अपने रूप और बलिदान से प्रसिद्ध हुई रानी पद्मिनी मात्र चित्तौड़ की नहीं बल्कि भारत की रानी थी। जीते जी जौहर करने की घटना भी अकेले मेवाड़ नहीं बल्कि पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है। अफसोस है कि इन दोनों को राष्ट्रव्यापी गौरव हासिल नहीं हुआ। यह विचार प्रदेश के जाने माने इतिहासकार व साहित्यकार 95 वर्षीय राजेंद्र शंकर भट्ट ने मंगलवार रात मीरा स्मृति संस्थान की ओर से रानी पद्मिनी विषयक गोष्ठी को प्रमुख वक्ता के बतौर संबोधित करते हुए व्यक्त किए। भट्ट ने कहा कि रानी पद्मिनी को चित्तौड़ की रानी कहते है, लेकिन वह सही मायने में भारत की रानी थीं। वह भारत के चरित्र और संस्कृति के मूल्यवान तत्व के रूप में इतिहास की अनमोल शख्सियत है। पुरातत्वविद् पदम श्री मुनि जिनविजय ने भी कहा था कि जौहर चित्तौड़ की नहीं बल्कि देश की घटना थी। पद्मिनी पर मोहित अलाउदीन खिलजी साधारण शासक नहीं था। उसमें महत्वाकांक्षा थी कि मेवाड़ विजय के बाद ही उसकी भारत विजय की मंशा पूरी हो सकेगी। वह एक स्वाभिमानी, सुंदर और बुद्धिमान स्त्री को हासिल करना चाहता था। इसके लिए सात माह तक चित्तौड़ के आसपास बना रहा। पद्मिनी ने समर्पण करने की बजाय मात्र 18 वर्ष की उम्र में खुद को अग्नि में समर्पित कर दिया।
अध्यक्षता करते हुए इतिहासकार प्रो. गौरीशंकर असावा ने कहा कि मेवाड़ में महिलाओं यथा पदमिनी, कर्णावती, पन्नाधाय का इतिहास विशेष रहा है। वरिष्ठ साहित्यकार स्वामी ओमानंद सरस्वती, दोहा सम्राट एबी सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता और मीरा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष भंवरलाल शिशोदिया ने भी विचार रखे। संचालन सचिव प्रो. एसएन समदानी ने किया। अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ नागरिक मंच के अध्यक्ष व संस्थान के प्रबंध मंडल सदस्य नवरतन पटवारी, इंटक नेता घनश्यामसिंह राणावत, कवि अब्दुल जब्बार, सत्यनारायण ईनानी ने किया।
पद्मिनी श्रीलंका के पास सिंगल द्वीप की या जैसलमेर के पास पुंगल गढ़ जगह की राजकुमारी थीं। इतिहासकारों में इसे लेकर भी मतभेद है। यह विरोधाभास मंगलवार को यहां हुई गोष्ठी में भी उजागर हुआ। इतिहासकार राजेंद्र शंकर भट्ट के मुताबिक इतिहास में यह बात गलत बताई जाती है कि पदमिनी सिंगल द्वीप (श्रीलंका के पास किसी स्थान) की थी। इतिहास को समझने से पता चलता है कि पद्मिनी जैसलमेर के पास पुंगलगढ जगह की राजकुमारी थीं। उसके पिता जैसलमेर से तिरस्कृत थे। भट्ट ने कहा कि चित्तौड़ के राणा रतनसिंह का शासन डेढ़-दो साल रहा और ऐसे में यह कैसे संभव है कि वह चित्तौड़ से पदमिनी को लेने इतने सुदूर सिंगल द्वीप पहुंच गया और लेकर आ गया। उनका दावा है कि मौजूदा राजस्थान के जैसलमेर के पास पुंगलगढ जगह पर हुई पदमावती के गुण व रूप के कारण उसे पदमिनी नाम से जाना गया। जैसलमेर की महिलाओं की सुंदरता का जिक्र कई किताबों में है। अपनी सुंदर पुत्री को आक्रांताओं से बचाने के लिए ही पदमावती के पिता ने उसका विवाह जल्द करने के उद्देश्य से चित्तौड़ के राणा रतनसिंह के पास नारियल भेजा था। डोली में सवार कर पदमावती चित्तौड़ आई और उसका विवाह भी चित्तौड़ में ही हुआ। तब उसकी उम्र मात्र 15-16 साल ही थीं। इतिहास में भी पदमावती के जन्म 1285 से जौहर1303 तक का प्रमाण मिलता है। यानी उसकी आयु 18 वर्ष ही रही। दूसरी ओर इसी गोष्ठी में अन्य इतिहासकार प्रो. गौरीशंकर असावा ने मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित पदमावती ग्रंथ का उल्लेख करते हुए संकेत दिया कि पद्मिनी सिंगल द्वीप की थी। उन्होंने कहा कि कलकी पुराण में भी सिंगल द्वीप का वर्णन है। कलकी पुराण आधार स्तंभ था, जिसको लेकर ही पदमावती ग्रंथ की रचना हुई।
इतिहासकार राजेन्द्र शंकर भट्ट ने कहा कि पदमिनी के समय लक्ष्मी सिंह नामक छोटे शासक के बलिदान को भी इतिहास में जगह नहीं मिल पाई। गोरा-बादल ने परिस्थतियां विपरीत होने के बावजूद रतनसिंह को छुड़ाया तो अलाउदीन और कठोर हो गया। उसके वापस आने पर 20 दिन तक युद्ध चला। इस दौरान छोटे शासक लक्ष्मी सिंह ने गजब का बलिदान दिया। वह अपने 15 भाइयों व बेटों में से एक को प्रतिदिन युद्ध स्थल पर महारावल बनाकर भेजता था। वीरगति प्राप्त होने के बावजूद भाई और बेटों को भेजता रहता। अंत में खुद उसने भी बलिदान दे दिया।
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