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भारत की फड़ परम्परा

भूमिका -
राजस्थान के लोक जीवन में भोपाओं द्वारा फड़ बाँचने की परम्परा का सदियों से प्रचलन रहा है। विशेषत: देवनारायण और पाबूजी के फ़ड़ अत्यन्त लोकप्रिय है। इस परम्परा में लगभग ८ ३६ मीटर विशाल फड़ का प्रयोग किया जाता है जिसमें लोक गाथा के पात्रों और घटनाओं का चित्रण होता है। इस विशालकाय चित्रण को सामने रख भोपागण काव्य के रुप में लोक कथा के पात्रों के जीवन, उनकी समस्याओं, प्रेम, क्रोध, संघर्ष, बलिदान, पराक्रम और उस जमाने में प्रचलित अन्तर्द्वेनदों को उभारकर प्रस्तुत करते हैं। नृत्य और गान का समावेश भोपाओं की इस प्रस्तुति को अत्यन्त लोकप्रिय बना देता है। विशेषकर राजस्थान के देहाती क्षेत्र के लोगों के सांस्कृतिक जीवन में इस परम्परा की गहरी छाप रही है।  
भगवान देवनारायण को विष्णु का अवतार माना जाता है। देवनारायण के फड़ में जहां एक ओर देवनारायण के पूर्वजों के जीवन, पराक्रम, प्रेम व बलिदान को चित्रित किया जाता है वहीं दूसरी ओर भगवान विष्णु के देवनारायण के रुप में जन्म लेने के कारणों और अवतार लेने के पश्चात उनकी जीवन लीलाओं को दर्शाया जाता है।  
भोपागण जागरण के रुप में नृत्य और गान के साथ फड़ को बाँचते हैं। यह प्रस्तुति प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के ११वें दिन से शुरु की जाती है। इसके बाद साल भर तक भोपागण अलग-अलग जगह पर जाकर फड़ कथा बाँचते हैं। साल भर में केवल चौमासे (बरसात का महीना) में इस प्रस्तुति को रोक दिया जाता है। कहा जाता है कि चौमासे में देवनारायण एवं अन्य देवतागण सो जाते है। इस महीने में फड़ों को खोलना भी वर्जित होता है। चौमासे में बैठकर कथा वाचन एवं गान किया जा सकता है परन्तु उसमें फड़ व नृत्य का प्रयोग नहीं किया जाता।
भोपाओं द्वारा फड़ प्रस्तुति केवल तीन स्थलों पर ही की जा सकती है-

