वर्धा
प्रख्यात कहानीकार और
आलोचक डॉ.
विजयमोहन सिंह महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा में
‘राइटर-इन-रेजीडेंस’ के
रूप में
जुड़ गए
हैं।
वे इस उम्र में भी
एक युवा
की तरह
अत्यन्त जोश
और गंभीरता
से अध्ययन
और लेखन
कार्य में
संलग्न हैं।
डॉ.
विजयमोहन सिंह ने 1960 से 1969 तक
आरा(बिहार)के डिग्री
कालेज में
अध्यापन किया।
उन्होंने 1973 से 1975 तक दिल्ली विश्वविद्यालय
के रामलाल
आनंद कालेज
और 1975 से
1982 तक हिमाचल
विश्वविद्यालय, शिमला में अध्यापन किया।
उन्होंने 1983 से 1990 तक भारत भवन
,भोपाल में
‘वागर्थ’ का
संचालन किया।
वे 1991 से
1994 तक हिंदी
अकादमी , दिल्ली
, के
सचिव रहे।
डॉ.
विजयमोहन सिंह ने कई पत्रिकाओं
और संकलनों
का संपादन
किया है।
उनके पांच
कहानी संग्रह
टट्टू सवार,
एक बंगला
बने न्यारा,
शेरपुर पन्द्रह
मील, गमे
हस्ती कहूँ
किससे, चाय
के प्याले
में गेंद
प्रकाशित हुए
हैं। उनका
उपन्यास- कोई
वीरानी सी
वीरानी है,
काफी चर्चित
रहा। उनकी
आठ आलोचना
पुस्तकें प्रकाशित
हुई हैं।
उन्होंने नेशनल
बुक ट्रस्ट
से प्रकाशित
यूनेस्को कूरियर
के कुछ
महत्वपूर्ण अंकों तथा एन.सी.ई.आर.टी. के
लिए राजा
राममोहन राय
की जीवनी
का हिंदी
अनुवाद किया।
वे हिन्दी
साहित्य की
अनेक विशिष्ठ
पत्रिकाओं में निरन्तर लिख रहे
हैं। डॉ.विजयमोहन सिंह
का कहना
है कि
‘मैं लेखन
में भाषा,
चिन्तन और
दृष्टि के
किसी भी
प्रकार के
उलझाव को
पसन्द नहीं
करता भाषा
का समझ
की स्पष्टता
से सीधा
सम्बन्ध है-उलझावपूर्ण तथा
अबूझ शब्द
तथा वाक्य
विन्यास लिखना
मेरी समझ
में लेखक
की ही
‘समझ’ का
दिवालियापन हैं। अत: मैंने इससे
बचने का
कोई प्रयत्नपूर्वक
प्रयास नहीं
किया है-बल्कि मैं
प्रारम्भ से
ही तर्क
संगत, सीधे
तथा स्पष्ट
ढंग से
सोचने-लिखने
का अभ्यस्त
रहा हूँ
।’
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