Featured

कविता और उसके कथ्य, भाषा व शैली के बदलावों को परखने की जरूरत है@ कालाकुंड

इंदौर, 22 अक्टूबर 2013। 

कविता और उसके कथ्य, भाषा व शैली के बदलावों को परखने की जरूरत हर समय में रही है क्योंकि उससे समाज की सतह के भीतर होने वाली वर्तमान की धड़कनों व भविष्य की पदचापों को सुना जा सकता है। अब जब हमारा वर्तमान ही बहुत जटिल हो गया है तो अनेक लोग इसका सीधा निष्कर्ष यह निकालते हैं कि कविता भी इसीलिए जटिल होगी ही। यह निष्कर्ष गलत है। दरअसल सच तो यह है कि जटिल वर्तमान ने कविता रचने की प्रक्रिया को अधिक मुश्किल बना दिया है। मुक्त छंद हो जाने से सबको लगता है कि अब कविता कोई भी कर सकता है। यह सच भी है। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि जो लोग कविता को इस दुनिया को सुंदर बनाने के एक औजार के रूप में देखते हैं, उन्हें कविता लिखने और समझने के लिए अपने समय व समाज की जटिलताओं को जानना ही पड़ेगा। कविता स्वयं में भोली नहीं है, बल्कि वह भोलेपन और मासूमियत की रक्षा के लिए तैयार एक समझदार प्रयास है। हमारे समय की कविता जिन प्रश्नों से मुठभेड़ कर रही है वे समाज, संस्कृति और भाषा के जरूरी सवाल हैं और यह कविता अपने समय का नया बिंब रचती है।


यह बातें मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा इंदौर के करीब स्थित प्राकृतिक स्थल कालाकुंड में 19-20 अक्टूबर 2013 को आयोजित दो दिवसीय कविता शिविर के दौरान सामने आईं। पहाड़ों से घिरे व नदी के किनारे पर मौजूद यह शिविर पेड़ों की छाँह में लगा और कविता के विभिन्न पहलुओं पर निर्बाध विचार-विमर्ष और साथ ही कविता-पाठ लगातार दो दिन चलता रहा। शिविर में इंदौर के साथ ही भोपाल, लखनऊ, चित्तौड़गढ़, अहमदाबाद, चुरू, सेंधवा एवं अन्य स्थानों से आये 20 से ज़्यादा प्रतिभागियों ने भागीदारी की।

सभी युवा कवियों ने अपनी कविताएं सुनाई, जिनके बहाने कविता की भाषा, शैली, कथ्य के साथ-साथ कविता की ज़रूरत पर भी बातचीत की गई। शिविर के दौरान कविता के उपयोगितावाद से लेकर कविता के भविष्य तक पर गहन बातचीत हुई। शिविर में भोपाल से आये कवि अनिल करमेले, म. प्र. प्रलेसं के महासचिव व कवि विनीत तिवारी ने विभिन्न कविताओं पर उदाहरणों के साथ समीक्षकीय बातें रखीं और सभी प्रतिभागियों को लगातार लेखन के लिए प्रोत्साहित किया।


पहले दिन परिचय सत्र से शिविर की औपचारिक शुरुआत हुई। इसके तुरंत बाद दूसरे सत्र में विश्व कविता पर बातचीत के दौरान विषय प्रवेश करते हुए विनीत तिवारी ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की योरपीय कविता (ब्रेष्ट, लोर्का, ज़्बीग्नेयेव हेर्बर्त से लेकर विस्साव शिम्बोस्र्का तक), भाषायी व आर्थिक साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ अपनी गौरवपूर्ण पहचान के साथ उभरी अफ्रीकी कविता को चीनुआ अचेबे, न्गूगी वा थ्योंगो, और केन सारो वीवा के हवाले से, लैटिन अमेरिका के भीतर पाब्लो नेरुदा से लेकर निकोनार पार्रा व रोक डाल्टन और एशिया के भीतर महमूद दरवेश, अहमद फ़राज़, से लेकर दून्या मिखाइल तथा वियतनामी कविताओं के संदर्भों के साथ विश्व कविता का एक परिदृष्य तैयार किया गया।