  • भक्तगणों के घरों में

  • देवनारायण अथवा सवाई भोज के मन्दिर के प्रांगण में

  • जनसमुदाय सभा स्थल के सामने  
 
बगड़ावत देवनारायण गाथा राजस्थान की एक महान लोकगाथा है। जिसका सदियों से राजस्थान के लोक-जीवन में मौखिक प्रचलन रहा है।
लोकगाथा एक विशिष्ठ प्रकार का लोक काव्य होता है। सामान्यत: जिसकी उत्पत्ति किसी प्रेरणादायक अथवा प्रसिद्ध वस्तुगत घटना या जीवन में घटित कार्य-कलाप से होती है। किसी घटना और उसके प्रमुख पात्रो के जीवन, उनकी समस्याएं, उनके प्रेम, क्रोध, संकट, संघर्ष, बलिदान, पराक्रम और मार्मिक भावनाओं के वर्णन से बढ़ते-बढ़ते वह रोचक कथा एक भाव प्रधान गाथा बन जाती है।
ऐसी लोकगाथा का रचियता कोई एक व्यक्ति नहीं होता। वर्णनकारों और श्रोताओं दोनों के हाथों में ढलते-ढलते उस गाथा में अनेक अंश जुड़ते जाते हैं और वह निखरती जाती हैं। इस रुप में लोकगाथा का रचियता लोकमाननीय लोक ही होता है।
लोकगाथा चूंकि सरल और सहज भावों में प्रगटित (प्रकट होना) अपने जमाने की मानवीय घटनाओं और जन भावनाओं को अंकित करने वाला एक सरस साहित्य है इसलिये वह लोकप्रिय होता है। विशेषकर देहाती क्षेत्र में लोगों के सांस्कृतिक जीवन में इसकी गहरी छाप होती है। इसलिये इसमें लोक जीवन की सरल किन्तु गहरी अभिव्यक्ति होती है। यही इसके लोकप्रिय होने का मुख्य कारण है।
ऐसी लोकगाथाओं में वर्णित पात्रों की भावनाएँ एक हद तक उस समाज की प्रचलित मान्यताओं का प्रतीक होती है। पात्रों के द्वन्द और संघर्ष उस जमाने के प्रचलित अन्तर्द्वेन्दों को उभारकर प्रस्तुत करते हैं। प्रेम, वात्सल्य, वीरता एवं बलिदान मनुष्य जाति की सर्वमान्य भावनाएँ हैं, लेकिन जिस विशेष रुप से लोकगाथा के पात्रों के माध्यम से इन्हें प्रदर्शित किया जाता है उनमें ये केवल मात्र वैचारिक मान्यताएं न रहकर वास्तविक जीवन की अनुभुतियाँ बन जाती है। यही कारण है कि लोकगाथा का पात्र अपने जैसा ही इन्सान लगता है जिसमें अच्छाईयां, बुराईयां, कमियां, कमजोरियां सब एक साथ समाई मिलती है।
आम लोगों के सांस्कृतिक जीवन में लगातार प्रचलित होने के कारण और वर्णन-कर्ताओं द्वारा उसे और ज्यादा मार्मिक और आकर्षित करने के प्रयत्नो के कारण लोकगाथाओं में कई बार अतिश्योक्ति का समावेश हो जाता है। उस समय की प्रचलित धार्मिक भावनाओं और अन्धविश्वासों के प्रभाव से लोकगाथाओं के पात्रो में कई बार देवी शक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं। कई बार इन गाथाओं में विसंगत और परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का चित्रण भी मिलता है। इनका मौखिक प्रचलन ही इसका एकमात्र कारण है। इन गाथाओं का मूल्यांकन करने वालों को चाहिये कि वे इन कमजोरियों और अतिश्योक्तियों को परखे और उनमें चित्रित मूल जन-भावनाओं, अन्तर्विरोधों, प्रचलित सामाजिक सम्बंधो तथा बन्धनों को ही अपने मूल्याकंन का आधार बनाऐं। इस न से लोक साहित्य और लोकगाथा एक उत्कृष्ट अनुभूति की गहराई तक पहुँचने में सहायक होती है।
बगड़ावत देवनारायण की यह लोकगाथा उस समय के सामाजिक अन्तर्द्वेन्दों और उनमें उपस्थित समस्याओं तथा संघर्ष का एक अत्यन्त रोमांचक, भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी दृश्य प्रस्तुत करती है।
गणेश वन्दना  सरस्वती वन्दना

भोपागण जब फड़कथा बाँचना शुरु करते हैं, उसके पूर्व सभी देवी-देवाताओं का विधि पूर्वक आह्वाहन किया जाता है। सर्वप्रथम गणेश जी, और उसके बाद सरस्वती जी की वन्दना की जाती है।
  
विष्णु वन्दना

फिर एक-एक करके भगवान विष्णु के सभी अवतारों का आह्वाहन किया जाता है। जिसमें कि कच्छप अवतार, मच्छ अवतार, वराह अवतार, नरसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, कृष्ण अवतार, राम अवतार की कथा का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है।
कच्छप अवतार    समुद्र मन्थन
मच्छ अवतार
वराह अवतार    पृथवी को बचाते हुए
नरसिंह अवतार   हिरण्यकश्यप वध
वामन अवतार    राजा बलि को हराते हुए
परशुराम अवतार   सहस्र बाहु वध
कृष्ण अवतार    कंस वध
राम अवतार    बनवास
राम अवतार    मारीच वध
राम अवतार    सीता हरण
राम अवतार    अशोक वाटिका में हनुमान
राम अवतार    राम-रावण युद्ध
 
