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राजेन्द्र यादव का बड़ा योगदान है

हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार व ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव का निधन की खबर दुखद है। वे चले जायेंगे, ऐसा लगता नहीं था। वैसे उनकी उम्र जहां पहुंच गई थी, उसमें वे कभी भी जा सकते थे। लेकिन जिस तरह उनकी सक्रियता बनी हुई थी तथा उन्हें लेकर जिस तरह के विरोधाभास व विवाद सामने आ रहे थे, उससे यह पहलु हमेशा गायब हो जाता था कि उनकी उम्र काफी हो चुकी है और इस उम्र की जो बीमारी व तकलीफें होती है, उन्होंने घेर रखा है।  उनका जाना एक अत्यन्त सक्रिय रचनाकार का जाना है। यह अत्यधिक पीड़ा भी देता है।

राजेन्द्र यादव ‘नई कहानी’ की ‘त्रयी’ निर्मित करते हैं। वे प्रेमचंद की कथा परंपरा को आधुनिक भावबोध से जोडते हैं। आजादी के बाद नई कहानी के रूप में जो आधुनिक व यथार्थवादी कथाधारा आई, उनके जाने से उसकी आखिरी कड़ी भी चली गई। अस्सी के दशक में राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ को जनचेतना की प्रगतिशील मासिक पत्रिका के रूप में शुरू किया। यह ऐसा दौर था जब व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली पत्रिकाएं ‘सारिका’, ‘दिनमान’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ बंद होने की हालत में पहुच गई थी। ‘हंस’ का प्रकाशन साहित्य की अतिमहत्वपूर्ण घटना थी। इसने नये रचनाकारों को मंच दिया। इसने नये विमर्श व बहसों की शुरुआत की। राजेन्द्र यादव तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद पिछले करीब तीन दशक से इस पत्रिका का संपादन कर रहे थे। 

राजेन्द्र यादव का बड़ा योगदान है उन्होंने परंपरिक प्रगतिशील साहित्य व चिंतन को नया आयाम दिया तथा समाज के जनतांत्रिकरण की प्रक्रिया में हाशिए के समाज और उनके विमर्श को साहित्य में प्रमुखता दी। हम उनके विचारों से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन उनके विचारों को इग्नोर नहीं कर सकते। विचारों का लोकतंत्र और गैरबराबरी के समाज के प्रति क्रिटिकल होना, उनकी खूबी थी। इसी ने उन्हें इतना जीवंत और हमारे लिए जरूरी बनाया। जन संस्कृति मंच की लखनऊ इकाई उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करती है तथा उनकी स्मृति को सलाम करती है।

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ मो - 9807519227

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