इस सत्र में अपनी बात रखते हुए युवा कवि विपुल शुक्ला ने विश्व कविता के कुछ अनुवाद सुनाए। इस दौरान कविता के उपयोगितावाद पर भी बात हुई कि किसी अच्छी कविता का इस्तेमाल कोई आंदोलन करना चाहे तो कर ले लेकिन कोई कवि कविता का उपयोग सोचकर तब तक माँग के आधार पर अच्छी कविता नही लिख सकता जब तक कि वह जीवन में भी उसके साथ न जुड़ा हो। इसलिए कविता को उपयोगितावादी नज़रिये से देखना उचित नहीं है। सरलता व जटिलता के मानकों पर भी बात हुई।


दोपहर के सत्र में नये कवियों की कविताए सुनी गईं और उन पर सभी ने अपनी-अपनी बात रखी। इस सत्र में इंदौर के नितिन बेदरकर, अलीम रंगरेज, सागर वाधवानी, विभोर मिश्रा व लखनऊ के विवेक मालवीय ने अपनी कविताएँ सुनायीं जिन पर बाकी भागीदारों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं। कुछ कविताओं के बहाने उर्दू कविता के विशाल और उसके आज के परिदृष्य पर सार्थक चर्चा हुई। नये कवियों के भीतर की संभावनाओं को, उनके उठाये गए नये विषयों व बिंबों को सराहा गया तथा विस्तार के मोह तथा दोहराव जैसे दोषों की ओर उनका ध्यान खींचा गया।


यही क्रम रात्रि भोज के बाद शरद पूर्णिमा के चाँद की रोशनी और अलाव की गर्मी के साथ तीसरे सत्र में शुरू हुआ। रात दो बजे तक चले इस सत्र में अजय काशिव (चुरु), पीयूष पंड्या (अहमदाबाद), निशांत गंगवानी (इंदौर), विपुल शुक्ला, हेमंत देवलेकर (भोपाल) तथा सौरभ अनंत (भोपाल) ने अपनी कविताएँ सुनाईं। इस दौरान कविता की भाषा, विषयों के चयन के साथ किसी विचार या युक्ति से कविता को बुनने के अच्छे व बुरे उदाहरणों पर भी बात हुई।


दूसरे दिन के पहले सत्र में सुबह 9.30 बजे रचना पाठ का तीसरा दौर शुरू हुआ, जिसमें सुदीप सोहनी (भोपाल), इंदौर के केशरी सिंह चिड़ार, सचिन श्रीवास्तव और एस. के. दुबे ने कविताएँ सुनाईं। इसी सत्र में आलोचना व कविता के रिश्तों व आलोचना की ज़रूरत व भूमिका पर भी विस्तार से बात हुई।


शिविर के समापन अवसर पर कवि उत्पल बैनर्जी (इंदौर) ने रवीन्द्र नाथ ठाकुर के बाद की बांग्ला कविता में अलग-अलग वक्त पर सामाजिक-राजनीतिक बदलावों से आये असर पर रोशनी डाली और अनिल करमेले (भोपाल) ने अपनी कविताओं से समकालीन हिंदी कविता के कलात्मक रूप से सशक्त राजनीतिक व प्रगतिशील चेहरे को उपस्थित शिविरार्थियों के सामने रखा। पूरे शिविर में इंदौर की समीक्षा दुबे, सुरेश डूडवे व सारिका श्रीवास्तव ने आलोचक व श्रोता की सजग ज़िम्मेदारी को निभाया। समापन कार्यक्रम में इंदौर से इस शिविर में शामिल होने के लिए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), इंदौर के साथी प्रमोद बागड़ी व अशोक दुबे एवं रूपांकन से शारदा मोरे व सिद्दीक खान, तथा आम आदमी पार्टी के अजय लागू भी कालाकुंड पहुँचे। 

शिविरार्थियों ने शिविर को अपनी समझ के विस्तार के लिए बहुत उपयोगी बताया व भविष्य में भी ऐसे शिविरों के आयोजन की अपेक्षा सामने रखी। आभार प्रकट किया म. प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय कोषाध्यक्ष श्री केसरी सिंह चिड़ार ने।


( मूल रूप से यहाँ से http://iptanama.blogspot.in/2013/10/blog-post_24.html)



Comments