हरीराम और बाघ सिंह की कथा
राजा बिसलदेव की कचहरी एवं अजमेर शहर

बगड़ावत देवनारायण लोकगाथा अजमेर के राजा बिसलदेवजी के भाई माण्डलजी से शुरु होती है जो कि देवनारायण के पूर्वज थे। माण्डलजी के बड़े भाई राजा बिसलदेवजी उन्हें घोड़े खरीदने के लिये मेवाड़ भेजते हैं।
राजा माण्डल का मण्दारा/मंदारा
मेवाड़ पहुँच कर माण्डलजी कुछ घोड़े खरीदते हैं, मगर बहुत सारा पैसा वो तालाब बनवाने में खर्च कर देते हैं और अपने भाई से और पैसे मंगवाते हैं जो वो भेजते रहते हैं। बिसलदेवजी यह पता करने आते हैं कि माण्डलजी इतने सारे पैसो का क्या कर रहे हैं। इस बात का पता जब माण्डलजी को लगता है कि उनके बड़े भाई बिसलदेवजी आ रहे हैं, तब वह जो तालाब बनाया था उसमें घोड़े सहित उतर जाते हैं और जल समाधी ले लेते हैं। बिसलदेवजी को यह जानकर बहुत दुख होता है और वह माण्डलजी की याद में तालाब के बीच में एक विशाल छतरी और एक विशाल मंदारे का निर्माण (कीर्ति स्तम्भ नुमा) करवाते हैं और उस गांव का नाम माण्डलजी के नाम से माण्डल पड़ जाता है जो कि मेवाड़ के नजदीक आज भी स्थित है।
हरीराम और लीला सेवरी Download and View Animation
राजा बिसलदेव के राज्य में एक बार एक शेर ने आतंक फैला रखा था। गांवों के छोटे-छोटे बच्चो को वह रात को चुपचाप उठा कर ले जाता था। थकहार कर लोगों ने तय किया कि शेर का भोजन बनने के लिए हर घर का एक सदस्य बारी-बारी से जाएगा। एक रात माण्डलजी के पुत्र हरीरामजी जिन्हें शिकार खेलने का बहुत शौक होता हैं वहां से गुजरते हैं। रात बिताने के लिए वो एक बुढिया से उसके घर में रहने की अनुमति मांगते हैं और बुढिया उन्हें अनुमति दे देती है। रात को जब बुढिया अपने बेटे को भोजन खिला रही होती है तो हरीरामजी देखते हैं कि बुढिया अपने बेटे को बहुत प्यार से भोजन करा रही है और रोती भी जा रही है। हरीरामजी बुढिया से उसके रोने का कारण पूछते हैं। बुढिया उन्हें शेर के बारे में बताती हैं, और कहती हैं कि मेरे दो बेटे थे, एक बेटा पहले ही शेर का भोजन बन चुका है और आज रात दूसरे बेटे की बारी है। यह सुनकर हरीरामजी बुढिया को कहते हैं कि मां मैं आज तेरे बेटे की जगह शेर का भोजन बनने के लिए चला जाता हूं। जंगल में जाकर हरीरामजी आटे का एक पुतला बनाकर अपनी जगह रख देते हैं और खुद पास की झाड़ी में छुप जाते हैं। जब शेर आटे के पुतले पर हमला करता हैं तो हरीरामजी झाड़ी से बाहर आकर अपनी तलवार के एक ही वार से शेर की गर्दन अलग कर देते हैं। इसके बाद शेर का कटा हुआ सिर हाथ में लेकर अपनी खून से सनी तलवार को धोने के लिए पुष्कर घाट की ओर जाते हैं। पुष्कर के रास्ते में लीला सेवड़ी नामक एक औरत (ब्राह्मणी) रहती थी और वो सुबह सेवेरे सबसे पहले उठकर पुष्कर घाट पर नहा धोकर वराह भगवान की पूजा करने के लिये जाती थी। उसने यह प्रण ले रखा था कि वराह भगवान की पूजा करने के बाद ही किसी इन्सान का मुँह देखेगी। पुष्कर घाट पहुंचकर जब हरीरामजी तलवार को पानी से साफ करके अपनी मयान में डालते हैं तो लीला सेवड़ी जो वराह भगवान की पूजा कर रही होती है, आहट सुनकर पीछे मुड़कर देखती है। हरीरामजी डर के कारण शेर का कटा हुआ सिर आगे कर देते है जिससे लीला सेवड़ी को सिर तो शेर का और धड़ इन्सान का दिखाई देता है। वह कहती है कि यह तुमने क्या किया? अब मेरे जो सन्तान होगी वह ऐसी ही होगी, जिसका सिर तो शेर का होगा और शरीर आदमी का। अब लीला सेवड़ी कहती है कि   आपको मेरे साथ विवाह करना होगा। हरीरामजी सोचते है कि ऐसी सती औरत कहाँ मिलेगी, वह विवाह के लिये तैयार हो जाते हैं।
कुछ समय पश्चात हरीरामजी और लीला सेवड़ी के यहां एक सन्तान पैदा होती है, जिसका सिर तो शेर का और बाकि शरीर मनुष्य का होता है। हरीरामजी उस बच्चे को लेकर एक बाग में बरगद के पेड़ की कोचर (खोल) में छिपा कर चले आते हैं। दूसरे दिन बाग का माली आता है और देखता है कि बाग तो एक दम हरा भरा हो गया है। यह क्या चमत्कार है और वह पूरे बाग में घूम फिर कर देखता है तो उसे बरगद की खोल में एक नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनाई देती है और बाग का माली दौड़ कर बरगद के पेड़ की खौल में से बच्चे को उठा लेता है। वह यह देखकर दंग रह जाता है कि बच्चे का मुँह शेर का और शरीर इन्सान का है। वह बच्चे को राजा के पास लेकर जाता है। राजा बीसलदेव को जब हरीरामजी से सारी बात का पता चलता है तो उस बच्चे के लालन-पालन का जिम्मा वह स्वयं लेने के लिए तैयार हो जाते हैं।
बाघ सिंह का बाग और उनके विवाह    Download and View Animation
राजा बीसलदेव उस बच्चे का नाम बाघ सिंह रख देते हैं। बाघ सिंह की देख-रेख के लिए उस बाग में एक ब्राह्मण को नियुक्त कर देते हैं। बाघ सिंह उसी बाग में खेलते कूदते बड़े होते हैं।
राजस्थान में यह प्रथा है कि सावन के महीने मे तीज के दिन कुंवारी कन्याएं झूला झूलने के लिये बाग में जाती है। यही जानकर उस दिन बाघ सिंह और ब्राह्मण भी अपने बाग में झूले डालते हैं। बाघ सिंह झूला झूलने के लिये आयी हुई कन्याओं से झूलने के लिये एक शर्त रखते हैं कि झूला झूलना है तो मेरे साथ फैरे लेने होगें? लड़कियां पहले तो मना कर देती है लेकिन फिर आपस में बातचीत करती है कि फैरे लेने से कोई इसके साथ शादी थोड़े ही हो जायेगी। कुछ लड़कियां बाघ सिंह के साथ फैरे लेकर झूला झूलने के लिये तैयार हो जाती है और कुछ वापस अपने घर लौट जाती हैं।  
 
