के लिये
आजादी के
63 साल बाद
भी भटकने
के लिये
अभिशप्त हैं।"
इससे पूर्व नाट्य
समारोह का
उद्घाटन करते
हुए इंदिरा
कला व
संगीत विश्वविद्याल
की कुलपति
प्रोफेसर डॉक्टर
माण्डवी सिह
ने कहा
कि यह
हर्ष व
गौरव की
बात है
कि डोंगरगढ़
इप्टा इतने
कम संसाधनों
के साथ
लगातार इतने
अच्छे कार्यक्रमों
का आयोजन
कर रही
है। उन्होंने
आश्वस्त किया
कि वे
भविष्य में
भी डोंगरगढ़
इप्टा के
आयोजनों में
शामिल होंगी।
निर्देशन के
लिये राष्ट्रपति
द्वारा संगीत
नाटक अकादमी
सम्मान से
विभूषित अंतरराष्ट्रीय
ख्याति के
निर्देशक श्री
प्रोबीर गुहा
ने कहा
कि ‘विकल्प’
व ‘इप्टा’
का बेहतीन
आयोजन कलाकारों
व आयोजकों
की प्रतिब़द्वता
का परिणाम
है। नाटकों
का उद्देश्य
केवल दर्शकों
का मनोरंजन
करना नहीं
है बल्कि
सामाजिक विसंगतियों
को दूर
करने के
लिये एक
औजार की
तरह काम
करता है।
उन्होंने कहा
कि नाटकों
के इस
सामाजिक पहलू
को ध्यान
में रखते
हुए इस
आंदोलन को
और भी
ज्यादा विकेंद्रित
करते हुए
गांव-गांव
तक फैलाया
जाना चाहिये।
कहीं ऐसा
न हो
कि यह
आंदोलन केवल
शहरी क्षेत्रों
में सिमट
कर रह
जाये। अतिथिद्वय ने
छत्तीसगढ के
मशहूर नाटककार
प्रेम साइमन
के लोकप्रिय
नाटकों की
एक किताब
का विमोचन
भी किया।
किताब का
संपादन दिनेश
चौधरी ने
किया है।
इस अवसर
पर
शालेय छात्रों के लिये एक
चित्रकला स्पर्धा
भी आयोजित
की गयी
थी व
छात्रों द्वारा
बनायी गयी
कृतियों को
समारोह-स्थल
पर प्रदर्शित
किया गया
है।
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