कविताओं के माध्यम से वर्तमान समय में मेहनतकश और उपेक्षित जनता के जीवट, शोषण, विद्रोह, और दमन का ब्यौरा
31 मार्च २०१२
इप्टा
दिल्ली राज्य
की जेएनयू
इकाई ने
31 मार्च 2012 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
के पहले
वार्षिक नाट्य
समारोह ‘‘रंग
बयार’’ के
पहले दिन
नाटक ‘‘ख़तरा’’
प्रस्तुत किया।
यह नाटक
पांच कविताओं
के माध्यम
से वर्तमान
समय में
मेहनतकश और
उपेक्षित जनता
के जीवट,
शोषण, विद्रोह,
और दमन
का ब्यौरा
प्रस्तुत करता
है।
नाटक शुरू होता
है शमशेर
बहादुर सिंह
की कविता
‘‘बैल’’ से,
जो एक
ओर श्रम
के सौन्दर्य
का रूपक
है, तो
दूसरी ओर
श्रमिकों का
ख़ून चूसने
वाली शोषक
प्रक्रिया और उसके प्रति आक्रोश
का कथन
भी है।
इससे भी
आगे बढ़कर,
कविता सैद्धांतिक
स्तर पर
कामगार को
परिभाषित भी
करती है
जहां ‘‘मैनेजर’’
भी एक
श्रमिक है।
इस परिभाषा
का सहज
विस्तार कविता
की अंतिम
पंक्ति में
उद्घोष पाता
हैः ‘‘मुझे
सारी दुनिया
ही एक
बैल नज़र
आती है’’। बैल
की निरीहता
और आक्रोश
सहज ही
दलितों की
सामाजिक स्थिति
और गुस्से
में रूपायित
हो जाते
हैं नाटक
की अगली
कविता ‘‘ठाकुर
का कुआं’’
(ओम प्रकाश
वाल्मीक) में,
जहां सारा
उत्पादक श्रम
करने के
बाद भी
वे ख़ुद
को समाज
से बाहर
और अपने
श्रम के
उत्पाद से
बेदखल पाते
हैं। इस
बेदखली के
खिलाफ ग़ुस्सा
सहज ही
एक नयी
व्यवस्था बनाने
की इच्छा
और संघर्ष
में तब्दील
होता है।
ये नई
व्यवस्था असल
में सामंतवादी-जातिवादी व्यवस्था
को उखाड़कर
एक लोकतांत्रिक
संवैधानिक राज्य की स्थापना के
रूप में
सामने आती
है।
इस परिवर्तन की
प्रक्रिया और संघर्ष में फिर
कुछ नया
रचने का
सौन्दर्य है,
सुरक्षा और
सम्मान की
अभिलाषा है
और ‘‘गांव,
शहर, दे'’’
में अपनी
भागीदारी और
अपने अधिकार
का गर्वीला
वक्तव्य भी।
नई व्यवस्था
में भी
सत्ता के
केन्द्रीकरण का अंदेशा रहता ही
है। वर्तमान
समय में
औपचारिक लोकतांत्रिक
राज्य होने
के बावजूद
भारतीय राज्य
किस तरह
एकाधिकारवादी, निरंकुश और जनविरोधी हो
रहा है,
इसका विवरण
देती हैं
विष्णु खरे
की दो
कविताएं- ‘‘डरो’’ एवं ‘‘स्वीकार’’।
नाटक में
इन दोंनो
कविताओं को
अलग अलग
न रखकर
एक दूसरे
में मिला
जुलाकर इस्तेमाल
किया गया
है।
साथ ही सरकार
द्वारा किए
जा रहे
जनविरोधी, कारपोरेट-परस्त एवं गैर
लोकतांत्रिक कारनामों की ख़बरों ;जैसे
काश्मीर में
सामूहिब कब्रों
का बरामद
होना, नई
गरीबी रेखा
की घोषणा,
विजय माल्या
की कंपनी
को आर्थिक
सहायता देने
का प्रस्तावद्ध
का कथन
और भारतीय
संविधान में
निहित मौलिक
एवं राजनैतिक
अधिकारों का
तोता रटंती
वाचन हमारे
समय का
राजनैतिक विदू्रप
प्रस्तुत करता
है। इन
दोनों कविताओं
का वाचन
एक विद्रोह
की मुद्रा
में सामने
आता है,
जो सत्ता
को दमन
का मौका
देता है।
नाटक का
अंत अवतार
सिंह पाश
की कविता
‘‘अपनी असुरक्षा
से’’ होता
है। ये
कविता देश
को एक
न्याय-व्यवस्था
की तकनीकी
समझ से
परे एक
भावनात्मक संबंध के रूप में
देखती है
और देश
की सुरक्षा
के नाम
पर किये
जा रहे
किसी भी
अमानवीय कर्म
और दमन
एवं शोषण
के विरोध
में एक
तर्क प्रस्तुत
करती है।
नाटक की दृश्य
रचना में
एक डंडे
और कुछ
रस्सियों का
बहुआयामी प्रयोग
किया गया
है जो
सेट का
काम भी
करती है
ओर प्रापर्टी
का भी।
जो बैल
के गले
पर रखा
जुआ भी
है, कोल्हू
का बंधन
भी, नींद
का झूला
भी है,
विद्रोह का
झण्डा भी,
नई व्यवस्था
की धरन
भी है
और दमन
का औजार
भी। पूरी
प्रस्तुति के दौरान सारे पात्र
इस डण्डे
और रस्सियों
के माध्यम
से एक
दूसरे से
जुड़े रहते
हैं और
प्रतीकात्मक रूप से लोगों के
बीच किस
तरह के
सत्ता संबंध
हैं और
लोग किस
तरह उस
सत्ता का
इस्तेमाल करते
हैं इस
विचार की
केन्द्रीयता को मूर्त रूप देते
हैं।नाटक को दर्शकों
ने खड़े
होकर सराहा।
लाइव संगीत
को खासकर
पसंद किया
गया।
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