बाघ सिंह के साथ उसका ब्राह्मण मित्र लड़कियों के फैरे करवाता है और झूला झूलने की इजाजत देता है। उस दिन लड़कियां झूला झूलकर अपने घर वापस आ जाती हैं। जब वह लड़कियां बड़ी होती है तब उनके घर वाले उनकी शादी के सावे (लग्न) निकलवाते हैं, लेकिन जब उनकी शादी के लग्न नहीं मिलते हैं तब घर वालों को चिन्ता होती है कि आखिर इनके लग्न क्यों नहीं मिल रहे हैं। लड़कियों के माता-पिता राजा बिसलदेवजी के पास जाकर यह बात बताते हैं। राजा बिसलदेवजी एक युक्ति निकालते हैं और सब लड़कियों को एक जगह एकत्रित करते हैं और उनके पास पहरे पर एक बूढ़ी दाई को बैठा देते हैं, और कहते हैं कि यह बहरी है इसे कुछ सुनाई नहीं देता है।  
सारी लड़कियां आपस में खुसर-फुसर करती हैं और कहती हैं कि मैंने कहा था कि बाघ सिंह के साथ फैरे नहीं लो और तुम नहीं मानी। उसी का यह अंजाम है कि आज अपनी शादी नहीं हो पा रही है। यह बात बूढ़ी औरत सुन लेती है, और दूसरे दिन राजा बिसलदेवजी को सारी बात बताती है।
फिर राजा बिसलदेवजी बाघ सिंह को बुलाते हैं और उन्हें फटकार लगाते हैं। बाघ सिंह कहते है कि मैं एक बाथ भर्रूंगां, जो लड़कियां मेरी बाथ में आ जायेगी उससे तो मैं शादी कर लूगां और बाकि लड़कियों के सावे निकल जायेगें। बाघ सिंह जब बाथ भरते हैं उनकी बाहों में १३ लड़कियां समा जाती है। जिससे बाघ सिंह शादी करने को तैयार हो जाते है। १२ लड़कियों से स्वयं शादी कर लेते हैं और एक लड़की अपने ब्राह्मण मित्र को जो फैरे करवाता है, उसकोे दे देते है।
  (ऐसे ही कहानिया आगे बदती है.ज्यादा जानकारी के लिए http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/welcome.html )

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