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डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव का निधन



हमने रचना व विचार के क्षेत्र का सक्रिय रचनाकर खो दिया
लखनऊ में शोकसभा 7 नवम्बर को
कौशल किशोर

हम अभी कथाकार व ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव तथा व्यंग्य लेखक के पी सक्सेना के बिछुड़ जाने के दुख से उबरे भी नहीं थे कि जाने माने कवि व वरिष्ठ आलोचक डा0 परमानन्द श्रीवास्तव के निधन ने उदासी को और गहरा कर दिया है। पिछले सप्ताह से उनकी हालत गंभीर बनी हुई थी। उन्हें वेटिलेटर पर रखा गया था। हम कामना कर रहे थे कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो जाय। हमने यह आशा भी लगा रखी थी कि शायद कोई चमत्कार हो जाय। लेकिन यह सब मन का भ्रम ही साबित हुआ। आखिरकार उन्होंने हमारा साथ छोड़ दिया।

10 फरवरी 1935 को गोरखपुर में जन्मे परमानन्द जी की मृत्यु के समय उम्र करीब 78 साल थी। गोरखपुर ही उनकी कर्म व साहित्य साधना की भूमि थी। गोरखपुर विश्वविद्यालय में उन्होंने अध्यापन कार्य किया आर प्रेमचंद पीठ के प्रोफेसर के रूप् में 1995 में अवकाश प्राप्त किया। ऐसे दौर में जब प्रतिगामी शक्तियों व विचारों के विरुद्ध प्रगतिशील-जनवादी विचारों व संस्कृति का संघर्ष तेज हो रहा है, डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव जैसे प्रगतिशील कवि व आलोचक का जाना साहित्य व समाज के लिए बड़ी क्षति है। उन्होंने करीब पाच दशक तक साहित्य की सेवा की और कविता, विचार व आलोचना के द्वारा साहित्य की प्रगतिशील परम्परा व धारा का संवर्द्धन किया। 

उनके निधन से हमने रचना व विचार के क्षेत्र के एक अत्यन्त सक्रिय रचनाकार को खो दिया है। वे जमीन से जुड़े संघर्षशील रचनाकार थे। उनके अन्दर विचारों की दृढ़ता थी जो उनकी आलोचना की ताकत थी। उनकी कविता में जनजीवन व लोक संस्कृति के विविध रूपों का दर्शन होता है। उनकी कविताएं जहां लोकजीवन व लोकभाषा के करीब है, वहीं उनमें विचारों की उष्मा है। यही विशेषता उन्हें विशिष्ट बनाता है।डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव ने अपने साहित्य की यात्रा एक कवि के रूप में की थी। उनकी पहली कविता रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘नई धारा’ में 1954 में प्रकाशित हुई थी, वही उनका पहला आलोचनात्मक निबंधन 1957 में ‘युग चेतना’ में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने कहानियां भी लिखीं जो कहानी, सारिका, धर्मयुग, अणिमा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी। लेकिन परमानन्द जी की कवि व आलोचक के रूप में विशेष पहचान बनी। आलोचना के क्षेत्र में वे शिवकुमार मिश्र, चन्द्रबली सिंह, चन्द्रभूषण तिवारी, नन्दकिशोर नवल की पीढी के आलोचक रहे हैं। इस पीढ़ी ने हिन्दी आलोचना को आन्दोलनपरक बनाया व वामपंथी तेवर दिया।

डॉ परमानन्द श्रीवास्तव हिन्दी के उन आलोचकों से अलग रहे जिन्होंने साहित्य की यात्रा का अरम्भ एक कवि में रूप में की लेकिन आगे चलकर उनका काव्य लेखन अवरुद्ध हो गया। परमानन्द जी ऐसे रचनाकार रहे जिनका आलोचना कर्म के साथ साथ काव्य लेखन का कार्य भी निरन्तर चलता रहा। उनके चार कविता संग्रह है: उजली हंसी के छोर पर ;1960द्ध, अगली शताब्दी के बारे में ;1981द्ध, चौथा शब्द ;1993द्ध और एक अनायक का वृतांत ;2004द्ध। करीब एक दर्जन के आसपास आलोचना पुस्तके लिखीं जिनमें प्रमुख हैं ‘ नई कविता का परिप्रेक्ष्य ;1965द्ध, कविकर्म और काव्य भाषा ;1975द्ध, समकालीन कविता का यथार्थ ;1988द्ध, शब्द और मनुष्य ;1988द्ध, उपन्यास का पुनर्जन्म ;1995द्ध, कविता उत्तर जीवन ;2004द्ध। कई वर्षों तक उन्होंने हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘आलोचना’ का संपादन किया। ;इससे पहले अनियकालीन पत्रिका ‘साखी’ का भी उन्होंने संपादन किया था। डॉ परमानन्द श्रीवास्तव को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया । परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में लखनऊ में शोकसभा का आयोजन प्रलेस, जसम, जलेस व इप्टा की ओर से इप्टा कार्यालय, कैसरबाग में 7 नवम्बर को शाम साढे चार बजे रखा गया है।  

कौशल किशोर,संयोजक जन संस्कृति मंच, लखनऊ,9807519227Print Friendly and PDF

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