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राजेन्द्र यादव को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि

राजेन्द्र यादव ( 28 अगस्त 192928 अक्तूबर 2013) अचानक चले गए. उनका जाना असमय इसलिए है कि अपने समवयस्कों के बीच जीवितों में वे ही थे जो बाद की साहित्यिक पीढ़ियों के बीच भी सबसे जीवंत और विवादास्पद बने रहे. अपने आधा दर्जन उपन्यास और इतने ही कहानी संग्रह, एक कविता-संग्रह और ढेरों आलोचनात्मक लेखों से ही वे साहित्य की दुनिया में एक कद्दावर हैसियत रखते थे, लेकिन और बहुत कुछ था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था.

हिन्दुस्तानी समाज में इस उम्र में दुनिया छोड़ देना बहुत हैरत की बात नहीं, लेकिन हैरत और दुःख इसलिए है कि वे बिलकुल कल तक ज़िंदगी की हरकतों के बीच बने रहे, जमे रहे, अड़े रहे. कोई उनसे सहमत हो या असहमत, उनकी उपस्थिति और उनके साथ संवाद से मुंह नहीं मोड़ सकता था. वे यारों के यार थे, लेकिन जो उनसे मुखालिफ विचार रखते थे, उनके लिए भी वे एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी थे जिसके बगैर उनसे प्रतिद्वंद्विता रखने वाले साहित्यिक आचार और विचार भी खुद को ‘कुछ कम’ सक्रिय महसूस करते थे.

राजेन्द्र यादव ‘नयी कहानी’ के स्तंभों में तो थे ही, ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक के नए अवतार में उन्होंने अपने ‘सम्पादकीयों’ के ज़रिए 1980 के दशक के मध्य से जिन बहसों को छेड़ा वे साहित्य और समकालीन समाज के रिश्ते की बेहद महत्वपूर्ण बहसें थीं. बहस चाहे 1857 के मूल्यांकन के बारे में हो, ‘पुरुष की निगाह में स्त्री’ के बारे में हो या फिर हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बारे में, वे हरदम ही एक पक्ष थे जिसके बरअक्स अन्य लोगों को बात करना ज़रूरी लगता था. राजेन्द्र यादव बहस उकसाते थे, प्रतिक्रियाएं जगाते थे. इस उद्देश्य के लिए चाहे जितनी सनसनी की जरूरत हो, उन्हें इससे गुरेज़ न था.

राजेन्द्र यादव का आग्रह था कि अस्मितामूलक साहित्य को ही नयी प्रगतिशीलता माना जाए. इसके लिए उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका को एक मुखर मंच बनाया. लेकिन प्रतिद्वंद्वी विचारों के लिए जगह की कोई कमी पत्रिका में भरसक नहीं थी. उनके जरिए पिछले ढाई दशकों में ‘हंस’ ने तमाम युवा स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़े समुदाय की प्रतिभाओं से हिन्दी जगत को परिचित कराया. इन वर्षों में प्रगतिशील चेतना की तमाम कहानियां ‘हंस’ के ज़रिए प्रकाश में आयीं. वे मोटे तौर पर एक उदारवादी, सेक्युलर और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी की भूमिका जीवनपर्यंत निभाते रहे. ‘कुफ्र’ कहने की आदत उनकी अदा थी जो लोगों को रुचती थी, सहमति या असहमति की बात दीगर है.  
       
उनके कथा- लेखन की प्रयोगधर्मिता निश्चय ही उल्लेखनीय है, लेकिन पिछले तीन दशकों से ‘मैं’ शैली में बेबाक ढंग से, अंतर्विरोधग्रस्त होने, गलत या सही समझे जाने के खतरों को उठाते हुए बोलना और लिखना उन्हें एक निराली साहित्यिक शख्सियत प्रदान करता है जिसकी कमी लम्बे समय तक हिन्दी की साहित्यिक दुनिया को खलती रहेगी.उन्होंने लेखन, सम्पादन के अलावा जीविका के दूसरे साधन नहीं तलाशे. ये हमारी आज की दुनिया में बेहद मुश्किल चुनाव है. जन संस्कृति मंच हिन्दी की इस निराली शख्सियत को अपनी श्रद्धांजलि पेश करता है .

(जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)   

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